सनातन शब्द की व्याख्या
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पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय
‘सनातन’ शब्द का अर्थ है ‘सदा एक सा रहने वाला’। इसीलिये ईश्वर को भी ‘सनातन’ कहते हैं। सनातन धर्म का अर्थ है वह धर्म या नियम जो कभी बदलें नहीं, सदा एक से रहे। अथर्ववेद में ‘सनातन’ शब्द का यह अर्थ किया गया है :-
“सनातनमेनमाहुरताद्य स्यात् पुनर्गवः ।
अहो रात्रे प्रजायते अन्यो अन्यस्य रूपयोः ॥”
(अथर्व वेद १०। ८ । २३)
सनातन उसको कहते हैं जो कभी पुराना न हो सदा नया रहे। जैसे रात दिन का चक्र सदा नया रहता है। इसके कुछ उदाहरण लीजिये। जो नियम सदा एक से रहें वे सनातन हैं। जैसे दो और दो चार होते हैं, यह सनातन धर्म है। क्योंकि किसी युग में या किसी देश में यह बदल नहीं सकता। एक त्रिभुज की दो भुजायें मिलकर तीसरी भुजा से बड़ी होती है या एक त्रिभुज के तीनों कोण मिलकर दो समकोणों के बराबर होते हैं, यह सब सनातन धर्म है।
धर्म या नियम दो प्रकार के होते हैं एक सनातन और दूसरे सामयिक ! सनातन बदलता नहीं। सामयिक बदलता है। जैसे जाड़े मे गर्म कपड़ा पहनना चाहिये। या ज्वर आने पर दवा खानी चाहिये। भोजन करना सनातन धर्म है क्योंकि किसी युग में भी बिना भोजन के शरीर की रक्षा नहीं हो सकती। लेकिन दवा खाना सनातन धर्म नहीं। यह तो कभी बीमार होने पर ही काम में आता है।
धर्म के दो रूप होते हैं। एक तो मूल तत्व जो सदा एक से रहते है और दूसरी रस्मो रिवाज (Ceremonials) जो देश और काल के विचार से बदलते रहते हैं। जैसे किस समय कैसे कपड़े पहनना। यह रिवाज के अनुकूल होता है। यह धर्म का मुख्य अंग नहीं है।
बहुत से लोग मौलिक या असली धर्म और रिवाज या सामयिक धर्म को मिला कर गड़बड़ कर देते हैं। इसलिए बहुत सा भ्रम उत्पन्न हो जाता है।
आजकल भारतवर्ष में जिसको सनातन धर्म’ कहते हैं उसमें बहुत से रस्मो रिवाज पीछे से मिल गये हैं। जैसे शुद्ध पानी दूर तक बहते बहते गदला हो जाता है इसी प्रकार सनातन धर्म का हाल है। इसमें कुछ तो भाग सनातन है और कुछ पीछे की मिलावट है। सब को सनातन धर्म कहना भूल है ।
स्वामी दयानन्द ने जिस धर्म का प्रचार किया है वह शुद्ध सनातन वैदिक धर्म है । इस प्रकार आर्य समाज भी सनातन धर्म को मानता है ।उसमें और सनातन कहलाने वालों में कुछ भेद नहीं है। सब सनातन धर्मी वेदों को मानते हैं। आर्य समाजी भी वेदों को मानते हैं। महाभारत, रामायण, मनुस्मृति, गीता आदि शास्त्रों में वेदों की महिमा पाई जाती है। यह पुस्तकें आर्य समाज के भी आदर का पात्र हैं ! इसलिये आर्य समाज और सनातन धर्म के मूल तत्वों में कोई भेद भाव नहीं होना चाहिये। और बुद्धिमान लोग ऐसा ही मानते हैं। कुछ निर्बुद्धि लोग रस्म रिवाज के भेद को बढ़ाकर परम्पर द्वेष फैलाना चाहते हैं। यह ठीक नहीं। धर्म में बहुत सी बातें पीछे से मिला दी गई हैं, उनको छोड़ देना चाहिये। जैसे गंगाजल गंगोत्तरी पर शुद्ध और पवित्र होता है परन्तु हुगली नदी तक पहुँचते पहुँचते गदला हो जाता है। उसको छान कर मिट्टी निकाल देनी चाहिये इसी प्रकार पुराने वैदिक धर्म में जो गड़बड़ पीछे से मिला दी गई है उसको भी आज शुद्ध करने की जरूरत है।
–पं गंगा प्रसाद उपाध्याय