वैदिक सम्पत्ति : चतुर्थ खण्ड:- वेद मंत्रों के उपदेश

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गतांक से आगे…..

प्रायः लोग कहा करते हैं कि मनुष्यों को ज्ञान की जितनी आवश्यकता है, वह सभी ज्ञान वेदों में हितार्थी मैं – नहीं है, अर्थात् हमारे व्यवहार में आनेवाली ऐसी अनेक बातें हैं, जिनका वर्णन वेदों में नहीं है, इसलिए वेदों के साथ जबतक अन्य ग्रन्थों की शिक्षा भी सम्मिलित न की जाय, तबतक मनुष्यसमाज का काम नहीं निकल सकता। सुनने में ये बातें ठीक प्रतीत होती हैं, पर जरा सा विचार करते ही इस आरोप में कुछ भी दम दिखलाई नहीं पड़ता। क्योंकि यह आरोप वर्तमान समाज के कल्पित व्यवहारों को देखकर उत्पन्न किया गया है और वैदिक शिक्षा के वास्तविक स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया गया। वैदिक शिक्षा में कमी दिखलाई पड़ने के मुख्यतः ये तीन ही कारण हैं-

पहिला कारण यह है कि हमने जिन विषयों को, रीतिरिवाजों को और क्रियाकलापों को जितना महत्व दे रक्खा है, वे सबके सब वेद की दृष्टि में उतने ही महत्वपूर्ण नहीं हैं। उदाहरणार्थ हमने दत्तक आदि पुत्रों को गोद लेकर अपनी सम्पत्ति के स्वामी बनाने की रीति को धर्मशास्त्रों में लिख रक्खा है, पर वेद इस रीति को स्थान नहीं देते। इसका कारण यही है कि वैदिक धर्मानुसार कोई आदमी किसी सम्पत्ति का वंशपरम्परागत मालिक नहीं हो सकता। दूसरा कारण यह है कि शाखाप्रचारकों ने वेदों के मन्त्रों को मनमाने स्थानों में रख दिया है, जिससे पूरे प्रकरण की बात ही समझ में नहीं आती। परिणाम यह होता है कि अनेक विषयों में हमारा प्रवेश ही नहीं होता। इसी तरह तीसरा कारण वेदों के अनेक शब्दोंके अर्थो की हमारी अनभिज्ञता है। वेद में सैकड़ों शब्द ऐसे हैं, जिनका ठीक- ठीक अर्थ नहीं ज्ञात होता। इससे भी अनेक विषयों का ज्ञान यथार्थ रूप से हम तक नहीं पहुँचता । इसलिए वेद में यदि किसी मनुष्यपयोगी आवश्यक विषय का प्रत्यक्ष वर्णन न दिखलाई पड़े, तो उसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि वेद में उसका बीज ही नहीं है ।

वेद के समस्त शब्दों के अर्थों का विस्फोटन करके और समस्त मन्त्रों को विषयवार एक जगह एकत्रित करके कुछ दिन मन लगाकर स्वाध्याय करने से वेदों में मनुष्योपयोगी समस्त आवश्यक ज्ञान बीजरूप से निकल सकता है, इसमें सन्देह नहीं । परन्तु हर समय के योग्य, हर मनुष्य या समाज के योग्य और हर स्थान में व्यवहार करने योग्य बातें वेदों से नहीं निकल सकतीं। इसका कारण यही है कि वेदों में प्रावेशिक ज्ञान की ही शिक्षा है, कल्पित ज्ञान की नहीं। यदि हम अपने कल्पित रीतिरिवाजों को हटा दें और शब्दार्थों को खोलकर और मन्त्रों को विषयवार करके पढ़ें, तो उनसे इतनी शिक्षा मिल सकती है कि जिसके द्वारा मनुष्य की बुद्धि इस योग्य हो जाय कि वह अपना समस्त कार्य कर ले। परन्तु जिन विषयों को वेदों ने अनावश्यक समझा है, वे बातें वेदों से नहीं निकल सकती, चाहे भले हमने उनको अपने समाज में— कर्मधर्म में सम्मिलित ही क्यों न कर लिया हो। नमूने के लिए दत्तक पुत्र की भाँति यज्ञोपवीत को भी लीजिये।
संहिताओं में यज्ञोपवीत के लिए सूत,रेशम, उन आदि का वर्णन नहीं आता। वहां मेखला का ही जिक्र है। मेखला का अर्थ घेरा है। किसी पदार्थ का गले या कमर में एक घेरा माला पहना देना। अर्थात् चिह्न मात्र कर देना है। ब्राह्मणग्रन्थों ने भी इसे बहुत नहीं बढ़ाया। परन्तु सूत्रों ने बढ़ाया है। उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य के लिए सूत्र में भेद कर दिया है। किन्तु यज्ञोपवीत कितना लम्बा हो, यह उन्होंने भी नहीं कहा। इसे आधुनिक ग्रन्थों ने ही बढ़ाया है। यद्यपि इस प्रकार कई बार विधियां बढ़ाई गई है, तथापि यज्ञोपवीत में कितनी गाँठे हों और उसे किसके हाथ से नापना चाहिये आदि बातें फिर भी रह गई हैं। इसी तरह कान में चढ़ाना या शिर में लपेटना आदि बातें फिर रह गई हैं, जिनको बहुत ही आधुनिक साहित्य ने पूरा किया है। इसका क्या मतलब है?
इसका मतलब यही है कि हम अपने रिवाजों को जैसे जैसे बढ़ाते जाते हैं, वैसे ही वैसे उस कल्पित रिवाज को पुष्ट करने के लिए विधिवाक्य भी लिखते जाते हैं। मानो आगे-आगे हम और पीछे-पीछे शास्त्र दौड़ रहे है। हम शास्त्र के अनुसार नहीं चल रहे, प्रत्युत शास्त्र हमारी कल्पना के अनुसार चलते हैं ।
क्रमशः

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