लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए
ज्ञान पूर्वक का अर्थ है कि इसमें किसी प्रकार का अज्ञानान्धकार, पाखण्ड, ढोंग या अंधविश्वास ना हो। हम सारी क्रियाओं का रहस्य समझते हुए उन्हें पूर्ण करें।
‘ओ३म् देव सवित:……’ मंत्र के माध्यम से हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे सर्वान्तर्यामिन परमेश्वर! आप हमारी समस्त त्रुटियों और दोषों को दूर करने वाले हैं। आप दिव्य गुणयुक्त हैं। आपके गुणों का कोई आर-पार नहीं है, आपकी लीला अपरम्पार है, आप हमारे इस यज्ञ को सफल कीजिए। यह तो यज्ञपति आपकी असीम अनुकंपा से रचित इस यज्ञवेदी पर विराजमान है, इसके सुख साधनों को और ऐश्वर्यों को आप बढ़ाइये, आपकी अनंत कृपा की अमृत वर्षा इसके ऊपर होती रहे, ऐसी कृपा इस पर कीजिए। आप इसके मन और बुद्घि को अपनी वेदवाणी से पवित्र कीजिए। आप वाचस्पति अर्थात वाणी के अधिपति हैं-ऐसी वाणी के अधिपति हैं, जिससे सदा अमृत वर्षा होती है, अमृतरस टपकता है, वह अमृत जो संसार के कोलाहल से आहत हर प्राणी को नवजीवन देता है, शांति देता है, प्रसन्नता और आनंद देता है। आप कृपा करके हमारी वाणी को मधुर कीजिए। हमारी वाणी भी आपके वेद की वाणी के अनुकूल अमृतवर्षा करने वाली हो अर्थात उससे सबके कल्याण के वचन निकलें, ऐसे वचन जिनसे सबको सुख शांति मिले।
जलप्रसेचन के पश्चात ‘आघारावाज्य भागाहुति:’ दी जाती हैं। इनमें चार मंत्रों से चार घृताहुति दी जाती है। प्रथम आहुति ओ३म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्नमम्। कहकर दी जाती है, जिसमें कहा जाता है कि वह ईश्वर अग्निस्वरूप प्रकाशरूप है, यह मेरी आहुति उसी अग्निस्वरूप परमेश्वर के लिए है मेरे लिए नहीं। दूसरे मंत्र में अग्नि के स्थान पर ‘सोम’ तीसरे में प्रजापति और चौथे में ‘इंद्र’ के लिए आहुति दी जाती है। सोम का अर्थ प्रभु के शांति स्वरूप से है, दूसरा अर्थ सोमलता से है। प्रजापति का अर्थ प्रजापालक ईश्वर या प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली से है। जैसे ईश्वर प्रजापालक है, प्रजा का हितचिंतक है, वैसे ही प्रजातंत्र भी प्रजाहित चिंतक शासन प्रणाली है, चौथे मंत्र में इंद्र ईश्वर के लिए भी प्रयुक्त किया है, साथ ही प्रजा की सुख समृद्घि ऐश्वर्य की कामना के लिए भी प्रयोग किया गया है। इस प्रकार चारों मंत्रों में लाभकारी हवन की गूढ़ भावना को ही बलवती किया गया है। कितना सुंदर समन्वय है कि हर मंत्र लोक और ईश्वर को एक साथ खड़ा देख रहा है। एक अर्थ लौकिक है तो दूसरा आध्यात्मिक है। यज्ञ इसी लौकिक और अध्यात्मिक समन्वय का नाम है। जब हमारा जीवन भी ऐसा ही बन जाएगा तो हम भी यज्ञरूप हो जाएंगे। या यज्ञ हमारे रोम-रोम में समाहित होकर हमें आनंदित करने लगेगा।
पांच घृताहुति वाले मंत्र की ओर एक बार पुन: चलते हैं। इस मंत्र में हम ईश्वर से कह रहे हैं कि आप हमें ‘प्रजा पशुभिब्र्रहमवर्च सेनान्नाद्येन समेध्य’ अर्थात प्रजा=उत्तम संतान पशु=गाड़ी घोड़़े वाहन, ब्रहमवचर््स अन्नादि और समृद्घि ये पांच चीजें देकर संपन्न रखें। यज्ञ के माध्यम से और यज्ञ को लाभकारी बनाने के उद्देश्य से ये पांच चीजें हम उनसे मांग रहे हैं।
इसके पश्चात दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं, दैनिक यज्ञ के लिए 16 आहुतियों का विधान किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को दैनिक यज्ञ में 16 आहुतियां ही देनी चाहिएं।
इसका कारण है कि हम प्रति मिनट औसतन 16 श्वांस लेते हैं, इस सोलह के गुणाभाग से 24 घंटे में 16 किलो प्राणवायु एक व्यक्ति के लिए चाहिए। यदि हम यज्ञादि नहीं करते हैं तो सृष्टि के पवित्र यज्ञ में सम्मिलित न होकर सृष्टि क्रम को बिगाडऩे में सम्मिलित हो जाते हैं। दैनिक यज्ञ करने का अभिप्राय है कि अपना काम अपने आप करना। हमें जितनी प्राणवायु चाहिए उतनी प्राणवायु के लिए स्वयं यज्ञ करके वांछित प्राणवायु से भी अधिक प्राणवायु तैयार करके ईश्वरीय कार्य में सहायता देना। यह है वास्तविक समाजवाद और यही है वास्तविक मानवता। जहां हर व्यक्ति स्वभावत: प्राणिमात्र की सेवा में लगा है। उससे किसी ने कहा नहीं है, बस अपने आप अपने संस्कारों के वशीभूत होकर यंत्रवत कार्य करता जा रहा है।
इसलिए बिगड़ी हुई प्राणवायु की शुद्घि के लिए संध्याकाल में यज्ञ अवश्य करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि आपके लिए 16 आहुतियां देना ही पर्याप्त है। यदि आपके पास समय है, सामथ्र्य है, साधन है और सबसे बढक़र पूर्ण श्रद्घा है तो आप 16 से अधिक आहुतियां भी दे सकते हैं। आप जितनी भी आहुतियां देंगे वे सभी पुण्यकारी और लाभदायक ही होंगी और हर जीवधारी के लिए कल्याणकारी होंगी। इन आहुतियों से पर्यावरण में सोम और भैषज्य तत्वों की मात्रा बढ़ती है, जिसका लाभ हर प्राणधारी को समान रूप से मिलता है। कहने का अभिप्राय है कि यज्ञादि के करते रहने से प्राणियों को नीरोगता का लाभ मिलता है। भयंकर रोगों की उत्पत्ति नहीं होने पाती है और सर्वत्र स्वच्छता रहने से स्वस्थता में भी वृद्घि होती है। आजकल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस ‘स्वच्छता अभियान’ पर बल दे रहे हैं, वह तभी पूर्ण होगा जब उसके साथ आप ‘यज्ञ’ को जोड़ देंगे। यज्ञ अस्वच्छता को समूल नष्ट करने की सामथ्र्य रखता है। अथर्ववेद (3/11 /1) में आया है-‘मुञ्चामि त्वांहविष जीवनाय कम।’ एक चिकित्सक कह रहा है कि हे रोगी! तुम्हें सुखपूर्वक जीने के लिए होम द्वारा रोग बंधनों से मुक्त करता हूं।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत