घातक है शिक्षा और व्यापार का घालमेल

विजय शर्मा 
सरकारी इंजीनियरिंग, मेडिकल और तकनीकी शिक्षण संस्थानों की कमी के चलते प्रदेश में निजी गैर मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थान कुकरमुत्तों की तरह उग आए हैं। ये युवाओं के साथ छल कर रहे  हैं और जाने-अनजाने शासन-प्रशासन उसका भागीदार है। ऐसे संस्थानों एवं इन्हें चलाने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने की जरूरत हैज्
प्रदेश में साक्षरता और स्कूली शिक्षा में सुधार के नाम  पर स्कूल तो खुल गए, लेकिन शिक्षा के स्तर में कोई खास अंतर नहीं आया। 2010 से अनिवार्य शिक्षा अधिनियम लागू होने से पाठशालाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन शिक्षकों की आज भी काफी कमी है। लोकसभा में पेश की गई गई संयुक्त जिला सूचना पद्धति की रिपोर्ट के अनुसार 1,05,630 स्कूल ऐसे हैं, जहां मात्र एक शिक्षक पूरी पाठशाला को संभाल रहा है। वहीं प्रदेश में धड़ाधड़ विद्यालय खोलने के बाद कइयों पर ताले लटकने शुरू हो गए हैं। प्रदेश में तकनीकी शिक्षा, उच्च शिक्षा, मेडिकल शिक्षा से लेकर इंजीनियरिंग तक की शिक्षा की हालत खराब है। प्राथमिक शिक्षा की हालत तो और भी ज्यादा चिंताजनक है। गुणवत्तायुक्त शिक्षा से लेकर ढांचागत सुविधाओं तक हर स्तर पर खामियां हैं। ढांचागत सुविधाओं को छोड़ भी दें, तो भी गुणवत्तायुक्त शिक्षा को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी स्कूलों में विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक नहीं हैं। यदि शिक्षक हैं भी, तो काबिल नहीं। ज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं नाममात्र की हैं। शिक्षा के स्तर का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार के तमाम दावों और प्रयासों के बावजूद देश भर में शिक्षकों के 10 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में जहां 100 बच्चों पर एक अध्यापक है। जब स्कूलों में अध्यापक ही नहीं हैं, तो पढ़ाई क्या होगी?
शिक्षकों के अलावा इन स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं का भी नितांत अभाव है। यह हालत तब है, जब पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है। प्राथमिक शिक्षा को बेहतर बनाने के इस कानून में कई अच्छे प्रावधान हैं, लेकिन ज्यादातर राज्यों ने इस कानून को सही ढंग से अपनाया ही नहीं है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मुताबिक स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए 2012 का समय तय किया गया था और शिक्षा की गुणवत्ता पूरी करने के लिए 2015 की समय सीमा तय थी। इसके बावजूद स्कूलों में न तो आवश्यकता के अनुसार शिक्षकों की नियुक्ति हो पाई और न ही बुनियादी सुविधाएं प्रदान की हैं। यही वजह है कि शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हो रहा है। 
हिमाचल प्रदेश की बात करें, तो यहां कुछ पिछड़े तथा जनजातीय क्षेत्रों को छोडक़र सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की उतनी कमी नहीं है, लेकिन ढांचागत सुविधाओं मसलन खेल के मैदान,  लैब तथा अध्यापन कक्षों की भारी कमी है। उच्च शिक्षा की हालत भी बदतर है। सरकारी इंजीनियरिंग, मेडिकल और तकनीकी शिक्षण संस्थानों की भारी कमी के चलते प्रदेश में निजी गैर मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थान कुकरमुत्तों की तरह उग आए हैं। ये प्रदेश के नौजवानों के साथ छल कर रहे हैं और जाने-अनजाने शासन-प्रशासन उसका भागीदार है। अभी चंद दिन पहले ही एक निजी शिक्षण संस्थान को उसकी चार शाखाओं को बंद करने का आदेश सरकार ने दिया। संस्थान के मालिक ने माना कि वह पिछले चार साल से बिना किसी अनुमति या मान्यता के प्रदेश में शिक्षा का व्यापार कर रहा था। ऐसे संस्थानों में उच्च शिक्षा लेने वाले नौजवानों के साथ छल नहीं तो क्या है? ऐसा ही मामला चार साल पहले मंडी में सामने आया था। ऐसे संस्थानों को बंद ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उन पर आपराधिक मुकदमा दर्ज करने के साथ ही इन संस्थानों के जाल में फंसे बच्चों से वसूली गई मोटी फीस वापस करवाने के साथ ही उन्हें उनके व्यर्थ हुए समय का मुआवजा भी वसूलना चाहिए।
यह शिक्षा के नाम पर ठगी करने वालों का गिरोह है, जो एक नाम के बंद होते ही दूसरे नाम पर शिक्षा का व्यापार शुरू कर देगा। अत: ऐसे संस्थानों एवं इन्हें चलाने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने की जरूरत है। शिक्षा की गुणवत्ता के लिए श्रेष्ठ, पर्याप्त शिक्षक और गुणवत्तायुक्त पाठ्यक्रम होने चाहिएं, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है। शिक्षकों की कमी तो हमेशा चर्चाओं का मुद्दा रहती है, लेकिन जो नियुक्त शिक्षक हैं, क्या समय-समय पर उनकी पढ़ाने की योग्यता को मापा गया या उन्हें और अधिक आधुनिक तरीके से पढ़ाने के लिए किसी प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया? सरकारी स्कूलों में ढांचागत सुविधाओं की कमी और अध्यापकों की नाकामी के चलते हालत यह है कि अभिभावक सस्ती शिक्षा के मोह के बावजूद अपने बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। प्राइवेट  स्कूलों में लूट का आलम यह कि वहां वर्दी से लेकर किताबें-कापियां तक भारी भरकम-मूल्यों पर बेची जाती हैं और अभिभावकों को स्कूल द्वारा निर्धारित सप्लायर से ही किताबें-कापियां और वर्दी खरीदनी पड़ती है। यह सारा खेल शिक्षा को व्यापार बना देने के कारण हो रहा है। शिक्षा गुणवत्ता की पहली शर्त स्कूलों में शिक्षकों की जरूरत मुताबिक भर्ती और उसमें भी किसी चोर दरवाजा न रहे। सरकार को बिना देरी किए शिक्षकों के पद भरने चाहिएं, लेकिन भाई-भतीजावाद के लिए कोई गुंजाइश न रहे। इसके बाद यहां बुनियादी अधोसंरचना को विकसित करने पर बल देना होगा।

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