बिखरे मोती-भाग 179
प्रभुता पाकै श्रेष्ठ हो,
फिर भी नहीं अभिमान।
ऐसा नर दुर्लभ मिलै,
जापै हरि मेहरबान ।। 1108 ।।
व्याख्या :-
भाव यह है कि प्राय: इस संसार में ऐसे लोग तो देखने को बहुत मिलते हैं, जो धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, जाति-कुल, विद्या, बुद्घि, आश्रम, शारीरिक सौष्ठव अथवा सौंदर्य विभिन्न प्रकार के बल, पराक्रम को प्राप्त होने पर अभिमान में चूर होते हैं, किंतु इस संसार में ऐसे लोग बिरले ही मिलते हैं जो श्रेष्ठता को पाने पर भी श्रेष्ठ होने का अभिमान नहीं करते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता के तेरहवें अध्याय के सातवें श्लोक में ऐसे लोगों को ‘अमानित्व’ अर्थात श्रेष्ठ होने पर भी मन में श्रेष्ठता का भाव न होना कहा है। सर्वदा ऐसे लोग परमात्मा की विभूतियों (विलक्षणताओं) से अलंकृत होते हैं, परमात्मा के प्रिय होते हैं, उसकी कृपा के पात्र होते हैं। अत: मनुष्य को चाहिए कि बड़प्पन प्राप्त होने पर भी विनयशील रहे।
धर्म से मिलती सदगति,
रज-तम का हो हृास।
सत्गुण बढ़ता ही रहै,
रहता प्रभु के पास ।। 1109।।
व्याख्या :-
धर्मनिष्ठ व्यक्ति को सद्गति प्राप्त होती है, जैसे किसी को रूप अथवा सौंदर्य मिलता है, तो किसी को बलिष्ठ शरीर मिलता है, किसी को प्रभु वाणी इतनी सुरीली देता है कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं, किसी को वक्तृत्व शैली इतनी कमाल की देता है कि हृदय के तारों को झंकृत कर देती है, लोग उसे वागीश (वाणी का देवता) कहने लगते हैं। किसी को चल अचल संपत्ति देकर धनवान करता है तो किसी को सरस्वती (विद्या) का खजाना देकर धनवान करता है, किसी को पद प्रतिष्ठा से संपन्न करता है, तो किसी को बच्चों जैसी अदभुत मस्ती देकर प्रसन्न रखता है। कोई स्वर्ग का अधिकारी बनता है। भाव यह है कि जो धर्म का पालन करते हैं, उसी से प्रारब्ध बनता है और प्रारब्ध के आधार पर मनुष्य विभिन्न प्रकार की विभूतियों (विलक्षणताओं) से अलंकृत होता है। इतना ही नहीं धर्मरत व्यक्ति के रजोगुण, तमोगुण क्षीण होने लगते हैं और सत्वगुण मुखरित होने लगते हैं, शनै: शनै: उनमें वृद्घि होने लगती है, ऐसा व्यक्ति आत्मज्ञानी होने लगता है, दिव्यता को प्राप्त होने लगता है। वह मनुष्यत्तव से देवत्व और देवत्व से भगवत्ता को प्राप्त होने लगता है अर्थात शरणागति को प्राप्त होने लगता है। इसलिए मनुष्य को जीवन पर्यन्त धर्मरत रहना चाहिए।
पुण्यों की खेती करै,
खुशबू भू-आकाश।
सबसे बड़ा धनवान है,
भूसुर है कोई खास ।। 1110।।
व्याख्या :-
कैसी विडंबना है कि इस संसार में अधिक से अधिक धन का संचय करके सबसे बड़ा धनवान बनने की होड़ मानव मात्र में लगी हुई है। धनार्जन में मनुष्य अर्थशुद्घि और भाव शुद्घि पर किंचितमात्र भी ध्यान नहीं देता है। उसे तो बस येनकेन प्रकारेण पैसा चाहिए-पैसा। ऐसे व्यक्ति को हमारे ऋषि, मुनियों अथवा मनीषियों ने सबसे बड़ा धनवान नहीं माना है, अपितु ऐसे व्यक्ति को सबसे बड़ा धनवान माना है जो जीवन पर्यन्त पुण्य की खेती करता है अर्थात जो पुण्य बोता चलता है, परोपकार करता है, दूसरों की पीड़ा से जिसका हृदय द्रवित होता है और उनका मददगार बनता है।
क्रमश: