चरक संहिता हमारे देश में बहुत देर तक लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करने का और उन्हें स्वस्थ बनाए रखने का आधार ग्रंथ रहा है। चरक से पूर्व हमारे जिन महान चिकित्सा शास्त्रियों ने मानव स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सूत्रों की रचना की थी या औषधियों के निर्माण करने की विधि बताई थी उन सबको एक स्थान पर लाकर इस पुस्तक में समाविष्ट करने का कार्य चरक जी ने किया। इस महान ग्रंथ में चिकित्सा के क्षेत्र में भारत का ही नहीं , भारत के बाहर भी लोगों का उत्तम मार्गदर्शन किया। चरक संहिता को एक आयुर्वेद ग्रंथ के रूप में मान्यता दी गई है। निश्चय ही इस ग्रंथ में वर्णित औषधियों का विधिवत सेवन करने से मनुष्य अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त कर सकता है। हमारे चिकित्सा शास्त्रियों का उद्देश्य भी यही होता था कि चिकित्सा के माध्यम से मनुष्य के दीर्घायुष्य और अच्छे स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा जाए।
महान परिश्रम और साधना के बल पर चरक ने अपने काल में आयुर्वेद विशारद के रूप में ख्याति प्राप्त की। इनका जन्म ईसा पूर्व छठी शताब्दी में माना जाता है। यद्यपि हमारी दृष्टि में यह काल गणना उचित प्रतीत नहीं होती। क्योंकि काल गणना के संबंध में वर्तमान तथाकथित विशेषज्ञों ने बहुत बड़े स्तर पर घपलेबाजी की है।
‘चरक संहिता’ के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि उसमें मनुष्य शरीर के भीतर पाए जाने वाले ऐसे किसी भी रोग को छोड़ा नहीं गया है जो किसी न किसी प्रकार से मानव स्वास्थ्य को खराब करता है। कहने का अभिप्राय है कि प्रत्येक रोग की औषधि इसमें दी गई है। प्रकार के रोगनाशक और रोगनिरोधक औषधियों का इस ग्रंथ में वर्णन है।
रोग, शोक ,संताप को, कैसे करना दूर ?
मानव जीवन सुख से कटे, सूत्र दिए भरपूर।।
आयुर्वेद की यह विशेषता है कि इसमें सोना ,चांदी ,लोहा पारा आदि धातुओं की भस्म बनाकर उसे भी मानव शरीर में पाए जाने वाले रोगों की औषधि के रूप में तैयार किया जाता है। इस प्रकार की भस्म को विशेष रूप से तैयार किया जाता है। यह सारी औषधियां मानव स्वास्थ्य और शरीर पर विपरीत प्रभाव डाले बिना शरीर से रोग का विनाश करती हैं। ईसा पूर्व की कई शताब्दियों में चरक की गिनती विश्व में आयुर्वेद के एक महान आचार्य के रूप में होती थी। उन्हें औषधीय विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में से एक माना जाता है। लोगों की ऐसी भी मान्यता है कि यह कुषाण वंश के सम्राट कनिष्क के राजवैद्य थे, परंतु हम इससे सहमत नहीं हैं। क्योंकि उनके काल से बहुत पहले इनकी 'चरक संहिता' के प्रमाण मिलते हैं। हां, ऐसा हो सकता है कि सम्राट कनिष्क ने भारतीय संस्कृति और चिकित्सा शास्त्र की वृद्धि के लिए इनकी 'चरक संहिता' को विशेष सम्मान और आदर दिया हो।
‘चरक संहिता’ के अध्ययन करने से पता चलता है कि उकडूं बैठने, ऊंचे-नीचे स्थानों में फिरने, कठिन आसन पर बैठने, वायु-मलमूत्रादि के वेग को रोकने, कठोर परिश्रम करने, गर्म तथा तेज वस्तुओं का सेवन करने एवं बहुत भूखा रहने से गर्भ सूख जाता है, मर जाता है या उसका स्राव हो जाता है। इसी प्रकार चोट लगने, गर्भ के किसी भांति दबने, गहरे गड्ढे , कुंआ ,पहाड़ आदि के विकट स्थानों को देखने से गर्भपात हो सकता है।
सदैव सीधी उत्तान लेटी रहने से नाड़ी गर्भ के गले में लिपट सकती है , जिससे गर्भ मर सकता है।इस अवस्था में गर्भवती अगर नग्न सोती है या इधर-उधर फिरती है तो सन्तान पागल हो सकती है। लड़ने-झगड़ने वाली गर्भवती की सन्तान को मृगी हो सकती है। यदि वो मैथुनरत रहेगी तो सन्तान कामी तथा निरन्तर शोकमग्ना की सन्तान भयभीत, कमजोर, न्यूनायु होगी। आयुर्वेदाचार्य और विद्वानों का मानना है कि परधन ग्रहण की इच्छुक महिला की सन्तान ईर्ष्यालु , चोर, आलसी, द्रोही, कुकर्मी, होगी। बहुत सोने महिला वाली की सन्तान आलसी, मूर्ख मन्दाग्नि वाली होगी। यदि गर्भवती शराब पीएगी तो सन्तान विकलचित्त, बहुत मीठा खानेवाली की प्रमेही, अधिक खट्टा खानेवाली की त्वचारोगयुक्त, अधिक नमक सेवन से सन्तान के बाल शीघ्र सफेद होना, चेहरे पर सलवटें एवं गंजापनयुक्त, अधिक चटपटे भोजन से सन्तान में दुर्बलता, अल्पवीर्यता, बांझ या नपुंसकता के लक्षण उत्पन्न होंगे एवं अति कड़वा खाने वाली महिला की सन्तान सूखे शरीर अर्थात् कृष होगी।
इस प्रकार के चिंतन से पता चलता है कि चरक का चिंतन बहुत ही व्यापक था। उन्होंने गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा के विषय में भी ऐसे अनेक सूत्र दिए हैं जिनको अपनाकर आज की माताएं भी लाभ उठा सकती हैं।
बहुत गूढ़ चिंतन दिया , खोज स्वास्थ्य विज्ञान।
चरक तुम्हारे ज्ञान को , है कौन सका पहचान।।
चिकित्सा विज्ञान या किसी भी प्रकार के ज्ञान - विज्ञान के बारे में यह नहीं समझना चाहिए कि यह किसी भी वैज्ञानिक का या ऋषि का मौलिक चिंतन था जो केवल और केवल उसी के अंत:करण में प्रकट हुआ था। इसके विपरीत हमें यह समझना चाहिए कि वेद सभी सत्य विद्याओं का पुस्तक है। संसार का जितना भर भी ज्ञान विज्ञान है वह सब वेदों में निहित है। सूत्र रूप में वेदों में रखे इस ज्ञान को जिसने समझ लिया वही किसी विषय विशेष का विशेषज्ञ हो गया। चिकित्सा शास्त्र की यदि बात की जाए तो इससे संबंधित सूत्र भी वेदों में मिलते हैं।
अमिय कुमार मुखोपाध्याय लिखते हैं कि "ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन धार्मिक ग्रंथ है। यह आर्यों के प्रारंभिक जीवन को चित्रित करता है। इस वेद में हमें विभिन्न रोगों का उल्लेख मिलता है । चर्म-स्वास्थ्य और रोग दोनों में वैदिक ऋषियों का ध्यान आकृष्ट किया था। त्वचा केवल आकर्षण और रूप का अंग नहीं थी बल्कि उसका रंग सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण था। कुष्ठ रोग , गिनी कृमि, पीलिया आदि विभिन्न रोगों का उल्लेख रोचक है। नाखूनों और बालों के विभिन्न विकारों का उल्लेख भी है, हालांकि बहुत ही आदिम और रहस्यवादी रूप में। प्रबंधन रणनीति में जड़ी-बूटियाँ, ताबीज़, मंत्रों का जाप , शरीर को छूना, पानी और सूर्य की किरणों का उपयोग आदि शामिल थे। यह माना जा सकता है कि इस वेद ने बाद के काल के आयुर्वेद के लिए आधार की स्थापना की।"
वेदों में छुपी इस गूढ़ विद्या के पहले से ही होने के सर्वमान्य सत्य को स्वीकार करके पता चलता है कि चरक निश्चय ही वेदों के प्रकांड पंडित थे। तभी तो उन्होंने चिकित्सा शास्त्र का इतना गहरा ज्ञान प्राप्त किया और अपने से पूर्व के सभी ऋषियों के चिकित्सा शास्त्र संबंधी सूत्रों को एक साथ ‘चरक संहिता’ में लाकर पिरो दिया। उन्होंने संसार के लोगों को यह भी बताया कि पृथ्वी पर जितने भर भी द्रव्य हैं ,वह सभी औषधीय गुण रखते हैं। आचार्य चरक मन को स्वस्थ रखने, इंद्रियों को मजबूत बनाए रखने और उचित आहार-विहार के माध्यम से मानसिक प्रसन्नता को स्थाई बनाए रखने पर विशेष रूप से बल देते हैं। इससे रोगी को मनोवैज्ञानिक लाभ होता है। वात, पित्त एवं कफ औषधि विज्ञान की आधारशिला हैं।
‘चरक संहिता’ में शरीर में ओज को ऊर्जा का प्रतीक माना गया है। ओज के माध्यम से विद्युत् की उपस्थिति का भी संकेत किया गया है। ओज एक प्रकार से शरीर में बहने वाला विद्युत का प्रभाव करंट है। संध्या में शरीर के एक-एक अंग को देखते हुए जब साधक आगे बढ़ता है और संबंधित मंत्रों का उच्चारण करता है तो वह भी शरीर में इसी करंट को अर्थात ओज, बल व तेज को प्रवाहित किए रखने की प्रार्थना परमपिता परमेश्वर से करता है। संध्या के इन मंत्रों का भी शरीर पर बहुत ही सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। उन्होंने हमारे शरीर में अस्थियों की संख्या 360 बताई थी। चरक ने मानव शरीर को नौ द्वारों का पुतला स्वीकार किया है जैसी कि वेदों की मान्यता रही है। इसके अतिरिक्त आचार्य चरक ने यह भी स्पष्ट किया है कि मानव के शरीर में 900 स्नायु शिरा, 200 धमनी, 400 पेशियां, 107 मर्म, 200 संधि, 29,956 शिराएं विद्यमान है।
इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि आचार्य चरक चिकित्सा शास्त्र के मर्मज्ञ थे। उन्होंने अपने समय में चिकित्सा को इतना सहज और सरल बना दिया था कि आम आदमी अपना उपचार अपने आप कर लेता था। वास्तव में उपचार की प्रणाली को इतना सहज और सरल बना देना बहुत बड़ी साधना का परिणाम होता है। हमारे लिए यह बहुत प्रसन्नता का विषय है कि हमारे चिकित्सा शास्त्री वैद्य लोग चिकित्सा से कुछ कमाते नहीं थे अपितु इसे अपना एक मानव धर्म मान कर निभाते थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत