हमारे इतिहास की पहचान
किसी कवि ने ईश्वर के विषय में कहा है :-
तू दिल में तो आता है, समझ में नही आता।
मालूम हुआ बस तेरी पहचान यही है।।
….और हम अपने इतिहास के विषय में भी यही समझ सकते हैं। आपको अधिकांश लोग अपने इतिहास के और अपने राजा-महाराजाओं के रोमांचकारी किस्से-कहानी सुनाते मिल जाएंगे, आपसे ये कहते भी मिल जाएंगे कि हमारा इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण रहा है।
पर रहा कैसे है? इस प्रश्न का उत्तर देने में सब शांत हो जाएंगे। हमारा इतिहास भी हमारे दिल में तो आता है समझ में नही आता। …..मालूम हुआ उसकी यही पहचान है।
हमें इतिहास को मन में भी लाना होगा और मस्तिष्क में भी लाना होगा। क्योंकि इतिहास केवल मन का ही विषय नही है यह मस्तिष्क का भी विषय है।
किसी अन्य कवि ने कहा है :-
खुदा का नाम गो अक्सर जुबानों पर है आ जाता।
मगर काम तब चलता जब दिल में है समा जाता।।
इतिहास का सुरीला संगीत
इतिहास को भी उसके यथोचित स्थान पर समाविष्ट करने की आवश्यकता होती है। संसार में अध्यात्म को जैसे लोग हृदयंगम करने का प्रयास करते दिखाई दिया करते हैं, वैसे ही इतिहास को भी पूजनीय, वंदनीय मननीय और नमनीय विषय मानकर हृदयंगम करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि अध्यात्म की पूजा से तो एक ही व्यक्ति का कल्याण होता है, पर इतिहास की पूजा से तो पूरे राष्ट्र का और कभी कभी तो विश्व का भी कल्याण होता है। इसलिए अध्यात्म के संगीत से भी अधिक सुरीला संगीत इतिहास का है।
गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि, जैमिनी, मनु महाराज, याज्ञवल्क्य, महात्मा बुद्घ, महावीर स्वामी से महर्षि दयानंद सरस्वती पर्यन्त हमारे जितने भी आध्यात्मिक शक्ति के प्रचेता राष्ट्र प्रणेता महापुरूष रहे हैं, वह आध्यात्मिक प्रचेता से पूर्व इतिहास का एक सुरीला संगीत हैं। जिन्हें जानबूझकर हमारे इतिहास से निकाल दिया गया है।
स्वीडन की एक राजकुमारी का उदाहरण
कहते हैं कि स्वीडन की एक राजकुमारी एक बार अपनी अनेकों सहेलियों के साथ बड़े सहज भाव से रहा करती थी, उसे राजोचित वैभव से अधिक लगाव नही था। उसे अपने पिता से जितनी संपत्ति मिली उसे उसने निर्धनों और असहायों के कल्याणार्थ व्यय करने का निर्णय लिया।
राजकुमारी ने अपने नगर में एक बहुत बड़ा अस्पताल निर्मित कराया। तब एक दिन वह अपनी अनेकों सहेलियों के साथ उस अस्पताल को देखने के लिए गयी, उसने अनेकों हीरे मोती इस अस्पताल के निर्माण में लगा दिये थे। आज इसे देखकर उसके मन को वैसी ही प्रसन्नता हो रही थी, जैसी एक किसान को अपने खेत में लहलहाती फसल को देखकर हुआ करती है।
अस्पताल में रोगियों ने जब अपने मध्य राजकुमारी को देखा तो उनकी आंखों से आंसू छलछला आये। राजकुमारी ने अपनी सहेलियों की ओर देखा और कहने लगी-”यह देखो मेरे सारे हीरे मोती इन आंसुओं के माध्यम से मुझे पुन: प्राप्त हो रहे हैं। इनका मूल्य उन हीरे मोतियों से भी अधिक है जो मैंने इस अस्पताल के निर्माणार्थ व्यय कर दिये थे।”
क्या हमने कभी सोचा है कि मां भारती के पुत्र भारत राष्ट्र के निर्माण के लिए जितने महायोद्घाओं ने अपने जीवन रूपी हीरे मोती इस राष्ट्र पर न्यौछावर किये उनके जीवन का मूल्य क्या था? उनके लिए हमारे पास कृतज्ञतावश क्या है ….? कुछ भी तो नही।
हमारे इतिहास नायकों के जीवन का मूल्य
हमारे इतिहास नायकों के विषय में कहा जा सकता है कि उनके जीवन कुंदन के समान थे, जिनका मूल्य हमने नही आंका। ”एक वैद्य स्वर्ण भस्म बनाने के लिए सोने को बार-बार अग्नि में डाले जा रहा था। अग्नि ने सोने की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए उससे कहा-कितना निर्मम है यह वैद्य! तुम्हारे जैसी मूल्यवान वस्तु को भी जलाकर राख कर रहा है, इसे तनिक भी दया नही आती।”
सोने ने बड़े सहज भाव से अग्नि को उत्तर दिया-”बहन ! वैद्य मुझे जितनी चोट मार रहा है वह मेरे लिए कष्ट की नही प्रसन्नता की बात है। वह जितना ही मुझे तपाये जा रहा है, उतना ही मैं अपने अंतर्मन में अनुभव करता हूं कि मैं निर्मल हुआ जा रहा हूं। वैद्य की पिटाई से मेरा मूल्य घट नही रहा है अपितु निरंतर मूल्य बढ़ता ही जाता है। मृत्यु तो अवश्यम्भावी है, पर मरकर यदि हम दूसरों के काम आ सकें, लोग और लोक का कल्याण कर सकें। तो ऐसी मृत्यु ही श्रेयस्कर है। इसलिए मुझे वैद्य की पिटाई का कोई दुख नही है।”
दूसरों के कल्याण के लिए जो अपना सर्वस्व त्याग देते हैं वही जीवन उत्कृष्ट बन जाया करते हैं। भारत के दीर्घकालीन स्वातंत्रय समर के अनेकों योद्घाओं ने दूसरों के कल्याणार्थ अपना जीवन होम किया, इसलिए हमारा इतिहास पूजा का एक थाल है, भारत का भाल है, शत्रु का काल है। इसलिए हम कहते हैं कि इतिहास की पूजा करना सीखो। इतिहास तुम्हें उठने का, संभलने का और आगे बढऩे का मार्ग बताएगा।
इतिहास की पूजा से ही महापुरूषों का सम्मान किया जा सकता है।
बल्लू जी चाम्पावत के विषय में
अब हम पुन: एक वीर योद्घा के विषय में चर्चा करना चाहेंगे। हमने पूर्व में अमरसिंह राठौड़ के अध्याय में बल्लू जी चाम्पावत के विषय में लिखा था कि भारत का वह शेर किस प्रकार अमरसिंह राठौड़ के शव को मुगलों के कड़े पहरे में से निकालकर लाने में सफल हुआ था।
बल्लूजी चाम्पावत के विषय में कहा जाता है कि जिस समय अमरसिंह राठौड़ की हत्या आगरा के दुर्ग में की गयी थी उस समय अमरसिंह राठौड़ और बल्लू चाम्पावत के मध्य गंभीर मतभेद थे। परंतु सच्ची वीरता कभी तुच्छता की ओर न तो ध्यान देती है और न तुुच्छता का प्रदर्शन करती है। वह तो सदा उत्कृष्टता में ही विचरण करती है और उसी में आनंदानुभूति करती है। इसलिए सच्ची वीरता में व्यक्तिगत मतभेद बहुत तुच्छ और नगण्य होते हैं।
लोग ऐसे मतभेदों को राष्ट्र और समाज के हितों के समक्ष भूल जाने में तनिक सी भी देरी नही करते हैं। इसीलिए बल्लूसिंह चाम्पावत को जब यह ज्ञात हुआ कि अमरसिंह राठौड़ का शव आगरा दुर्ग में रखा है, और यदि उसे वहां लाया नही गया तो हिंदू समाज को भारी अपयश का सामना करना पड़ेगा। तब इस महान योद्घा ने अपने प्राणों की चिंता किये बिना अमरसिंह का शव लेकर आने का संकल्प लिया।
अमरसिंह के सुख-दुख का साथी था चाम्पावत
बल्लूसिंह चाम्पावत प्रारंभ से ही अमरसिंह राठौड़ का विश्सनीय सहयोगी रहा था। जब अमरसिंह राठौड़ को जोधपुर राज्य का उत्तराधिकारी नही बनाया गया था और अमरसिंह राठौड़ मुगल बादशाह शाहजहां के पास जाकर रहने लगा था, तो उस समय उसके साथ जो मुट्ठी भर हिंदू योद्घा थे, उनमें से एक महायोद्घा बल्लूसिंह चाम्पावत भी था। अमरसिंह को अपने साथी बल्लूसिंह चाम्पावत पर गर्व था और बल्लू को अपने स्वामी अमरसिंह पर गर्व था। मित्रता का आधार वीरता थी और वीरता देश धर्म के प्रति वचनबद्घ थी। इसलिए दोनों का एक सांझा स्वार्थ था-देशभक्ति। इस पर कोई समझौता नही करना है यह उनकी मित्रता का अपनी-अपनी वीरता के प्रति वचन था।
जब अमरसिंह को नागौर की जागीर देकर शाहजहां ने नागौर भेज दिया तो अमरसिंह के साथ नागौर जाकर रहने वाले वीर योद्घाओं में बल्लूसिंह चाम्पावत भी था।
चाम्पावत की स्वाभिमानी जीवनचर्या
‘राजस्थान के शूरमा’ के लेखक तेजसिंह तरूण का कहना है कि-”अमरसिंह ने (नागौर) आते ही अपनी नई जागीर में मीढ़ों को एकत्र करना आरंभ कर दिया, चूंकि उसे मींढ़ों की लड़ाई देखने का बड़ा शौक था। इन मीढ़ों की देख रेख उसके सामंत बारी-बारी से किया करते थे। एक दिन जब बल्लू की बारी आयी तो उसने भरे दरबार में यह कह दिया कि राजपूत का काम मींढों की देखरेख करना नही है, उसका काम रणभूमि में कट मरना है मींढ़ें तो राह के छलावेे हैं। मैं ऐसे राजा के पास नही रहूंगा, जो राजपूतों से मीढ़ों की देखरेख करावे।”
वास्तव में बल्लूसिंह की यह बात सच ही थी, जिसे साहस करके बल्लूसिंह ने कह दिया था। वह जानता था कि सच कहना तो सरल है पर सच को सुनना बड़ा कठिन है। इसलिए उसे यह भी ज्ञात था कि इस बात को सुनकर अमरसिंह राठौड़ पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। परंतु इसके उपरांत उसने अपने मन की बात कह दी। इससे उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह चाम्पावत के स्वाभिमानी व्यक्तित्व का ज्ञान हमें होता है।
बल्लूसिंह चाम्पावत ने उक्त घटना के पश्चात से नागौर को भी त्याग दिया। उसने नागौर से चलकर बीकानेर की ओर कूच किया। जब वह बीकानेर पहुंचा तो वहां के शासक ने उसका भव्य स्वागत सत्कार किया। जिससे वह बड़ा प्रसन्न हुआ। ठाकुर जसवंत सिंह शेखावत का कहना है-”बल्लू बीकानेर में आराम से दिन काट रहा था। बरसात के दिन बीत गये थे खेतों में कामड़ी-मतीरे खूब पके थे, बीकानेर महाराजा के टीकामत एक गोदारा परिवार के खेत से एक बड़ा मतीरा भेंट स्वरूप लाया। महाराजा ने सोचा मारवाड़ से आये सरदार बल्लू को यह मीठा मतीरा क्यों न भेजा जाए। अत: खास व्यक्ति के साथ मतीरा बल्लू के घर भेजा गया।” बल्लू ने पूछा-‘क्या लाये हो?’
महाराज साहब ने आपके लिए मतीरा भेजा है। ‘हूं-मतीरो, राजाजी मने असे रेण नही देणो, इण वास्ते यो फलभेज नेकेवायो के मतीरो (अर्थात मत रहो) महारे तो पागड़े पग लिख्योड़ा है ऐ चाल्या।’
यूं कहकर बल्लू वहां से चल पड़ा। उसे खूब समझाया कि महाराज का यह आशय कतई नही था। उन्होंने तो प्रेम से भेंट स्वरूप भेजा है। पर अंटीला राजपूत चल पड़ा, सो चल पड़ा। पीछे मुडक़र नही देखा, स्वाभिमानी जो था।
बल्लूसिंह चाम्पावत ने राजा द्वारा अपने लिए मतीरा भेजा जाना अपमानजनक समझा। उसे राजा का यह कृत्य उचित नही लगा। इसलिए उसने कह दिया कि राजा संभवत: मुझे यहां रहने देना नही चाहता, इसलिए मैं अब यहां से चल देता हूं। हो सकता है कि बल्लूसिंह ने राजा का अपने प्रति कोई अन्य कृत्य पूर्व में ही ऐसा देख लिया हो जो उसकी गरिमा के अनुकूल ना हो। इसलिए मतीरा को उसने अपने सम्मान के साथ जोड़ लिया। परिणामस्वरूप वहां से भी वह चल पड़ा।
कष्ट उठाते-उठाते चाम्पावत पहुंचा अपने गांव
देशधर्म के दीवाने और राष्ट्रभक्ति की उदात्त भावनाओं के जीते जगाते प्रमाण बल्लूसिंह ने नागौर से बीकानेर आकर शरण ली थी। पर अब उसे बीकानेर में भी नही रूकना था। इसलिए वहां से चलकर बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव हरसोलाव में आकर रूका। उसकी देशभक्ति की कहानियों को अब तक उसके पैत्रक गांव के लोगों ने सुना ही था, पर अब तो वह स्वयं ही लोगों के मध्य आ खड़ा हुआ था। लोगों को अपने गांव की मिट्टी के रजकणों में खेले गये बच्चे को जब एक शूरवीर से नायक के रूप में अपने मध्य खड़ा पाया था तो उन्हें भी असीम प्रसन्नता हुई। लोगों में कौतूहल था, जिज्ञासा थी, प्रसन्नता थी अपने नायक से प्रेरणा पाकर वैसा ही बनने और वैसा ही करने की एक लगन थी।
जब बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव में आया तो उसे यहां भी एक चिंता ने घेर लिया। देशधर्म के दायित्वों का निर्वाह करने वाली विभूतियों को अक्सर अपने घर की चिंता नही रहती है, या इसे इस प्रकार कहिये कि वे अपने घर की ओर ध्यान नही दे पाते हैं। जब ध्यान देते हैं तो अक्सर किसी बड़े दायित्व के निर्वाह के लिए उन्हें अपना कत्र्तव्य स्मरण हो आता है।
पुत्री के विवाह के लिए रख दिया मूंछ का बाल गिरवी
बल्लूसिंह चाम्पावत के साथ भी यही हुआ। अपने गांव हरसोलाव आकर इस शूरवीर ने देखा कि उसकी पुत्री विवाह योग्य हो गयी है। इसलिए उसने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर देने का मन बनाया। परंतु उसके पास विवाह के लिए आवश्यक और अपेक्षित धन की कमी थी। तब उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह ने एक सेठ के यहां अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रखकर उससे अपनी पुत्री के विवाह के लिए अपेक्षित धन प्राप्त किया और पुत्री के विवाह के दायित्व से वह मुक्त हो गया।
पुत्री के विवाह के दायित्व से मुक्त होकर बल्लूसिंह सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा। पर विधि का विधान तो कुछ और रचा-बना पड़ा था, इसलिए हो सकता है कि विधि के विधान ने ही उसे अपनी पुत्री के ऋण से पहले मुक्त कर तत्पश्चात मातृभूमि के ऋण से मुक्त करने का ताना-बाना बुना हो।
चाम्पावत ने मुगल बादशाह की चुनौती स्वीकार की
अमरसिंह राठौड़ के शव को कौन शेर आगरा के किले से उठाकर लाये? यह प्रश्न उस समय हर देशभक्त के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन चुका था। पूरे हिंदू समाज की प्रतिष्ठा को मुगल बादशाह ने एक प्रकार से चुनौती दी थी कि जिसकी मां ने दूध पिलाया हो वह आये और अपने देश-धर्म के रक्षक अमरसिंह राठौड़ के शव को ले जाए। बादशाह की इस चुनौती में अहंकार भी था और हिंदू समाज के प्रति तिरस्कार का भाव भी था।
अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के भीतर रखा था, मुख्य द्वार पर और किले की दीवारों पर सुरक्षा व्यवस्था इतनी कड़ी थी कि दुर्ग में कोई पक्षी भी पर नही मार सकता था। इसलिए हिंदू समाज में अपने शूरवीर के शव को लेकर बड़ी बेचैनी थी, और सभी को यह लग रहा था कि चाहे जो हो जाए-पर मां के स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा हर स्थिति परिस्थिति में होनी चाहिए।
इस स्वाभिमान और सम्मान की सुरक्षार्थ हिंदू ध्वज रक्षकों की खोज का अभियान चल पड़ा। तब उस अभियान के अंतर्गत एक सैनिक अचानक अमरसिंह राठौड़ की पाग लेकर बल्लूसिंह चम्पावत के पास आ धमका।
उसने बल्लूसिंह चम्पावत को यह भी बताया कि अमरसिंह राठौड़ का शव आगरे के दुर्ग में रखा है और उसे लाकर उसका अंतिम संस्कार किया जाना हिंदू समाज के सम्मान और आर्य धर्म की प्रतिष्ठा के दृष्टिगत आवश्यक है।
सैनिक कहे जा रहा था कि इस समय इस कठिन कार्य को सफलतापूर्वक परिणति तक पहुंचाना आप जैसे शूरवीरों का ही काम है। आपके रहते हमें नही लगता कि मां भारती की गोद शूरवीरों से रिक्त है, आप हैं तो मां भी प्रसन्न है और हम भी प्रसन्न हैं, क्योंकि आपके रहन्ते हमें किसी प्रकार की कोई चिंता नही है।
बल्लूजी चाम्पावत ने जैसे ही यह दुखद समाचार सुना तो वह सन्न रह गया। अमरसिंह राठौड़ जैसे शूरवीर योद्घा के समय मुगल बादशाही का ऐसा क्रूरतापूर्ण कृत्य सुनकर चाम्पावत का चेहरा तमतमा गया। उसने आसन्न संकट का सामना करने और मां भारती की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का निश्चय किया।
सैनिक से अमरसिंह राठौड़ का दुखद समाचार पाते ही बल्लू चाम्पावत के हृदय में देशभक्ति और स्वामी भक्ति की सूनामी मचलने लगी, उसकी भुजाएं फडक़ने लगीं, उसे विश्वास नही हो रहा था कि ऐसी घटना और वह भी अमरसिंह राठौड़ के साथ हो सकती है? उसने बिना समय खोये निर्णय लिया, तलवार उठायी और एक योद्घा की भांति मां भारती के ऋण से उऋण होने का संकल्प लेकर चल दिया। पर यह क्या? अभी अमरसिंह ने एक पग ही रखा था कि बाहर से एक सेवक दौड़ा हुआ आया। उसने बल्लू चाम्पावत से कहा कि ”महोदय मेवाड़ के महाराणा ने आपको स्मरण करते हुए एक घोड़ा भेंट स्वरूप आपकी सेवा में भेजा है।”
बल्लू चाम्पावत की आर्थिक स्थिति उस समय अच्छी नही थी। उसने जब यह समाचार सुना कि मेवाड़ के महाराणा ने एक घोड़ा उसके लिए भेजा है तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई, क्योंकि जिस मनोरथ के लिए वह निकल रहा था-उसके लिए घोड़े की नितांत आवश्यकता थी। इसलिए बल्लू चाम्पावत को लगा कि महाराणा के द्वारा भेजे गये घोड़े की शुभसूचना उसी समय मिलना जब इसकी आवश्यकता थी-निश्चय ही एक शुभ संयोग है। उसने अपने लक्ष्य की साधना के लिए मेवाड़ी घोड़े का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया। उसके मेवाड़ से आये व्यक्ति को ससम्मान अपने प्रयोजन की जानकारी देकर बताया कि महाराणा जी से हमारा प्रणाम बोलना और उन्हें हमारी विवशता की जानकारी देकर यह भी बता देना कि बल्लू चाम्पावत यदि अपनी लक्ष्य साधना में सफल होकर जीवित लौट आया तो आपके चरणों में उपस्थित होकर अवश्य ही भेंट करेगा और यदि नही लौट सका तो भी संकट के समय अवश्य ही उपस्थित होऊंगा।
चल दिया महान लक्ष्य की ओर
अब बल्लू चाम्पावत की दृष्टि में केवल आगरा दुर्ग चढ़ चुका था, उसे एक पल भी कहीं व्यर्थ रूकना एक युग के समान लग रहा था। इसलिए बिना समय गंवाये वह आगरा की ओर चल दिया। उसके कई साथी उसके साथ थे। घोड़ों की टाप से जंगल का एकांत गूंजता था। मानो भारत के शेर दहाड़ते हुए शत्रु संहार के लिए सन्नद्घ होकर चढ़े चले जा रहे थे। शत्रु निश्चिंत था। उसे नही लग रहा था कि कोई ‘माई का लाल’ अमरसिंह राठौड़ के शव को उठाकर ले जाने में सफल भी हो सकता है? यद्यपि बादशाह के सैनिक अमरसिंह राठौड़ के शव की पूरी सुरक्षा कर रहे थे और अपने दायित्व का निर्वाह पूर्णनिष्ठा के साथ कर रहे थे। फिर भी उनमें निश्चिंतता का भाव था, उनके भीतर यह भावना थी कि किले के भीतर आकर शव को उठाने का साहस किसी का नही हो सकता। बस, यह सोचना ही उनकी दुर्बलता थी और उनकी सुरक्षा व्यवस्था का सबसे दुर्बल पक्ष भी यही था।
अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के बीचों-बीच रखा था। उधर बल्लूजी चाम्पावत तीव्र वेग के साथ किले की ओर भागा आ रहा था। उसके दल के घोड़ों के वेग के सामने आज वायु का वेग भी लज्जित हो रहा था। हवा आज उसका साथ दे रही थी और बड़े सम्मान के साथ उसे मार्ग देती जा रही थी।
तोड़ दिया चुनौती के झंझावात को
अचानक मुगल सैनिकों को लगा कि एक तीव्र वायु का झोंका उनके दुर्ग के द्वारों को धक्का देकर भीतर प्रवेश कर गया है। इससे पूर्व कि वह उस वायु के वेग को समझ पाते कि यह कोई हवा ना होकर मां भारती का सच्चा सपूत बल्लूसिंह चाम्पावत है, बल्लू अपने स्वामी के शव के पास मुगल सैनिकों को चकमा देकर दुर्ग में प्रवेश कर चुका था। मुगल सैनिक दुर्ग में उसके प्रवेश की कहानी को समझ नही पाये और इससे पहले कि वह उसे शव के पास घेर पाते भारत का यह शेर अपने स्वामी को एक झटके के साथ उठाकर अपने घोड़े सहित दुर्ग की दीवार की ओर लपका। मुगल सैनिकों ने दुर्ग के द्वार की ओर मोर्चा लेना चाहा, पर बल्लू दुर्ग के द्वार की ओर न बढक़र किले की दीवार पर घोड़े सहित जा चढ़ा। वहां से उसने घोड़े को नीचे छलांग लगवा दी और अपने साथियों सहित शव को नागौर लाने में सफल रहा।
इस कहानी को कुछ लोगों ने इस प्रकार भी कहा है कि राठौड़ के शव को तो बल्लू ने अपने सैनिकों को दे दिया और उन्हें वहां से बाहर भी निकाल दिया, पर वह स्वयं किले के भीतर ही युद्घ करते-करते बलिदान हो गया। कहा जाता है कि उसने महाराणा राजसिंह को जो वचन दिया था कि वह संकट के समय उनका साथ देगा, उसका निर्वाह उसने महाराणा और मुगलों के एक युद्घ में किया और वहां दुबारा उसने प्राणोत्सर्ग किया।
यह अवैज्ञानिक कथानक है। बहुत संभव है कि वह राठौड़ के शव के साथ स्वयं भी सुरक्षित नागौर पहुंचा और जब समय आया तो राणा राजसिंह का भी सहयोग किया। महाराणा ने ही उसका अंतिम संस्कार कराया। उसकी वीरता और देशभक्ति की भावना का सम्मान करते हुए उसकी मृत्यु के बहुत समय पश्चात तक भी मेवाड़ के महाराणा शासक पीढिय़ों तक उसकी समाधि पर पुष्प चढ़ाते रहे और शीश झुकाते रहे।
क्रमश: