सोमनाथ के बहाने जयप्रकाश , इंदिरा गांधी और जनता की चर्चा* *जेल के साथी सोमनाथ पांडेय को विनम्र श्रद्धांजलि*

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आचार्य श्री विष्णुगुप्त

जेल में दोस्ती। यह वाक्य थोड़ा आश्चर्य करने वाला है। कई प्रकार के प्रश्न दिमाग में उठते हैं। आज के समय में उक्त वाक्य पर चिंतन होगा कि जेल तो अपराधी जाते हैं, जेल तो भ्रष्ट जाते हैं, जैसे मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और मनीष सिसौदिया, सत्येन्द्र जैन, पी चिदम्बरम। तो क्या विष्णुगुप्त और सोमनाथ पांडेय भी इसी तरह की श्रेणी में थे? पर कभी जेल अच्छे लोग भी जाते हैं, तपस्वी भी जाते थे, संघर्षी भी जाते थे, मानवतावादी भी जाते थे, किसान भी जाते थे और मजदूर आदि की श्रेणी के लोग जाते थे, ऐसी श्रेणी के लोग खुद जेल जाते थे, पुलिस और प्रशासन को जेल भेजने के लिए बाध्य करते थे। जेल जाने का अर्थ और मांग मानवतावाद की स्थापना ही होता था, मानवतावाद में सभी मानवीय और प्राकृतिक अधिकार शामिल हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जेल जाने-जेल को भरने का अभियान वास्तव में वंचित लोगों के कल्याण और लूटेरी मानसिकता, अराजक प्रशासन तथा बहरी सरकार के खिलाफ जनजागरूकता उत्पन्न करने के साथ ही साथ इन सभी नियामकों की करतूतों का पर्दाफाश करना होता था।
वह दौर अराजक और तानाशाही प्रबृति की थी। देश अराजकता और तानाशाही का दंश झेल चुका था। अराजकता, व्यक्तिवाद और तानाशाही के खिलाफ बंवडर भी उठा था, क्रांति भी हुई थी। लेकिन बंवडर और क्रांति को आगे बढ़ाने की जिसके उपर जिम्मेदारी थी, जिसके उपर विश्वास था उसी ने गला घोटा था। जयप्रकाश नारायण ने क्रंाति का कांग्रेसीकरण कर दिया। नेहरू और इंदिरा गांधी के शासन का सुख भोगने वाले चन्द्रशेखर को जनता पार्टी का अध्यक्ष बना दिया गया, जगजीवन राम जैसे तमाम कांग्रेसियों को जनता पार्टी में शामिल करा लिया गया। मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बना दिया गया। मोरारजी देसाई भी कांग्रेसी थे। दुष्परिणाम यह हुआ कि क्रंाति को जयप्रकाश नारायण ने भ्रांति में बदल दिया, क्रांति का कांग्रेसीकरण भी कर दिया गया। इस तथ्य और कारक को समझने के लिए आपको जेपी इन जेल नामक पुस्तक पढ़नी चाहिए। जयप्रकाश नारायण चंडीगढ जेल में किस प्रकार से रोते थे और इंदिरा गांधी से समझौता करना चाहते थे, क्रांति को अपनी सबसे बडी भूल मानते थे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जनता पार्टी का पतन हुआ और जो तानाशाही, अराजकता व व्यक्तिवाद दफन हो चुका था वह सब भारत की सत्ता पर फिर से स्थापित हो चुका था। यानी की इंदिरा गांधी की भारत की सत्ता पर फिर से स्थापना हो चुकी थी। अगर जेपी आंदोलन का कांग्रेसीकरण नहीं होता और आंदोलन को कोख से जन्मा हुआ कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता तो फिर देश की राजनीति कुछ अलग ही होती।
मेरे जैसे देश लाखों युवकों की मनमस्तिक में बिहार क्रांति जिसे जयप्रकाश नारायण आंदोलन का नाम दे दिया गया रचा-बसा था। इसी राजनीतिक प्रशिक्षण से लोग फिर से क्रांति के लिए उठे, लडे भी और मरे भी। इंदिरा गांधी 1977 की हार और हस्र से भी कुछ सीखी नहीं थी, वही व्यक्तिवाद था, वही अहंकार था, वही तानाशाही थी। प्रशासन और सरकार भ्रष्ट थी। हमलोग फिर से इंदिरा गांधी के खिलाफ अभियानरत थे और जनता की तकलीफों को लेकर आंदोलित थे।
बात 1983 की है। इंदिरा गांधी की केन्द्रीय सरकार और बिहार की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ जनता पार्टी ने आंदोलन की शुरूआत की थी। मांग थी सुशासन की, भ्रष्ट और अपराध को दमन करने की। लेकिन आंदोलन से भी इंदिरा गांधी की जनविरोधी नीतियां दमन नहीं हुई। फिर जनता पार्टी ने जेल भरो का अभियान चलाया था।
जनता पार्टी के नेतृत्व में हमलोग जेल गये थे। हमारे साथ जेल में सोमनाथ पांडेय थे, पूर्व विधायक प्रोफेसर विनोद नारायण दीक्षित, बिहार के पूर्व मंत्री स्वर्गीय गिरवर पांडेय, विख्यात समाजवादी नेता कामेश्वर प्रसाद, तारकेश्वर आजाद, बैजनाथ राम गोपी, नंदगोपाल यादव, रामकुमार सिंह, दीपक कुमार, छोटू आदि करीब दो सौ लोगों ने अपनी गिरफ्तारी दी थी और डालटनगंज जेल को भर दिया था। जेल में भी सत्याग्रह जारी रहा। जेल के कैदियों की सुविधाओं के लिए हमलोगों ने जेल प्रशासन के खिलाफ जोरदार आंदोलन शुरू कर दिया था। इस कारण जेल प्रशासन परेशान था और हमलोगों से छूटकारा भी चाहता था।
हर समय-हर पल हमलोग क्रांति के प्रतीक होते थे। फिर जेल में चुप कैसे रहते? जेल में आंदोलन के दौरान ही सिपाहियों से मेरी झड़प हो गयी। जहां अन्य सत्याग्रही चुपचाप थे और मेरी ही गलती मान रहे थे वहीं इसी प्रकरण में सोमनाथ पांडये का प्रवेश होता है। सोमनाथ पांडेय ने मेरा साथ दिया और हमलोग कुछ कैदियों को लेकर नारेबाजी शुरू कर दी थी। जबकि सत्याग्रही इस प्रकरण से अलग हो गये थे। शाम-रात के अंधेरे में मैं और सोमनाथ पांडेय ने मिल कर जेल के अंदर ही एक सिपाही को पिट दिया था। पगली घंटी बजी। सत्याग्रही पहले ही जेल कमरे थे लेकिन अन्य कैदी पगली घंटी के शिकार हो गये। मेरा कद छोटा था और मेरी उम्र भी कम थी, देखने में मासूम लगता था, इसलिए मेरे उपर किसी को शक ही नहीं हुआ।
जेल के अंदर ही मेरी और सोमनाथ पांडेय की दोस्ती शोले फिल्म की जय और वीरू की जोड़ी की तरह विख्यात हो चुकी थी। हम सब जेल से मुक्त होने के बाद जनक्रांति की आग को धधकाते रहने की प्रेरणा और संकल्प लिया था।
सोमनाथ पांडेय पलामू जिले के सेमरा गांव के रहने वाले थे। सेमरा और चैनपुर के अन्य क्षेत्रों में माइंस मजदूरों का शोषण पीडादायक था। सोमनाथ पांडेय माइंस मजदूरों की लड़ाई लडते थे। उस समय दो प्रकार के श्रमिक नेता हुआ करते थे। एक मजदूरों और माइंस प्रबंधकों का तालमेल बैठा कर चलते थे। इसी श्रेणी के नेता सतपाल वर्मा थे। सतपाल वर्मा से सोमनाथ पांडेय की बनती नहीं थी और तनातनी भी रहती थी। लेकिन सोमनाथ पांडेय हमेशा श्रमिक मजदूरों की लड़ाई ईमानदारी से लड़ते रहे थे।
एक पानी से जुड़ी हुई घटना मुझे आज भी बदहाल और फटेहाल भारत की याद दिलाती है। पलामू तो पानी की समस्या, भूख की समस्या के लिए कुख्यात रहा ही है। चैनपुर प्रखंड विशेष तौर पर समस्याग्रस्त था। सेमरा में एक मात्र पक्का कुंआ था, उस कुंए से पानी निकालने की महिलाओं की भीड लगी रहती थी। पूरे गांव की प्यास यही कुंआ बुझाती थी। उस कुंए पर मेरी एक सभा करायी थी सोमनाथ ने। जब सोमनाथ मेरी प्रशंसा और परिचय कराना शुरू किया था तब करीब बीस मिनट तक धारा प्रवाह बोलते रहे और कहते रहे थे कि छोटे कद के व्यक्ति समझ कर, इन्हें कम मत समझना, मेरा यह दोस्त साक्षात क्रांति का प्रतीक है। फिर हमलोंगों ने सेमरा ही नहीं बल्कि चैनपुर के कई गांवों में पानी को लेकर लड़ाई लड़ी थी और सरकारी-गैर सरकारी सहायता भी दिलायी थी।
हर चीज का समय होता है। उम्र और असफलताएं भी क्रांति, परिवर्तन के सकल्प को तोड़ देती हैं। ऐसा ही कुछ सोमनाथ पांडेय के साथ हुआ। आर्थिक रूप से परिवर्तनकारी-क्रांतिकारी जर्जर तो होते ही हैं, इसके अलावा समाज और परिवार का अपमान भी झेलते हैं, व लक्ष्य से भटकाता है। सोमनाथ भी धीरे-धीरे अपना लक्ष्य खोते चले गये। इसी दौरान हताशा और निराशा में उनका सहचर शराब बन गयी। शराब के लत ऐसी पड़ी की वे सबकुछ भूल गये। मेरा साथ भी छूट गया था। मैं राजनीति से उदासीन होकर पत्रकारिता में प्रवेश कर दिया और पलामू छोड़ दिया।
जैसी जनता की कुसंस्कृति है वैसी धारणा भी बन जाती है। भारत में परिवर्तनकारी और क्रांतिकारी को पागल कहा जाता है। पर पागल लोग ही क्रांतिकारी बनते हैं, देश को आजाद कराते हैं, मानवाधिकार को सुनिश्चित करते हैं। सरदार भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस आदि इसीलिए बलिदानी बने थे कि वे पागल थे, पागल नहीं होते तो फिर वे भी अन्य लोगों की तरह मनोरंजन कारी होते। इसी तरह सोमनाथ पांडेय जैसे लोग पागल ही तो होते हैं जो अपनी सुविधाओं की न चिंता करते हुए पूरे समाज और देश की चिंता करते हैं।
सोमनाथ पांडेय जैसों की मौत गुमनामी में ही होती है। सोमनाथ पांडेय की मौत गुमनामी भी में हुई। बच्चे भी उनके लिए निरर्थक थे। भूख और बीमारी का दूख सहते-सहते चल बसे। कहीं कोई हलचल तक नहीं हुई, मीडिया में कोई चर्चा तक नहीं हुई, समाजवाद के नाम पर कुकुरमुते की तरह फैले हुए नेताओ को सोमनाथ पांडेय का नाम और कर्म तक मालूम नहीं है।
सोमनाथ पांडेय जैसे जनपक्षीय और संघर्षपक्षीय नेता को जानना इसलिए जरूरी है कि संकट और उत्पीड़न के समय सोमनाथ पांडेय जैसे लोग ही काम आते हैं। अगर सोमनाथ पांडेय जैसे लोग आपके बीच न हो तो अत्याचारी-लूटरी नौकरशाही आपके सपनों को कब्र बना डालेगी, राजनीति आपको जर्जर बना देगी, अपराधी आपको लहूलुहान करते रहेंगे। सोमनाथ पांडेय को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

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आचार्य श्री विष्णुगुप्त
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