महामानव कान्हा रावत जिन्होंने क्रूर औरंगजेब से सनातन धर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया था.
धर्म बलिदानी कान्हा रावत का जन्म दिल्ली से 60 मील बहीन गाँव में चौधरी बीरबल के घर माता लाल देवी की कोख से संवत 1697 (सन 1640) में हुआ. वह समय भारत में मुग़ल साम्राज्य के वैभव का था. हर तरफ मुल्ले मौलवियों की तूती बोलती थी.
औरंगजेब ने 9अप्रेल 1669 को फरमान जारी किया- “काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं”. फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया. कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी. सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे . और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए साही घुडसवार.
वीर गोकला (वास्तविक नाम गौकुल सिंह} ने अथक साहस का परिचय देकर पंचों व मुखियों को रावत पाल के बडे गांव बहीन में एक विशाल पंचायत बुलाई. इस में औरंगजेब से निपटने की योजना तैयार की गई. इस पंचायत में बलबीर सिंह ने गोकला को आश्वासन दिया कि वे अपनी आन बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देंगे, लेकिन विदेशी आक्रांताओं के समक्ष कभी नहीं झुकेंगे. युद्ध करने की समय सीमा तय हो गई.
खबर औरंगजेब तक पंहुच गई. उसने अपना सेनापति शेरखान को बहीन भेजा. माघ माह शीत लहर में गांव के चुनिंदा लोग वर्णित पंचायत में लिए गए फैसले की तैयारी कर रहे थे, कि अचानक गांव के चौकीदार चंदू बारिया ने औरंगजेब के सेनापति दूत शेरखान के आने की सूचना दी. बंगले पर विराजमान वृद्धों ने भारतीय संस्कृति की रीतिरिवाज के अनुसार शेरखान को आदर सहित बंगले पर बुलवाया तथा उससे आने का कारण पूछा. शेरखान शाह मिजाज से वृद्धों का अपमान करता हुआ बोला – हम बादशाह औरंगजेब का फरमान लेकर आए है. यहां के लोग सीधे-सीधे ढंग से इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं, तो तुम्हारे मुखिया को नवाब की उपाधि से सम्मानित करेंगे. खास चेतावनी यह है कि यदि तुम लोगों ने गोकला जाट का साथ दिया तो अंजाम बुरा होगा।
इतनी बात सुनकर कान्हा रावत वहां से उठे और अपनी निजी बैठक में गया और भाला लेकर वापिस शेरखान पर टूट पडा. गांव के वृद्धों ने उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे. इधर शेरखान ने भी अपने साथियों को आदेश दिया कि वे इस छोकरे को शीघ्र काबू करके बंदी बनाएं. कान्हा रावत का उत्साह देखकर उसके युवा साथी भी लाठी, बल्लम आदि शस्त्र लेकर टूट पडे. युवाओं ने उन सैनिको को वहां से भगा कर ही दम लिया.
रावतों के पांच गावों (बहीन, नागल जाट, अल्घोप, पहाड़ी, और मानपुर) की एक महापंचायत हुई थी जिसमे कान्हा रावत के अध्यक्षता में निर्णय लिए गए थे
हम अपना सनातन धर्म नहीं बदलेंगे.
मुसलमानों के साथ खाना नहीं खायेंगे.
कृषि कर अदा नहीं करेंगे.
रावत पंचायत के निर्णयों की खबर जब औरंगजेब को लगी तो वह क्रोध से आग बबूला हो उठा. उसने अब्दुल नवी सेनापति के अधीन एक बहुत बड़ी सेना बहीन पर आक्रमण के लिए भेजी. सन 1684 में बहिन गाँव को चारों तरफ से घेर लिया. रावतों और मुग़ल सेना में युद्ध छिड़ गया. लेकिन मुगलों की बहुसंख्यक, हथियारों से सुसज्जित सेना के आगे शास्त्र-विहीन आखिर कब तक मुकाबला करते. अनुमानतः 2000 से अधिक वीरगति को प्राप्त हुए थे. कान्हा रावत को गिरफ्तार कर लिया गया.
सात फ़ुट लम्बे तगड़े बलशाली युवा कान्हा रावत को गिरफ्तार करके मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया. उसके पैरों में बेडी, हाथों में हथकड़ी तथा गले में चक्की के पाट डालकर कैद करके दिल्ली लाया गया. वहां उसको अजमेरी गेट की जेल में बंद कर दिया गया. उसी जेल के आगे गढा खोदा गया. कान्हा को प्रतिदिन उस गढे में गाडा जाता था तथा अमानवीय यातनाएं दी जाती थी लेकिन वह इन अत्याचारों से भी टस से मस नहीं हुआ.
एक दिन बड़ी मुश्किल से मिलने की इजाज़त लेकर कान्हा का छोटा भाई दलशाह उसे मिलने के लिए आया. उस समय कान्हा के पैर जांघों तक जमीन में दबाये हुए थे तथा हाथ जंजीरों से जकडे हुए थे. कोड़ों की मार से उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था.
दलशाह से यह दृश्य देखा नहीं गया तो उसने कान्हा से कहा भाई अब यह छोड़ दे. तब कान्हा तिलमिला उठा और बोला:
“अरे दलशाह यह तू कह रहा है. क्या तू मेरा भाई है. मैंने तो सोचा था कि मेरा भाई अब्दुन नबी की मौत की सूचना देने आया है. ताकि मैं शांति से मर सकूं. मैंने तो सोचा था कि मेरे भाई ने मेरा प्रतोशोध ले लिया है.
कान्हा का छोटा भाई दलशाह कान्हा को प्रणाम कर माफ़ी मांग कर वापिस गया. कान्हा रावत के छोटे भाई दलशाह ने रावतों के अतिरिक्त उस क्षेत्र के अनेक गावों को इकठ्ठा कर अब्दुल नवी पर हमला बोल दिया. यह खबर कान्हा को उसकी मृत्यु से एक दिन पहले मिली. इस खबर से कान्हा को बड़ी आत्मिक शांति मिली. इस घटना के बाद औरंगजेब ने कान्हा रावत पर जुल्म बढा दिए. अंत में चैत्र अमावस विक्रम संवत 1738 (1684 इस्वी} को वीरवर कान्हा रावत को जिन्दा ही जमीन में गाड दिया. वह देशभक्त धर्म की खातिर बलिदान हो गया.
जिस स्थान पर कान्हा रावत को जिन्दा गाडा गया था वह स्थान अजमेरी गेट के आगे मौहल्ला जाटान की गली में आज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है.
यदि कोई सक्षम व्यक्ति मेरे लेख को देखे तो महामानव कान्हा रावत जी के बलिदान को स्कूल के सेलेबस में स्थान दिलवाए
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