गांधीजी का कहना था कि-
”अगर पाकिस्तान बनेगा तो मेरी लाश पर बनेगा” परंतु यह उनके जीते जी ही बन गया। हां! ये अलग बात है कि वह उनकी लाश पर न बनकर देश के असंख्य लोगों की लाशों पर बना। क्या ही अच्छा होता कि यदि वह केवल उनकी ही लाश पर बनता तो कम से कम जो अनगिनत निरपराध लोगों का रक्त बहाया गया, वह तो कम से कम बच जाता, और उनकी अनुपस्थिति में हमारे सरदार पटेल जैसे निर्भीक योद्घा जो निर्णय लेते उसका परिणाम अवश्यमेव सुखद ही होता।
परंतु दुर्भाग्य कि इसके लिए उन्होंने लाशों के ढेर को इतना विशाल बनवा दिया कि जो स्वतंत्रता मिली थी वह अहिंसा के बल पर मिली स्वतंत्रता नहीं रह पायी। लाशों का ढेर लाखों लोगों का था और इसी ढेर पर बैठकर सत्ता के सिंहासन को सजाकर उससे गांधीजी ने अपने प्रिय शिष्य पंडित नेहरू को कश्मीर की वादियों में भेज दिया। दिल्ली को जलती, लुटती, पिटती और कटती जनता को छोडक़र नेहरू जी सत्ताधिकार के साथ कश्मीर में जाकर अपने प्रिय मित्र ‘शेख अब्दुल्ला’ के साथ जाम पर जाम चढ़ाने लगे। इस सत्ता (स्वतंत्रता) के सिंहासन को इन दोनों ने यूएनओ में जाकर गिरवी रख दिया और राष्ट्र को इस छल का पता भी नहीं चल पाया।
गांधीवाद की वास्तविकता
इस प्रकार हम देखते हैं कि गांधीवाद, नाम की कोई विचारधारा नहीं है। उसमें जो मौलिकत: है उसे ग्रहण नही किया जा सकता और जो ग्रहणीय है उसे मौलिक नहीं कहा जा सकता। इसलिए इधर-उधर की बातों को जोड़-तोडक़र काल्पनिक गांधीवाद की कल्पना करना निरी अज्ञानता है और राष्ट्रहित में अनर्थकारी तथा एक भयंकर षडय़ंत्र है।
किसी भी विचारधारा से राष्ट्र, समाज और संसार का भला अनिवार्य रूप से होना चाहिए। इनकी भलाई उस विचारधारा में जितने अंश में छिपी होगी, उतने ही अनुपात में वह विचारधारा देर तक राष्ट्र, समाज और संसार का भला करने में सक्षम, समर्थ और सफल होगी। बाह्य स्वरूप में गांधीजी की विचारधारा राष्ट्र, समाज और संसार के लिए उपयोगी जान पड़ती है, किंतु समग्रता से उसकी समीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि-राष्ट्रहित का तंतु उसमें तनिक भी विद्यमान नहीं है। इसलिए संपूर्ण समाज और संसार के लिए वह उपयोगी होगी, इसमें भी संदेह है। क्योंकि समाज का राष्ट्र का अंग है और संसार राष्ट्र का विशाल स्वरूप है।
हम गांधीजी की इतिहास में उतनी ही महत्ता के पक्षधर हैं कि जितनी महत्ता के वह पात्र हैं। उससे अधिक सम्मान की मान्यता के वह पात्र नहीं हैं। अधिक सम्मान की मान्यता प्रदान करना स्वयं उनके लिए और राष्ट्र के लिए दोनों के ही हित में नही हैं। आज हम स्वतंत्र हैं। राष्ट्र के पास अपनी महान सांस्कृतिक परम्परा का गौरवमयी इतिहास है। हम राष्ट्र, समाज और संसार की भलाई के लिए इस सांस्कृतिक परम्परा का सदुपयोग कर सकते हैं। इस दिशा में उद्योग और अध्यवसाय करने की आवश्यकता है। इसलिए किन्हीं काल्पनिक वादों में फंसाकर राष्ट्र की श्रम शक्ति और समय को व्यर्थ न गंवाया जाए। गांधीजी का स्वयं अपने विषय में यह वचन था-‘मैं महात्मा नहीं हूं, तथा-
-गांधीवाद नाम की कोई वस्तु नहीं है।
-कांग्रेस को अब समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि उसने स्वतंत्रता प्राप्ति के अपने ध्येय को पूरा कर लिया है।’
गांधीजी के इन वचनों में सच्चाई है और हमें इन्हें स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि गांधीजी अपने विषय में गांधीवाद की काल्पनिकता के विषय में और कांग्रेसी संगठन के भविष्य के विषय में हमसे अधिक उत्तम ज्ञान रखते थे। किंतु कुछ लोगों द्वारा अपने निहित स्वार्थों के कारण गांधीजी को महात्मा से भी आगे ईश्वर का अवतार बनाने का प्रयास किया गया है।
गांधीवाद की कल्पना को वेदवाक्य में परिवर्तित करने और कांग्रेस को सत्ता का एकमात्र उत्तराधिकारी सिद्घ करने का विफल प्रयास किया गया है। ये प्रयास ही सारी समस्याओं की जड़ है। इन्हीं प्रयासों के कारण राष्ट्र को कितनी ही विसंगतियों से समस्याओं से तथा काल्पनिक वादों से जूझना पड़ रहा है। आज इन्हीं चाटुकारों को नंगा करने की आवश्यकता है।
देश के बारे में यह सत्य है कि हमें अपनी आजादी किसी व्यक्ति या किसी एक परिवार के बलिदानों के कारण नहीं मिली। आजादी को जलाने में लाखों और असंख्य लोगों ने अपना बलिदान दिया है, उनके बलिदान को नमन करते हुए हम गांधीजी की उपयोगिता को स्वीकार करें-यह समय का तकाजा है। यदि देश को गांधी कीर्तन के झूठे गान में फंसाकर रखने का प्रयास किया तो इससे हम सब का अहित होना निश्चित है। गांधीजी का सम्मान होना चाहिए-पर सारे सम्मान के पात्र गांधीजी नहीं हैं, गांधीजी को सम्मान देते समय हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए। (समाप्त)
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
मुख्य संपादक, उगता भारत