कुछ स्मरण उनका भी कर लो।*
प्रतिवर्ष वैशाखी का पर्व हमारे उन अनेक वीर वीरांगनाओं, क्रांतिकारियों ,देशभक्तों का स्मरण दिलाता है जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए अपना प्राण- उत्सर्ग किया था। इसी विषय पर श्री बृजेंद्र सिंह वत्स द्वारा लिखित यह लेख यहां पर प्रस्तुत है – डॉ राकेश कुमार आर्य
बृजेन्द्र सिंह वत्स
दिनांक १३ अप्रैल को समग्र देश तथा विशेषकर पंजाब में बैशाखी का पर्व पूरे उल्लास के साथ मना रहा होगा अतः पर्व की शुभकामनाएं लेकिन आज ही की तिथि को वर्ष १९१९ में मानवता को कलंकित करने वाला भीषण नरसंहार हुआ था। बलात शासन कर रहे अंग्रेज शासक वर्ग ने भारत की जनता को पूरी तरह से कुचल दिया था एवं दुखद तथा लज्जा जनक यह है कि अंग्रेज के आदेश पर कुचलनेवाले कोई और नहीं थे वे वेतन भोगी भारत के ही नागरिक थे, जो चंद सिक्को के उपकार चुकाने के लिए विदेशियों के हाथों में खेल कर अपनों को ही पागल कुत्तों की तरह नोंचने का पाप कर रहे थे। काश! वे उस दिन ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर की ओर अपनी बंदूकों का मुंह कर देते हैं तो आज एक यशस्वी इतिहास का भाग होते , जिस प्रकार बलूचिस्तान में तत्कालीन अंग्रेज सेना का भाग रहे अमर वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने अपने ब्लूच नागरिकों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था तथा अंग्रेजों द्वारा इस अवमानना पर वीर गढ़वाली को फांसी पर चढ़ा दिया व इस प्रकार गढ़वाली इतिहास का एक यशस्वी भाग बन गए । यहां इस सेवक का उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी से निवेदन है कि उत्तराखंड के जिम कार्बेट पार्क अथवा लैंसडाउन में से किसी एक स्थान का नाम श्री चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर रखकर उनके प्रति अपनी व देश की कृतज्ञता निभाकर इतिहास में स्वयं का नाम अमर कर दीजिए क्योंकि वास्तव में जिम कार्बेट और लैंसडाउन उन्हीं दुर्दांत अंग्रेजों के वंशज है जिन्होंने एक जलियांवाला बाग कांड नहीं अन्यथा न जाने कितने कांडों में भारतीयों की बलि चढ़ाई थी और वे दुर्भाग्य से आज भी हमारे नगरों, उद्यानों की पहचान बनकर इस देश के घाव पर नमक छिड़क रहे हैं।काश! उस दिन जलियांवाला बाग में वे भारतीय सैनिक रेजीनॉल्ड डायर के आदेश की अवमानना कर देते तो उस समय की परिस्थितियों में एक पृथक संदेश ही जाता व एक पृथक इतिहास रचा जाता, जो आज गर्व के साथ स्मरण किया जाता । वह इतिहास उन वीरों की प्रशस्ति गान कर रहा होता न कि उन कायरों की भर्त्सना के रूप में दिखाई देता जो डायर के दासों के अनुरूप अपनों पर ही प्रहार कर रहे थे लेकिन ऐसा हो न सका। संभव है कि उनके वंशज अपने पूर्वजों के इस धत्कर्म पर स्वयं भी लज्जित होते होंगे।
उक्त घटना १३ जनवरी १९१९ की सायं को घटित हुई थी। उससे एक दिन पूर्व अमृतसर में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। १३ जनवरी को बैसाखी का पर्व था। पंजाब में वैशाखी का एक विशेष महत्व है। पंजाब कृषि प्रधान क्षेत्र है और उस दिन पहली उपज वे अपने घर लाते हैं तथा उसका अभिनंदन करते हैं। यह पर्व पंजाब की भावनाओं का पर्व होता है और इन्हीं भावनाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने पर ब्रिटिश शासन ने निषेध कर दिया था।भारत में पर्व के पुनीत दिवस पर मार्शल ला लगाकर भारत वासियों को पर्व न मनाने देने का दुस्साहस अंग्रेजी शासन कर रहा था और दुर्भाग्य यह था कि उस समय की कांग्रेस के सर्वे सर्वा मौन धारण किए हुए थे ,जैसे उनकी इस आदेश में सहमति थी यदि ऐसा न होता तो उनकी ओर से शांतिपूर्ण ही सही लेकिन यह प्रतिकार अवश्य हुआ होता कि भारतीय नागरिकों को अपना पर्व मनाने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इतना ही होता तब भी ठीक था कोढ़ में खाज तो उस समय हुई, जब इस नरसंहार के उपरांत भी कांग्रेसी नेतृत्व मुंह में दही जमाए बैठा रहा। न कोई धरना, न कोई प्रदर्शन बस केवल मौन और मौन, मौन के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं जैसे उस दिन मौन व्रत कर लिया हो अहिंसा के दूतों ने।
जलियांवाला बाग में जो १५ से २०००० की भीड़ थी वह विचारों में भी हिंसक नहीं थी। उस बाग में जाने का प्रवेश द्वार एक ही था और वह संकरा था तथा उस पर ५० रायफलों के साथ जनरल डायर उस प्रवेश द्वार पर डट गया। वह अपने साथ दो बख्तरबंद गाड़ी पर भी लेकर गया था लेकिन मार्ग छोटा होने के कारण वह उन्हें अंदर न ले जा सका। इससे उसकी हिंसक प्रवृत्ति का भान हो जाता है तथा इसकी सूचना ब्रिटिश सरकार को न हो ऐसा संभव ही नहीं था अतः यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस नरसंहार में ब्रिटिश सरकार की मौन सहमति थी। उस दिन १६५०गोलियां दागी गई थीं। दया का कोई भी चिह्न वहां नहीं था। जनता चीत्कार कर रही थी। बाल, वृद्ध, युवा , महिलाएं सब ही अपने जीवन की सुरक्षा के लिए इधर-उधर दौड़ रहे थे लेकिन मानवता पर कहर अपने चरम पर था, निर्दयता का तांडव कहर बरपा रहा था। बरपाता भी क्यों न, दासों को भी क्या दया का अधिकार हो सकता है? दास या तो आदेश का पालन करें अथवा निर्दयता पूर्वक मृत्यु को गले लगाएं। इन जीवंत लेकिन अहिंसक भारतीयों ने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए सामंती आदेश को स्वीकार नहीं किया था और फलत: वे मृत्यु का आलिंगन करने के लिए विवश थे। यदि यह लोग हिंसक होते तो ५० राइफल और कुछ सैनिकों की इन १५ से २०००० की भीड़ के सामने कोई अस्तित्व था क्या? काश! वे उस दिन अपनी जीवन बचाने के लिए कुएं में कूदने अथवा इधर-उधर भटकने के स्थान पर इन ५० राइफल धारियों पर टूट पड़ते तो जलियांवाला बाग का इतिहास कुछ दूसरा ही होता। वहां गोलियां चल रही थी और बदहवास होकर जनसमूह अपना जीवन बचाने के लिए किसी एक स्थान पर एकत्रित होता जाता था और यह नर पिशाच उसी स्थान पर गोलियां चलवा रहा था ।भीड़ जीवन बचाने के लिए जलियांवाला बाग के उस कुएं में कूद रही जहां निश्चित मृत्यु ही थी लेकिन उस समय उनकी मृगतृष्णा थी कि संभवत: वे वहां सुरक्षित रह सकते हैं।
१३ अप्रैल १९१९ के दिन अमृतसर के पुलिस स्टेशन के रोजनामचा की प्राथमिकी कुछ इस प्रकार से है,” जलियांवाला बाग में मौजूद विप्लव हेतु उन्मत्त भीड़ को काबू करने के लिए १६५० गोलियां राइफल से दागी गई, २०० से ३०० के मध्य इंसानी जिंदगियां में गर्क हुई और शासन की हुकुमउदुली का सबक उन्हें सिखाया गया। रात्रि को गश्त के दौरान पाया गया कि अमृतसर शहर बिल्कुल खामोश था। इस प्रकार एक सही नसीहत दी गई अमृतसर में शांति कायम हो गई।”(साभार जलियांवाला हत्याकांड लेखक चेतन प्रकाश शर्मा पृष्ठ १९)। इस नृशंस हत्याकांड के पश्चात भी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर अथवा अन्य किसी भी अंग्रेज अधिकारी को कोई पश्चाताप नहीं था। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने इस हत्याकांड को अपनी प्रशस्ति प्रदान कर दी, जिसका मूल्य उन्हें उस समय चुकाना पड़ा, जब भारत माता के लाल उधम सिंह ने लंदन में जाकर इस पिशाच को गोली से आहत कर के जलियांवाला बाग हत्याकांड का आंशिक प्रतिशोध लिया और फांसी के फंदे पर चढ़कर मां भारती की स्वतंत्रता की राह में अपना बलिदान कर दिया।
जलियांवाला बाग कांड में कितने लोग आहत हुए यह सूचना स्वयं डायर दे रहा है,”डायर रात्रि के १२ बजने से पूर्व ही मुख्यालय पर लौट आया। डायर को इस समय तक भी कोई पछतावा नहीं था कि उसने लगभग १५०० सौ से २००० लोगों का कत्ल किया है जिसमें निरापराध महिलाएं व बच्चे भी शरीक थे।”(दृष्टव्य जलियांवाला बाग हत्याकांड, चेतन प्रकाश शर्मा पृष्ठ १८,१९)। इस कांड की लीपापोती के लिए शासन ने एक हंटर कमीशन बनाया था जिसमें साक्षी देते हुए डायर ने कहा कि उसे गोली चलाने का आदेश देने में ३०क्षण भी नहीं लगे थे। उसने यह भी कहा था कि मैं सभी को जान से मार दूं। इतने निर्दयी तथा दुर्दांत अधिकारी को अंग्रेज सरकार ने कोई दंड नहीं दिया तथा हमारे तथाकथित स्वाधीनता दिलवाने वाले इस अंग्रेज सरकार के अंतिम वायसराय माउंटबेटन के प्रति इतनी सहानुभूति रखते थे कि स्वाधीनता के पश्चात भी उन्होंने उसे अपना गवर्नर जनरल बनाए रखकर जलियांवाला बाग के हाथों के घाव पर जैसे नमक छिड़क दिया।
१३ अप्रैल १९१९को बैसाखी पर्व था । प्रसन्नता व उल्लास के उस अवसर पर १९१९ में जलियांवाला बाग में हमारी स्वाधीन सांसो के लिए न जाने कितने वृद्ध, युवा, नारियों व नौनिहालों ने अपनी सांसो की आहुतियां दे दीं। जलियांवाला बाग के उन हुतात्माओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना के सामाजिक उत्तरदायित्व है क्योंकि वे वीर न होते तो संभवतः हम आज स्वाधीन देश में अपने पर्व न मना पा रहे होते। ।
हे जलियांवाला बाग कांड के हुतात्माओं आज आप स्वर्ग की संसद के सदस्यों के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे होंगे। आप को कृतज्ञता पूर्ण श्रद्धांजलि।
(पूर्व मुख्य प्रशासनिक अधिकारी जनपद न्यायालय,
15 रामदुलारी बलवीर सिंह कुटीर सम्राटअशोक नगर मुरादाबाद।)