राणा भीमसिंह की वीरता की हो गयी थी भ्रूण हत्या
पुन: मेवाड़ की ओर
अब हम एक बार पुन: महाराणा प्रताप की पुण्य कर्मस्थली मेवाड़ और उनके राणा वंश की ओर चलें। यह वंश निरंतर कितनी ही पीढिय़ों तक देश सेवा में लगा रहा। महाराणा प्रतापसिंह के पुत्र राणा अमरसिंह से चित्तौड़ हाथ में आने के उपरांत भी निकल गयी थी। अपने पिता की भांति ही अमरसिंह भी संसार से विदा लेते समय चित्तौड़ के लिए व्यथित रहा होगा।
1621 ई. में राणा अमरसिंह के पश्चात मेवाड़ के राज्य सिंहासन पर राणा कर्णसिंह विराजमान हुए। राणा कर्णसिंह भी अपने पूर्वजों की अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षार्थ आजीवन संघर्ष करने वाले महायोद्घा सिद्घ हुए। उन्होंने स्वतंत्रता की ज्योति को बड़ी लग्न और उद्यमशीलता के साथ जलाये रखने का प्रशंसनीय कार्य किया।
कर्नलटॉड हमें बताता है-”राणा कर्ण जीवन साहस और चरित्र से भरा हुआ था। सिंहासन पर बैठने के उपरांत उसने अपने राज्य की गिरी हुई परिस्थितियों का अध्ययन किया। राज्य सभी प्रकार से दीन दुर्बल हो चुका था। शूरवीर लगातार लड़ाई के कारण मारे जा चुके थे। संपत्ति का राज्य में पूर्णरूप से अभाव हो गया था। न तो सरकारी खजाने में रूपया था और न राज्य की प्रजा के पास कुछ रह गया था। कर्ण ने इस अभाव को दूर करने की कोशिश की। प्रजा को सभी प्रकार की सुविधाएं दी गयीं। जिससे वह खेती के व्यवसाय से अपनी आर्थिक उन्नति कर सके। राणा कर्ण को इतने से ही संतोष न हुआ। इन सुविधाओं के द्वारा राज्य और प्रजा की गरीबी को दूर करने के लिए बहुत समय की आवश्यकता थी, और कर्ण उस अभाव को जल्दी पूरा करने की चेष्टा में था।
इसके लिए उसने अपने साथ सवारों की एक सेना तैयार की, और उसे अपने साथ लेकर सूरत में पहुंच गया। वहां उसने लूटमार की और अपने साथ लूट की एक अच्छी संपत्ति लेकर वह लौट गया। इस संपत्ति की सहायता से राणा कर्ण ने राज्य के आर्थिक अभाव को बहुत कुछ पूरा किया और उससे प्रजा को भी सहायता मिली।”
इस उद्घरण का निहितार्थ
कर्नल टॉड के इस ऊपरि- लिखित उद्घरण से स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता संग्राम को निरंतर जारी रखने के लिए कितनी भारी विपत्तियां झेलनी पड़ती हैं? इन विपत्तियों को किसी एक राजा या राजवंश के कुछ लोगों तक सीमित करके देखना भी भूल होगी, इसके लिए हमें अपने चिंतन को व्यापकता देनी होगी, क्योंकि इस राणा राजवंश के साथ उसके सुख-दुख में उसकी प्रजा भी खड़ी थी।
मेवाड़ की प्रजा ने स्वतंत्रता के लिए आसीम कष्ट सहे। कितनी ही बार ऐसी परिस्थितियां बनीं कि युद्घ के लिए सैनिक ढूंढऩे ही कठिन हो गये, क्योंकि कभी एक-एक वर्ष के अंतराल पर तो कभी-कभी तो एक माह के अंतराल पर भी विदेशी शासकों से हमारे वीर योद्घाओं के भयानक युद्घ हुए।
उन युद्घों के लिए स्थितियां ऐसी भी बनीं कि पूरे मेवाड़ में युवकों का अकाल ही पड़ गया। क्योंकि युद्घों में अनेकों नही, असंख्य योद्घा काम आ गये। परिवार के परिवार नष्ट हो गये कहीं-कहीं तो गांव के गांव समाप्त हो गये। पूरे मेवाड़ में ऐसे कई अवसर आये जब युद्घों में मारे जाने के कारण पुरूषों का अनुपात महिलाओं की तुलना में भयंकर रूप में गिर गया, अर्थात महिला-पुरूष का अनुपात पूर्णत: असंतुलित हो गया। पर प्रकृति ने वह विकृत लिंगानुपात ठीक किया और प्रजा के साहस ने मेवाड़ की आत्मशक्ति को बलवती बनाये रखा। जिससे मेवाड़ झुका नही, और मेवाड़ का मुकुट सदा ही मुगलसत्ता के लिए ईष्र्या का कारण बना रहा।
कर्णसिंह की चुनौतियां
सदियों तक इस प्रकार के कष्टों को सहन करना हिंदू समाज की राजस्थानी जीवंतता का एक जीवंत प्रमाण है, जिसकी ध्वजा अब कर्णसिंह के हाथों में थी। कर्णसिंह के समक्ष कई प्रकार की चुनौतियां थीं। इनमें सर्वप्रथम और सर्वप्रमुख थी-मेवाड़ की प्रजा को होने वाले कष्टों से मुक्ति दिलाना, उन्हें आर्थिक रूप से समृद्घ बनाना। दूसरी थी मेवाड़ के सम्मान की रक्षा करना और तीसरी थी-अपने पूर्वजों के यश वैभव की रक्षा करना।
यह सौभाग्य की बात थी कि राजा कर्णसिंह ने इन तीनों प्रकार की चुनौतियों का बड़ी धीरता के साथ सामना किया और चुनौती यदि एक प्रश्न थी तो वह स्वयं उस प्रश्न का एक गंभीर और सार्थक उत्तर बन गया। चुनौती का उत्तर बन जाना ही चुनौती को परास्त करना होता है। शूरवीर चुनौतियों का सामना उसी प्रकार किया करते हैं जिस प्रकार एक मल्ल अपने प्रतिद्वंद्वी मल्ल की चुनौती का सामना खेल के मैदान में अखाड़े में किया करता है। इसलिए राणा कर्णसिंह ने अपने राज्य की प्रजा की सर्वांगीण उन्नति की ओर ध्यान दिया। उसके सदप्रयासों के कारण उसे अपने लक्ष्य में सफलता भी मिली।
राणा भीमसिंह की वीरता
राणा कर्णसिंह का एक अन्य भाई राणा भीमसिंह था। भीमसिंह भी जन्म-जात वीर साहसी और देशधर्म के लिए मर मिटने वाला योद्घा था। इस भीम की वीरता की यश गाथा मुगल दरबार तक चली गयी थी। इसलिए बादशाह जहांगीर का पुत्र खुर्रम उसके प्रति आकर्षित हुआ।
भीमसिंह और खुर्रम की मित्रता
खुर्रम को ज्ञात था कि समय आने पर भीमसिंह की सहायता बड़ी उपयोगी हो सकती है। मुगल दरबार में सत्ता षडय़ंत्र और उत्तराधिकार के लिए होने वाले युद्घों की सभी को पता है। इसलिए खुर्रम ने भविष्य में होने वाले सत्ता संघर्ष के दृष्टिगत भीमसिंह को अपने लिए अत्यंत उपयोगी माना। फलस्वरूप खुर्रम ने भीमसिंह से मित्रता कर ली। राणा भीमसिंह भी खुर्रम की मित्रता से तो संतुष्ट था, परंतु वह इस मित्रता को यहां से आगे नही बढ़ाना चाहता था। उसकी भी इच्छा थी कि दिल्ली के राज्य सिंहासन पर खुर्रम का ही अधिकार हो, इसलिए वह भी खुर्रम की ओर हृदय से आकर्षित हुआ। परिणामस्वरूप दोनों में गहरी मित्रता हो गयी।
यह ऐसा समय था जब मुगलों के शाहजादों को कहीं न कहीं हिंदू राजाओं की और उनके सहयोग की आवश्यकता हुआ करती थी और कई बार अपने स्वार्थों की पूत्र्ति के लिए हिंदू राजाओं को मुगल शाहजादों के सहयोग व आशीर्वाद की आवश्यकता होती थी। खुर्रम और भीमसिंह की मित्रता इसी प्रकार की आवश्यकता का समसामयिक समन्वय था।
कर्नल टॉड हमें बताता है-”शाहजादा खुर्रम ने अपने पिता जहांगीर से भीम की प्रशंसा की थी और अपने लडक़े की सिफारिश के कारण जहांगीर ने भीम को राजा की उपाधि देकर बनास नदी के करीब का इलाका दे दिया था। होड़ा उस क्षेत्र की राजधानी थी। भीम ने अपने पाये हुए उस इलाके का निर्माण अपनी मर्जी के अनुसार किया और रहने के लिए वहां पर उसने एक राज भवन बनाया। उस राजभवन में बहुत समय तक उसके वंश के लोग रहते रहे और आज भी उस राजप्रासाद के खण्डहर अपने नगर के प्राचीन गौरव का परिचय देते हैं। यद्यपि उस नगर की दशा अब अच्छी नही है।”
राजनीति के भिन्न-भिन्न प्रयोग
अपने प्रति स्वामी भक्ति दिखाने वालों को राजा, राव, मुकद्दम, सर आदि की उपाधियां प्रदान करने का क्रम मुस्लिम-काल (और अंग्रेजी-काल में भी) निरंतर जारी रहा। इस प्रकार के क्रम का उद्देश्य लोगों को विदेशी सत्ताधीशों के प्रति कृतज्ञ बनाये रखकर अपनी सत्ता को और अपने शासन को चिरस्थायित्व प्रदान करना होता था, जिससे कि भारत के स्वतंत्रता प्रेमी विद्रोही लोगों का समर्थन उन विदेशी सत्ताधीशों को मिलता रहे।
इस प्रकार की उपाधियां प्राप्त लोग कितनी ही बार विदेशी सत्ताधीशों के लिए कार्य करते भी देखे गये। परंतु अंतिम विजय उनकी चाटुकारिता की न होकर भारत की स्वतंत्रता प्रेमी आत्मशक्ति की हुई।
भीमसिंह अपने मूल स्वभाव में किसी विदेशी सत्ताधारी का चाटुकार नही था। उसने अपनी आत्मा को बंधक रखकर किसी प्रकार की राजोचित सुख सुविधाएं प्राप्त नही की थीं, और ना ही ऐसी किन्हीं सुख सुविधाओं की विलासिता में वह खो गया था। उसकी सोच कुछ और ही थी। उसने खुर्रम से तो मित्रता की, परंतु उसके भाई परवेज से वह घृणा करता था। परवेज जहांगीर का उत्तराधिकारी था और भीमसिंह अपने अनुकूल शाहजादे खुर्रम को ही दिल्ली का बादशाह बनाने का पक्षधर था।
जहांगीर ने जब उसे जागीर प्रदान की थी तो उसकी सोच थी कि भीमसिंह उसके प्रति सदा कृतज्ञ रहेगा। इसके अतिरिक्त भीम को यह भी पता था कि परवेज के राणा अमरसिंह के शासनकाल में जब चित्तौड़ पर आक्रमण किया था तो उसकी क्रूरता के कारण कितने हिंदुओं का संहार कर दिया गया था और चित्तौड़ को कितने अपमान और अपयश को झेलना पड़ा था।
कर्नल टॉड (‘राजस्थान का इतिहास’ भाग-1 के पृष्ठ 244 पर) लिखते हैं-”शाहजादा परवेज बादशाह जहांगीर का उत्तराधिकारी था और शाहजादा खुर्रम का बड़ा भाई था। जहांगीर के बाद मुगल सिंहासन का वही उत्तराधिकारी था। भीम की अभिलाषा कुछ और थी। वह परवेज के स्थान पर शाहजादा खुर्रम को मुगल सिंहासन पर बिठाने का समर्थक था। खुर्रम के साथ उसकी मित्रता थी ही। इस विषय में भी दोनों में परामर्श हुआ। भीम किसी प्रकार भी परवेज को दिल्ली के सिंहासन पर नही देखना चाहता था। इसलिए उसने अपनी सेना लेकर परवेज पर आक्रमण किया। दोनों की सेनाओं में युद्घ हुआ। अंत में मुगल सेना की पराजय हुई और परवेज मारा गया।”
एक शत्रु का अंत कर दिया
परवेज चित्तौड़ और मेवाड़ की स्वतंत्रता का शत्रु था। जबकि भीमसिंह अपने पूर्वजों की यशोगाथा से पूर्णत: परिचित होने के कारण स्वतंत्रता का परम उपासक था। मेवाड़ की स्वाधीनता के शत्रु परवेज को तो भीमसिंह एक क्षण के लिए भी देखना नही चाहता था। जब इस वीर योद्घा ने परवेज के भाई खुर्रम को अपना विश्वसनीय बना लिया और उस खुर्रम के माध्यम से जहांगीर पर भी अप्रत्यक्ष रूप से अपना नियंत्रण करने में सफल हाा गया तो उसने मेवाड़ की स्वतंत्रता के भक्षक परवेज को मिटाने का संकल्प लिया। भीमसिंह के इस संकल्प से उस को कोई शक्ति डिगा नही सकी। भीम की यह कूटनीतिक सफलता थी उसने अपने बौद्घिक चातुर्य से शत्रु में विभेद उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की और अपनी स्वतंत्रता के परम शत्रु परवेज को मिटाने में उसी के परिजनों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त की। ऐसी सफलता केवल उस काल में भीमसिंह ही प्राप्त कर सकता था और वह उसने करके दिखा दी। इस सफलता को भीमसिंह का बौद्घिक चातुर्य एवं राजनीतिक कौशल कहा जाना ही उचित होगा।
जहांगीर हो गया क्रुद्घ
जब हिंदू योद्घा भीमसिंह की कूटनीति और उसके घातक प्रहार के कारण परवेज के अंत होने की सूचना बादशाह जहांगीर को मिली तो वह अत्यंत क्रुध हुआ। उसे राजनीति की कूटनीति और परवेज की मृत्यु के पीछे भीमसिंह की नीति की रणनीति को समझने में तनिक भी देर नही लगी। अत: मुगल बादशाह जहांगीर ने भीम को अपने लिए एक चुनौती मानकर उसके विरूद्घ युद्घ करने का निर्णय लिया।
जहांगीर ने भीमसिंह के विरूद्घ भेजी सेना
जहांगीर के द्वारा भीमसिंह को परास्त कर उसे समाप्त करना अब उसकी प्राथमिकता हो गयी थी। इसलिए जहांगीर ने एक विशाल सेना भीमसिंह को नष्ट करने के भेजी। बादशाह जहांगीर के इस आक्रमण के विषय में कर्नल टाड हमें बताता है-”शाहजादा खुर्रम जो सिंहासन पर बैठने के बाद शाहजहां के नाम से प्रसिद्घ हुआ-जोधाबाई से उत्पन्न हुआ था, और जोधाबाई राठौड़ राजपूतों के वंश में उत्पन्न हुई थी। मारवाड़ के राठौड़ वंश का गजसिंह शाहजादा खुर्रम का नाना था। गजसिंह परवेज के स्थान पर खुर्रम को दिल्ली के सिंहासन पर बिठाना चाहता था, और छिपे तौर पर वह अपनी इस चेष्टा में लगा हुआ था। भीमसिंह से लडऩे के लिए मुगलों की जो सेना रवाना हुई, जयपुर का राजा उसका सेनापति था। मुगलसेना के आने का समाचार पाकर भीमसिंह ने उसके साथ युद्घ करने के लिए गजसिंह के पास संदेश भेजा था।
मुगल सेना के साथ भीमसिंह ने युद्घ किया। मुगल सेना का सामना करने के लिए उसके पास सेना काफी नही थी। इसलिए उसकी पराजय हुई और वह स्वयं युद्घ में मारा गया। शाहजादा खुर्रम महावत खां के साथ भीमसिंह के मारे जाने पर उदयपुर चला गया। वहां पर राणा कर्ण ने सम्मानपूर्वक उसके रहने की व्यवस्था पर दी और कुछ दिनों के पश्चात उसके रहने के लिए एक अच्छा सा महल बनवा दिया।”
हो गयी पुन: एक भ्रूण हत्या
एक भंवरा कमल के फूल पर आकर बैठ गया और उसकी सुगंधि में मस्त हो गया। वह सोचने लगा कि मैं अभी इससे बाहर निकलता हूं। यही सोचते-सोचते और सौगंध लेते-लेते सायंकाल हो गया, और कमल मुंद हो जाता है। रात में मुंदे हुए कमलिनी के भीतर बैठा हुआ भंवरा कुछ सोचने लगा, जिसे किसी संस्कृत कवि ने ये शब्द दिये :-
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्
भास्वानुदेष्यति हृसिष्यति पंकजश्री।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,
हा हन्त हन्त! नलिनी गज उज्ज्हार।।
अर्थात रात बीतेगी सुंदर प्रभात होगा, सूर्य उदय होगा, कमल की शोभा हंसेगी। कमल की कली में बैठे हुए भौंरे के ऐसा विचारते रहने पर हाय! बड़े दुख की बात है कि हाथी ने कमलिनी को उखाडक़र फेंक दिया।
कभी-कभी इतिहास अपनी कमलिनी को मूंदकर उसमें किसी विशेष ऐसी प्रतिभा का अंत कर देता है जो अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए कुछ ऐसा विशेष कर सकने की क्षमता रखती है, जिसका लाभ वे सदियों तक उठा सकती हैं। जब उन प्रतिभाओं का अंत हो जाता है तो इतिहास उनका रक्त चूसकर उन्हें एक ओर फेंक देता है।
भीमसिंह निस्संदेह ऐसी ही एक प्रतिभा थी, जिसे समय से पहले मसल दिया गया। आज किसी को पता नही है और ना ही किसी ने पता करने का प्रयास किया है कि परवेज जैसे स्वतंत्रता के अपहत्र्ता को मारने का उसका उद्देश्य क्या था? और उसके पश्चात वह किस प्रकार के भारत की संकल्पना को लेकर कार्य करने जा रहा था? उसकी कार्य योजना और कार्यनीति की भ्रूण-हत्या कर दी गयी और हमने उस भू्रण-हत्या के भीतर छिपी प्रतिभा को समझने का कभी प्रयास नही किया।
खुर्रम को शाहजहां कहने वाला जगतसिंह
जब राणा कर्णसिंह की मृत्यु हुई तो (यह घटना 1625 ई. के लगभग की है) उसके पश्चात उसका पुत्र जगतसिंह उसका उत्तराधिकारी बना। कर्नल टॉड का कहना है कि -”राणा जगतसिंह के शासनकाल में मेवाड़ राज्य के आठ वर्ष बड़ी बड़ी शांति के साथ व्यतीत हुए। कर्ण के मर जाने के थोड़े ही दिनों पश्चात जहांगीर की भी मृत्यु हो गयी। शाहजादा खुर्रम उस समय सूरत में था राणा जगतसिंह ने अनेक राजपूतों के साथ अपने भाई के द्वारा बादशाह जहांगीर के मरने का संदेश सूरत में शाहजादा खुर्रम के पास भेजा। उस संदेश को पाकर खुर्रम के पास भेजा। उस संदेश को पाकर खुर्रम सूरत से उदयपुर चला आया। उसके आने पर मेवाड़ राज्य के बहुत से सामंत और सरदार उदयपुर आकर सुल्तान खुर्रम से मिले। उदयपुर में सभी लोग एकत्र हो गये। उस समय राणा जगतसिंह ने सबसे पहले शाहजादा खुर्रम को शाहजादा कहकर अभिवादन किया। इसके पश्चात खुर्रम उदयपुर से दिल्ली चला गया। जाने के पश्चात उसने राणा जगतसिंह को अपने राज्य के पांच इलाके दिये और एक कीमती मणि भेंट में देकर चित्तौड़ के टूटे हुए दुर्गों की मरम्मत कराने की आदेश दिया।”
राणा भीम को श्रद्घांजलि थी यह
राणा जगतसिंह ने शाहजहां को अपने राजभवन में सादर आमंत्रित किया और उसे खुर्रम के स्थान पर सर्वप्रथम ‘शाहजहां’ कहा तो यह घटना असाधारण थी। यह एक प्रकार से भीमसिंह और शाहजादा खुर्रम (जो अब शाहजहां हो गया था) की मित्रता का अभिनंदन था। साथ ही राणा भीम के बलिदान को एक विनम्र श्रद्घांजलि भी थी, अन्यथा जिस राणा परिवार में मुगलों के नाम तक से घृणा होती थी, उसके सरदार सामंतों का इस प्रकार एक साथ एक स्थान पर एकत्रित होकर किसी भावी मुगल बादशाह का इस प्रकार अभिनंदन करने का क्या औचित्य था?
यह अलग बात है कि राणा राज परिवार के साथ या मेवाड़ की प्रजा के साथ शाहजहां का व्यवहार भी आगे चलकर परिवर्तित हो गया और वह मेवाड़ को एक सीढ़ी बनाकर सत्ता शीर्ष पर पहुंच जाने के पश्चात उस सीढ़ी को ही तोडऩे पर उतारू हो गया।
पर यह तो शाहजहां की अपनी प्रकृति थी हम तो अपने क्षत्रियों की प्रकृति की बात कर रहे हैं, जिसमें कृतज्ञता के समक्ष सब प्रकार के सत्ता षडय़ंत्र या राजनीति के दांव-पेंच छोटे पड़ जाते हैं और कभी-कभी तो ये सब निरर्थक ही जान पडऩे लगते हैं।
राणा जगतसिंह ने मेवाड़ पर जितनी देर भी शासन किया, उसने सफलता पूर्वक और शांतिपूर्वक शासन किया। राणा ने शाहजहां से इतनी सहायता अवश्य प्राप्त कर ली कि मेवाड़ की प्रजा और राज्य का मुसलमानी आक्रमणों से जितना विनाश हुआ था उस सबकी पूत्र्ति कर ली। दीर्घकाल तक बाहरी आक्रमणों के कारण मेवाड़ जिस प्रकार शमशान बन गया था, अब वह पुन: नया जीवन अनुभव करने लगा था।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत