अजय कुमार
देश जब अपने लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा था। राजनीतिक वातावरण अत्यधिक आवेशित था और राजनीतिक दल अपने विरोधियों पर बढ़त हासिल करने के लिए बेताब थे। इस अत्यधिक प्रतिस्पर्धी माहौल में, कई राजनेता चुनाव जीतने में मदद करने के लिए आपराधिक तत्वों की ओर मुड़े। इसने भारत में राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत को चिह्नित किया। अतीक भी इसी से ‘पैदा’ हुआ था। जिसका आदि अंत हो गया। अतीक और उसके भाई अशरफ की मौत पर राजनीतिक दल अपने हिसाब से हो-हल्ला मचाते रहेंगे, लेकिन अतीक ब्रदर्स की हत्या को लेकर पुलिस को जवाब देना आसान नहीं होगा, उसे कोर्ट का भी सामना करना होगा।
बाहुबली अतीक ब्रदर्स की पुलिस कस्टडी में हत्या को सिर्फ एक सनसनीखेज वारदात भर समझ के नहीं देखा जा सकता है। निश्चित ही इसके तार अतीक गुट के प्रतिद्वंद्वी माफिया गिरोह के अलावा कुछ सफेदपोश नेताओं और अधिकारियों से भी जुड़े हो सकते हैं। अतीक इतना बड़ा खूंखार अपराधी ऐसे ही नहीं बन गया था। उसे सियासी संरक्षण तो मिला ही हुआ था, इसके अलावा उसकी ब्यूरोक्रेसी से लेकर पुलिस महकमे तक में अच्छी पकड़ थी। जिसके बल पर करीब आधे दशक तक वह अपने दहशत का साम्राज्य स्थापित रखने में सफल रहा था। उमेश पाल हत्याकांड के समय भी अतीक अहमद और उसके परिवार के लोगों को राजनीतिक संरक्षण मिलने की बात सामने आई थी। अतीक अगर मुंह खोलता तो उसको संरक्षण देने वाले कई नेताओं और अधिकारियों के नाम उजागर होना तय था। इसी के चलते अतीक भाइयों को अगर मौत के घाट उतार दिया गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हत्या के बाद शूटरों का जो पहला बयान सामने आया था, उसमें वह कह रहे हैं कि वह बड़े माफिया बनना चाहते हैं। यह बयान हजम होने वाला नहीं है क्योंकि सब जानते हैं कि तीनों शूटरों को जेल की सलाखों के पीछे अपनी पूरी जिंदगी गुजारनी होगी और फांसी की सजा भी मिल सकती है।
बहरहाल, उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के अधिकारी लगातार अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ से कई आपराधिक वारदातों के राज खुलवाने में लगे थे। यह भी पता करने की कोशिश कर रहे थे कि उनको कब-कब, किस-किस ने संरक्षण दिया था। अतीक अहमद और उसके परिवार का कई राजनीतिक दलों से संबंध रहा है। इसमें ओवैसी की पार्टी और अपना दल के अलावा सपा-बसपा जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं। मुलायम हों चाहे मायावती या अखिलेश, इस गुंडे को माफिया बनाने में इनकी पार्टी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन गुंडों में सपा, बसपा जैसे दलों के आकाओं को मुस्लिम वोट बैंक नजर आता था।
अतीक ने अपने समुदाय के मध्य अपनी छवि एक ऐसे दबंग की बनाई थी जो दंगों के दौरान उसके समुदाय के लोगों की रक्षा कर सकता था। मतलब जितने अधिक दंगे होते थे उसकी लोकप्रियता उतनी अधिक बढ़ जाती थी। लोग यह स्पष्ट रूप से जानते हैं कि ये दंगे काफी कुछ प्रायोजित होते थे। इन दंगों के दौरान अतीक अहमद को प्रसिद्धि क्यों और कैसे मिली? उसने पहले अपने को अपने समुदाय के संरक्षक के रूप में स्थापित किया, अपना जनाधार बनाया और फिर उसे चुनाव में भुना लिया। 1979 में पहली बार अतीक अहमद पर जघन्य अपराध (हत्या) का मुकदमा दर्ज हुआ। अतीक उत्तर प्रदेश का पहला अपराधी था जिसके ऊपर “गैंगस्टर एक्ट” लगाया गया। इसके लगभग दस वर्ष बाद, 1989 में इसने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में इलाहाबाद पश्चिम विधानसभा से विधायक का चुनाव लड़ कर और विजयी होकर अपनी लोकप्रियता और समुदाय विशेष के जनाधार को भुना लिया। अब वह एक अपराधी, गुण्डा, हत्यारा नहीं बल्कि समुदाय विशेष का हीरो था।
यूं तो कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है, लेकिन अपराधियों को संरक्षण देने में समाजवादी पार्टी और उसके बाद बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में अग्रणी रही हैं। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी ने सबसे पहले अतीक को अपनी पार्टी में सम्मिलित किया। 1996 में वह समाजवादी पार्टी से विधायक बना और शहर पश्चिमी सीट से पांच बार विधायक रह कर रिकार्ड कायम किया। 1999-2003 तक वह सोनेलाल पटेल द्वारा स्थापित “अपना दल”, जो आज एनडीए का घटक है, उसका अध्यक्ष रहा। मोदी सरकार में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल अब इसी दल की राष्ट्रीय प्रमुख हैं। अपना दल से अलग होने के बाद एक बार फिर वह समाजवादी पार्टी की ओर लौटा। 2004-2009 तक वह समाजवादी पार्टी के टिकट पर फूलपुर (इलाहाबाद) से लोकसभा सदस्य चुना गया। अपराध के जरिए राजनीति में प्रवेश करने वाले अतीक अहमद का सारा जीवन जाति और संप्रदाय पर आधारित राजनीति में ही बीता। सिर्फ समाजवादी पार्टी ही नहीं बल्कि अपना दल और बहुजन समाज पार्टी में भी अपनी इसी ताकत के कारण यह व्यक्ति महत्वपूर्ण पदों पर रहा।
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