वर्तमान विश्व का कोई भी आविष्कार ऐसा नहीं है जिसकी जानकारी हमारे प्राचीन ऋषि वैज्ञानिकों को ना रही हो। वास्तव में वेद ज्ञान-विज्ञान के धर्म ग्रंथ हैं। एक षड़यंत्र के अंतर्गत वेदों को सांप्रदायिक ग्रंथ बनाने का प्रयास किया गया जो आज भी जारी है। यही कारण रहा कि वैदिक मत और वैदिक शिक्षा के अनुरूप देश का सामाजिक और राजनीतिक स्वरूप जिस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात होना चाहिए था, वह नहीं किया गया।
जिन लोगों के लिए गणित और गणित के अंक या गणितीय सिद्धांत कल परसों की बातें हैं उनकी आंखें उस समय खुली की खुली रह जाती हैं जब पता चलता है कि हमारे वैदिक ऋषियों को गणितीय सिद्धांत या अंकों का ज्ञान सृष्टि प्रारंभ से रहा है। इसका प्रमाण केवल यही है कि सृष्टि प्रारंभ में आए वेदों में गणितीय सिद्धांत और अंकों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। बीज रूप में रखे गए सूत्रों को जिन्होंने आगे चलकर खोल-खोल कर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया और बड़े-बड़े आविष्कार कर दुनिया को चमत्कृत किया, उन ऋषियों के नाम पर तत्संबंधी वैदिक ऋचाएं हमें वेदों में आज तक प्राप्त होती हैं।
मेधातिथि भारत के प्राचीन वैदिक विश्व समाज के ऐसे ही ऋषि वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अनेक गणितीय सिद्धांतों का आविष्कार किया। उन्हें वैदिक गणितीय अंकों का प्रथम आविष्कारक भी कहा जाता है। इसी से यह पता चल जाता है कि उनका गणितीय सिद्धांतों पर कितना अधिकार था?
गणित पर अधिकार था , विशेष किया पुरुषार्थ।
निष्काम कर्म करते गए, त्याग दिए थे स्वार्थ।।
यहां हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि आजकल सोशल मीडिया पर या आर्य विद्वानों से इतर लिखी जाने वाली पुस्तकों में या विकीपीडिया और गूगल पर सर्च करने पर ऐसी भ्रान्ति पैदा होती है कि जैसे वेदों के मंत्रों के रचनाकार विभिन्न ऋषि रहे हैं और ये सारे के सारे वेद मंत्र अलग-अलग काल खंडों में हुए ऋषियों के मंत्रों का संकलन हैं। जबकि ऐसा नहीं है।
इस संबंध में महर्षि दयानन्द जैसे विद्वानों का स्पष्ट मत है कि “ऋषि यास्क वेदों के अति प्राचीन कोशकार और व्याख्याकार हैं। ऋषि यास्क ने स्पष्ट लिखा हैं आदिम ऋषि साक्षात्कृतधर्मा थे- निरुक्त 1 )19 अर्थात आदिम ऋषियों ने परमात्मा द्वारा उनके ह्रदयों में प्रकाशित किये गए मन्त्रों और उनके अर्थों का दर्शन, साक्षात्कार किया। इसके पश्चात आने वाले ऋषियों ने तप और स्वाध्याय द्वारा मन्त्रों के अर्थों का दर्शन किया। ऋषि की परिभाषा करते हुए यास्क लिखते हैं कि ऋषि का अर्थ होता हैं दृष्टा अर्थात देखने वाला, क्यूंकि स्वयंभू वेद तपस्या करते हुए इन ऋषियों पर प्रकट हुआ था, यह ऋषि का ऋषित्व हैं – निरुक्त 2/11 अर्थात वेद का ज्ञान नित्य है और सदा से विद्यमान है। उसे किसी ने बनाया नहीं अपितु ऋषियों ने तप और स्वाध्याय से उनके अर्थ को समझा है। इस प्रकार स्वामी दयानंद की वेद मन्त्र के दृष्टा रुपी मान्यता का मूल स्रोत्र यास्क ऋषि द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत है। इन तर्कों से यह सिद्ध होता हैं की ऋषि वेद मन्त्रों के कर्ता नहीं अपितु दृष्टा हैं।”
यजुर्वेद में मेधातिथि से संबंधित एक मंत्र में गणितीय अंकों के खेल को स्पष्ट किया गया है। संख्याओं का आश्रय लेकर सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर चढ़ना अर्थात 10 के गुणनफल वाली इस गिनती या पहाड़े के कारण यह मंत्र अपनी विलक्षणता को प्रकट करता है। इस मंत्र के इस प्रकार के गूढ़ रहस्य को अपनी व्याख्या के माध्यम से स्पष्ट कर संसार के समक्ष प्रस्तुत करने वाले मेधातिथि इस मंत्र के जनक न होकर इसके रहस्य को समझकर गणितीय अंकों के आविष्कारक बने। इस सूत्र या बीज रूप में रखे मंत्र के गूढ़ रहस्य को अपनी व्याख्या के माध्यम से उन्होंने अपने बौद्धिक बल से तैयार किए गए खेत में बिखेर दिया। उससे तैयार हुई फसल को हम मेधातिथि के मेधा बल से जन्मे गणितीय सिद्धांतों के रूप में जानते हैं।
उस मंत्र में कहा गया है कि “हे अग्निदेव ! यह ईंटें मेरी दुधारू गाय के समान हैं। एक और 10 शत ( 100), एक सहस्र (1000), एक आयुध (10000) ,एक नियुत ( 100000), एक प्रयुत (1000000 ) , एक अर्बुद ( 10000000), एक नियारबुद (100000000) एक समुद्र (1000000000), एक
मध्य ( 10000000000) , और अन्त ( 100000000000)
प्रारर्ध ( 1000000000000) हो जाएं। ये ईंटें इस संसार और अगले संसार में भी मेरी अपनी दुधारू गाय बन जाएं।”
मेधातिथि ने अपने अंत:करण में प्रस्फुटित हुए ज्ञान को समझकर ‘0’ को लिखने की आकृति दी। ऐसा नहीं था कि उनसे पहले के ऋषियों को इसका ज्ञान नहीं था, ज्ञान तो था, पर शून्य की आकृति मेधातिथि ने ही बना कर दी। यहां पर यह भी देखने की आवश्यकता है कि ‘ 0’ को जिस प्रकार गोलाकार में लिखा जाता है उससे पता चलता है कि यह अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण की गोलाकार से अधिक उपयुक्त कोई आकृति नहीं हो सकती।
यह ‘0’ हिंदी के अंक ‘ १’ में अपने आप अंतर्निहित है। हिंदी के अंक ‘ १’ की बनावट को देखें तो ऊपर से जिस प्रकार एक घुंडी सी बनती है वह ‘ 0’ की आकृति को अपने आप प्रकट कर देती है। आजकल इंग्लिश सहित लगभग सभी भाषाओं में जिस प्रकार अंकों को लिखने की परिपाटी देखी जाती है, वह सब हमारे संस्कृत विद्वानों की नकल ही दिखाई देती है।
इस प्रकार अंकों को वैज्ञानिकता का पुट देने और उन्हें संक्षेप में एक आकृति में लाने का कार्य मेधातिथि के द्वारा किया गया।
जब संसार के लोग हजार, दो हजार, लाख 10 लाख तक की ही गिनती जानते थे, तब हमारे मेधातिथि जैसे महा बुद्धिमान गणितज्ञ ने 10 की घात 12 तक की गिनती विश्व को लोगों को बताई। मेधातिथि के माध्यम से संपूर्ण संसार के गणितज्ञ गणित के क्षेत्र में भारत के ऋणी हैं।
गणित के क्षेत्र में हमें अर्किमिडीज को उसका जनक नहीं मानना चाहिए। इसके स्थान पर हमें मेधातिथि और आर्यभट्ट जैसे विद्वानों को ही गणितीय आविष्कारों और अनुसंधानों का श्रेय निसंदेह और निसंकोच देना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत