हमारे प्राचीन ऋषि प्रकृति की गोद में दूर जंगल में जाकर शान्त और एकांत स्थान पर अपना आश्रम बनाया करते थे । आश्रमों में बैठकर वह चराचर जगत के रहस्यों को खोजा करते थे। जीवन और जगत की समस्याओं पर गहन शोध किया करते थे। इसके साथ ही आत्मिक उन्नति करते हुए मानव किस प्रकार जीवन मरण के चक्र से कैसे छूट सकता है ? इस पर भी गहन मंथन किया करते थे। इस प्रकार दूर जंगल में बनाए गए इन आश्रमों पर जब गुरुकुल विकसित होते थे तो उनसे निकलने वाले विद्यार्थी संसार के कल्याण के लिए निर्मित किए गए उत्कृष्ट मानव हुआ करते थे। इन आश्रमों को या गुरुकुलों को जीवन निर्माण की शाला कहा जा सकता है। इन्हें ध्यानशाला भी कहा जा सकता है और विज्ञान के साथ-साथ उत्कृष्ट विचारों का उत्पादन केंद्र भी कहा जा सकता है। हमारे महान ऋषियों के द्वारा स्थापित किए गए इन गुरुकुलों के माध्यम से जीवन बड़ा सहज और सरल होकर आगे बढ़ता था। कहीं किसी के अधिकारों का अतिक्रमण करने की बात कोई भी व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था। सब सबका साथ लेकर और सबका हाथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे ।
यही वह स्थिति थी जिसके लिए व्यास जी ने कहा है कि :-
न राज्यं न च राजासीत् न दण्डो न च दाण्डिकः।
स्वयमेव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्।।
अर्थात उस समय जब न तो राज्य था, न ही राजा और न ही दण्ड विधान था, न कोई दण्ड देनेवाला। सारी प्रजा धर्म के प्रभाव से परस्पर एक दूसरे की रक्षा करती थी।
धर्म एक ऐसी पवित्र व्यवस्था थी जिसमें कर्तव्य निर्वाह पर सब लोग स्वाभाविक रुप से ध्यान देते थे और सभी आत्मदीपो भव: की स्थिति को प्राप्त कर उसी के ज्ञान प्रकाश में अपने कार्यों का संपादन करते थे।
फिर एक स्थिति ऐसी आई जब लोगों ने एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करना आरंभ किया। ऋषियों के पास दंड की कोई व्यवस्था नहीं थी। उनके पास आध्यात्मिक ज्ञान था। उसी के आधार पर वह संसार की गति को सुव्यवस्थित बनाए रखने का प्रयास कर रहे थे, परंतु एक वर्ग ऐसा तैयार होता जा रहा था जो ऋषियों की इस वैज्ञानिक व्यवस्था को भंग कर देना चाहता था। तेजी से पनपते इस वर्ग की इस प्रकार की गतिविधियों को देखकर ऋषि मंडल चिंतित था । तब उन्होंने निर्णय लिया कि इस प्रकार के उत्पाती लोगों पर नियंत्रण रखने के लिए राजा की और राज्य की व्यवस्था होनी चाहिए। तब हमारे ऋषियों का ध्यान हमारे तत्कालीन समाज के तेजस्वी पुरुष और सृष्टि के पहले राजा बने महर्षि मनु की ओर गया।
ऋषियों ने सामूहिक रूप से महर्षि मनुष्य से यह प्रार्थना की कि वह संसार का पहला राजा बनने के उनके प्रस्ताव को स्वीकार करें।
महर्षि मनु मोक्ष की जीवन साधना में लगे हुए थे। उससे हटकर वह संसार की इस नई व्यवस्था में राजा के पद को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्हें यह भली प्रकार ज्ञात था कि राजा बनने का अर्थ होगा जीवन को अधोगामी करना , जीवन की साधना को ठहराव की गतिशून्यता में स्थापित करना। पर ऋषियों के अनुरोध को वह टाल नहीं सके। उन्हें इस बात में संसार का भला दिखाई दिया कि यदि वह राजा बनते हैं तो अनेक प्रजाजनों को सहज और स्वाभाविक जीवन जीने का अवसर प्राप्त होगा। उन्होंने इस बात को गहराई से समझा कि उनके राजा बनने का अर्थ अराजकता को समाप्त करना होगा। जिसे उन्होंने ईश्वरीय कार्य समझा।
हमारे ऐसे मनु सृष्टि के पहले राजा बने। उन्होंने मनुस्मृति के रूप में जिस ग्रंथ की रचना की वह संसार का पहला संविधान है। जिसे राजनीतिक व्यवस्था में काम कर रहे लोगों ने अपने लिए भी उतना ही कठोर बनाया, जितना जनसाधारण के लिए बनाया गया था। महर्षि मनु के द्वारा राजनीतिक व्यवस्था के माध्यम से अराजकता को दूर कर जनसाधारण के लिए सहज और सरल स्थिति परिस्थिति निर्मित करने के उनके संकल्प को कारगर बनाने में तत्कालीन समाज के लोगों ने भी अपना सहयोग देने का वचन दिया। राजा के साथ-साथ प्रजाजनों ने भी यह संकल्प लिया कि हममें से जो कोई भी पाप कर्म करेगा वह दंड का अधिकारी होगा। इसके साथ- साथ राज्यकोष के लिए प्रत्येक व्यक्ति ने अपने पशुधन और स्वर्ण का 50 वाँ तथा अन्न की उपज का दसवां भाग कर के रूप में राजा को देने का भी वचन दिया। उसके पश्चात महातेजस्वी मनु ने पापाचरण का दमन कर सब नागरिकों को अपने-अपने धर्म-कर्म में प्रतिष्ठित करने का महान कार्य संपादित किया। इस प्रकार महर्षि मनु अर्थात सृष्टि के पहले राजा और तत्कालीन समाज के लोगों के सामूहिक प्रयास और प्रतिज्ञा के फलस्वरूप अराजक लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने में सफलता प्राप्त हुई।
इस प्रकार की व्यवस्था से आज के लोगों को भी शिक्षा लेने की आवश्यकता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश में शांति तभी स्थापित हो सकती है जब राजा न्यायप्रिय होकर सही दिशा में सोचता हो और जनता जनार्दन सामूहिक वचन के माध्यम से उसके साथ काम करने के लिए तैयार हो। यदि राजा न्याय प्रिय होकर भी जनता जनार्दन के सामूहिक वचन को प्राप्त करने में असफल रहता है या जनता ऐसा वचन देने में आनाकानी करती है तो समाज में कभी भी शांति स्थापित नहीं हो सकती।
महर्षि मनु सृष्टि की ज्ञात जलप्लावन की घटना के पश्चात राष्ट्र निर्माण के इस महान कार्य में लगे हुए थे। इस प्रकार वह वर्तमान संसार के आदि पूर्वज हैं। यही कारण है कि उन्हें ‘बाबा आदम’ के नाम से जहां इस्लाम के लोग पुकारते हैं, वहीं ‘नोहा’ के नाम से भी एक वर्ग ( यहूदी ) उनको जानता है। मनु को जिस प्रकार हमारे तत्कालीन समाज के ऋषिमंडल ने चुनाव करके अपना राजा बनाया था, उससे यह भी स्पष्ट होता है कि भारतवर्ष ही लोकतंत्र की जन्म स्थली है। जहां पर सृष्टि के पहले राजा को ही चुनाव के माध्यम से राजा बनाया गया था। पश्चिमी जगत और अरब के लोग जहां आज तक भी यह कहते चले आ रहे हैं कि प्राचीन काल में जब कभी राजा के पद का निर्माण हुआ होगा तो किसी मजबूत और शक्तिशाली व्यक्ति ने अन्य कबीलों पर अपनी शक्ति के बल पर अधिकार स्थापित किया होगा। उन्हें जबरन अपने अधिकार में लेकर राजा पद को प्राप्त कर लिया होगा। मनु के राजा पद को प्राप्त करने की इस प्रक्रिया को जान व समझकर हम इस भ्रम से भी बाहर निकल जाते हैं कि भारत ने राजा पद का निर्माण समाज के लोगों पर किसी व्यक्ति को जबरन शासन करने और उनकी स्वतंत्रता का हनन करने के लिए नहीं किया था । इसके विपरीत भारत ने जनसाधारण के अधिकारों को संकट में डालने वाले लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राजा पद का निर्माण किया था। इस प्रकार मनु को सृष्टि के आदि लोकतांत्रिक राजकीय व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जाने चाहिए।
मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने मनु महाराज के विषय में कहा है कि मनु “वेदों के ज्ञान और अनुष्ठान विधि के पूर्ण ज्ञाता एवं परंपरागत लोक अनुश्रुति में प्रख्यात व्यक्ति विशेष थे।”
महर्षि मनु ने संसार की पहली राजधानी अवध अर्थात अयोध्या को बनाया था। भारत के इतिहास में जिस सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजवंशीय परंपरा का उल्लेख बार-बार होता है, उसके मूल स्रोत मनु महाराज ही हैं। उनके द्वारा लिखा गया मनुस्मृति नामक ग्रंथ वास्तव में मानव धर्म शास्त्र ही है, जैसी कि इस धर्मशास्त्र के विषय में अनेक विद्वानों की सम्मति भी है।
वैदिक धर्म में मनुस्मृति का विशेष और सम्मानजनक स्थान है । भारतीय साहित्य में मनुस्मृति का मनु संहिता , मानव धर्मशास्त्र, मानव शास्त्र जैसे कई नामों से भी उल्लेख किया गया है । यह प्राचीन काल से ही हमारे भारतीय साहित्य में सबसे अधिक चर्चित धर्मशास्त्र के रूप में मान्यता प्राप्त ग्रंथ रहा है । वास्तव में जितनी भी स्मृतियां प्राचीन काल में भारतवर्ष में लिखी गईं उन सब में ऊंचा स्थान मनुस्मृति का है । यही कारण है कि वैदिक विद्वानों ने अपने द्वारा लिखित अनेकों ग्रंथों में मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित मानव धर्म का स्थान – स्थान पर उल्लेख कर इस ग्रंथ की प्रमाणिकता को स्वीकार किया है। मनुस्मृति को शंकराचार्य और शबर स्वामी जैसे अनेक दार्शनिक विद्वानों ने भी प्रमाण के रूप में अपने ग्रंथों में उद्धृत किया है । आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद ने भी महर्षि मनु को अपने अमर ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ व अन्य ग्रंथों में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
मनुस्मृति वास्तव में एक विधानात्मक शास्त्र है। इसमें मानव समाज के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था को तो स्पष्ट किया ही गया है , साथ ही व्यक्ति और समाज के लिए हितकारी धर्म , नैतिक कर्तव्य व मर्यादाओं और उन आचरणों का उल्लेख भी किया गया है ,जिससे सामाजिक ,राष्ट्रीय और वैश्विक व्यवस्था को मर्यादित व संतुलित रखने और बनाने में सहायता मिल सकती है।
‘मनुस्मृति’ के बारे में यह सत्य है कि आज के जितने भर भी कानून संसार के देशों में चल रहे हैं , उन सबको इसी ग्रंथ से प्रेरणा मिलती है । चाहे आज के कानूनों को लोगों ने कहीं से भी ले लिया हो, परंतु मूल सबका इसी मनुस्मृति से निकला हुआ दिखाई पड़ता है। इसके उपरांत भी कानून की स्थिति अपने आप में इतनी उत्कृष्ट नहीं है , जितनी मनु के द्वारा प्रतिपादित किए गए विधान की है । हमारा मानना है कि वर्तमान कानून अपने आप में नकारात्मक प्रक्रिया का नाम है , जबकि विधान से भरपूर मनुस्मृति की व्यवस्था विधेयात्मक अर्थात सृजनात्मकता से भरी हुई है।
भारतवर्ष में वैदिक विद्वानों की मान्यता है कि यह स्मृति
( हमारे वैदिक ऋषियों के द्वारा 14 मनु माने गए हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं :- 1.स्वायम्भुव, 2.स्वरोचिष, 3.औत्तमी, 4.तामस मनु, 5.रैवत, 6.चाक्षुष, 7.वैवस्वत, 8.सावर्णि, 9.दक्ष सावर्णि, 10.ब्रह्म सावर्णि, 11.धर्म सावर्णि, 12.रुद्र सावर्णि, 13.रौच्य या देव सावर्णि और 14.भौत या इन्द्र सावर्णि)
स्वायंभुव मनु के द्वारा रचित है , न कि स्वरोचिष या वैवस्वत मनु
(अब सातवें मन्वंतर के मनु वैवस्वत हैं) के द्वारा रची गई है । मनुस्मृति से हमें यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूल शास्त्र का आश्रय लेकर भृगु ऋषि ने भार्गवीया मनुस्मृति की रचना की थी ।
भारत के कई ऐसे धर्मशास्त्र या धर्म ग्रंथ हैं , जिनकी मान्यता आज भी विदेशों में है । उनमें से एक मनुस्मृति भी है । जिसको आधार बनाकर न केवल भारत वर्ष में अपितु भारतवर्ष के बाहर विदेशों में भी न्याय निर्णय होते रहे हैं । इसका अभिप्राय है कि मनुस्मृति में प्रतिपादित न्यायिक सिद्धांतों को लोगों ने आदर्श के रूप में लिया और यह अनुभव किया कि उनके आधार पर हम न्याय निर्णय करने में सक्षम और सफल हो सकते हैं।
आर्यावर्तकालीन भारत वर्ष में मनुस्मृति के आधार पर जब शासन कार्य होता था और न्याय निर्णय दिए जाते थे तो उस समय निसंदेह यह धर्मशास्त्र हमारे लिए संविधान का कार्य करता था । आज जब आर्यावर्त की सीमाएं सिमटकर बहुत छोटी हो गई हैं , तब विदेशों में जहां – जहां भी मनुस्मृति के आधार पर शासन चलता हुआ दिखाई देता है , या शासन पर मनुस्मृति की छाप दिखाई देती है तो समझना चाहिए कि यह वही देश हैं जो कभी आर्यावर्त्त के अंग हुआ करते थे।
मनुस्मृति में चारों वर्णों के धर्मों का सविस्तार उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त चारों आश्रमों , सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के प्रकरण सहित राज्य की व्यवस्था , राजा के कर्तव्य , विभिन्न प्रकार के विवादों में न्याय निर्णय करने के विधान , सेना का प्रबंध आदि उन सभी विषयों पर प्रकाश डाला गया है जो कि मानवमात्र के जीवन में प्रतिदिन घटित होते हुए देखे जाते हैं या जिनका मानव जीवन से सीधा संबंध है । इस प्रकार मनुस्मृति हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करने वाला ग्रंथ है । इस ग्रंथ के माध्यम से राजकीय व्यवस्था तो विकसित और मर्यादित होती ही है , साथ ही सामाजिक व्यवस्था भी सुव्यवस्थित रहकर मानव जीवन और अन्य प्राणियों के जीवन को भी सुरक्षा और संरक्षा प्रदान करती है।
महर्षि मनु की मनुस्मृति में सृष्टि की उत्पत्ति, मन्वंतर, युग और काल विभाजन का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास – चार आश्रम, देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण – 3 ऋण, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – चार पुरुषार्थ, ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि जाय – पंच यज्ञ, एवं 16 संस्कारों की योजना पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
प्राचीन काल में भारतीय समाज व्यवस्था का सुंदर चित्रण भी इस ग्रंथ में मिलता है। इसी प्रकार भारतीय राजधर्म और दंड नीति का बहुत ही सुंदर विवेचन महर्षि मनु ने अपने इस ग्रंथ में किया है। स्त्री पुरुष के कर्तव्यों और अधिकारों का निरूपण करते हुए सत, रज, तम आदि गुणों की मीमांसा के साथ-साथ त्रिविध कर्म, जीव गति मोक्ष साधन आदि का विशद विवेचन भी किया गया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत