भारत के राजस्थान की भूमि वीरों की भूमि होने के साथ-साथ ऋषियों की भी पवित्र भूमि रही है। विभिन्न कालखंडों में विभिन्न ऋषियों ने यहां घोर तपस्या करके इस पवित्र भूमि को धन्य किया है और अपने जीवन के आलोक से समस्त संसार को आलोकित किया है। ऋषियों और वीरों की इस पवित्र भूमि के भीनमाल नामक शहर में एक ऋषि वैज्ञानिक हुए जिनका नाम ब्रह्मगुप्त था। इनके बारे में पता चलता है कि उनका जन्म 598 ई0 में हुआ था।
भारत के प्राचीन ऋषियों के खगोल विद्या संबंधी ज्ञान को और भी आगे तक बढ़ाने में ब्रह्मगुप्त का विशेष योगदान रहा। उन्होंने अपने जीवन को खगोल विद्या के क्षेत्र में अनेक प्रकार के अनुसंधान करने के लिए व्यतीत किया। 665 ( कहीं-कहीं पर यह 680 ई0 भी मानी जाती है) ईस्वी में जब इनका देहांत हुआ तो उस समय इस्लाम का प्रादुर्भाव हो चुका था। भारत के वैदिक सिद्धांतों की उस समय संसार के अन्य क्षेत्रों में बड़ी उपेक्षा हो रही थी। उसी का परिणाम था कि संसार मत , पंथों, सांप्रदायिक झगड़ों और व्यर्थ के युद्धों में भटका हुआ था, परंतु इसके उपरांत भी भारत अपनी ज्ञान की आभा में लीन था और उस समय भी जब संसार उपद्रव और उत्पात के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रहा था, भारत ‘ब्रह्मगुप्तों’ का निर्माण कर रहा था।
उस समय के संसार के लोगों ने हमारे ब्रह्मगुप्त जैसे महान खगोलविद से बहुत कुछ सीखा। माना यह भी जाता है कि कुस्तुनतुनिया वासी और इस्लामिक लोगों पर भी उनकी खगोल विद्या का स्पष्ट प्रभाव पड़ा। उन्होंने आर्यभट्ट जैसे महान वैज्ञानिक की कई वैज्ञानिक बातों पर भी विपरीत विचार रखे। उनके इस प्रकार के विचारों को आर्यभट्ट के प्रति उनकी आलोचना के रूप में देखा जाता है। यद्यपि भारत में अपनी मतभिन्नता को व्यक्त करने का मौलिक अधिकार व्यक्ति को सृष्टि प्रारंभ से रहा है। यही कारण है कि यहां पर सामान्यतया उसी मत को लोकमत की अभिस्वीकृति प्राप्त होती है जो विज्ञान के नियमों के अनुकूल होता है। फलस्वरूप जहां-जहां ब्रह्मगुप्त आर्यभट्ट से असहमत थे परंतु आर्यभट्ट के सिद्धांत वैज्ञानिक थे, वहां यहां के लोगों ने आर्यभट्ट को सही मानते हुए उन्हें लोकमत की अभिस्वीकृति प्रदान की और ब्रह्मगुप्त को पीछे हटा दिया।
भारत की लोकनीति और लोकरीति के इस सिद्धांत को स्वीकार करते हुए हमें भी यही सोचना चाहिए कि हम ब्रह्मगुप्त को केवल इसलिए ना नकार दें कि उन्होंने आर्यभट्ट की वैज्ञानिक सोच की आलोचना की थी। इसके विपरीत हम उनके उन महान कार्य पर चिंतन करें जिनके कारण हमें संसार में उस समय सम्मान प्राप्त हुआ। ज्ञात रहे कि ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट के पृथ्वी को घूमते हुए एक गोले के रूप में देखने की अवधारणा को नकार दिया था।
ब्रह्म गुप्त की सोच को, सराहें हम दिन रात।
सार तत्व को ग्रहण कर , लिए रहें निज हाथ।।
ब्रह्मगुप्त की “ब्रह्म स्फुट सिद्धान्त” नामक पुस्तक को उस समय विश्वव्यापी लोकप्रियता को प्राप्त हुई थी । यही कारण था कि उनके इस ग्रंथ का 771 ई0 में अरबी में भी अनुवाद किया गया था। इस प्रकार के अनुवाद ने इस्लामिक गणित को भारतीय सिद्धांतों से पूर्णतया ओतप्रोत कर दिया था। ब्रह्मगुप्त ने अपने इस महान ग्रंथ का निर्माण 628 ईसवी में किया था। जिसे उन्होंने गुर्जर प्रतिहार वंश की राजधानी भीनमाल में रहकर तैयार किया था।
हमारे देश में यह पुरानी परंपरा रही है कि सैद्धांतिक दृष्टिकोण से लिखी गई पुस्तकों को उनके नए संस्करण के रूप में आगे आने वाली पीढ़ियों के महान लोगों के द्वारा भी फिर से लिखा गया। चरक संहिता ,सुश्रुत संहिता जैसी कई संहिताएं इसी प्रकार का उदाहरण हैं। जहां तक ब्रह्म सिद्धांत की बात है तो इस पर भी पहले से भारतवर्ष में कई सिद्धान्त ग्रंथ उपलब्ध थे। ब्रह्मगुप्त ने अपने समय में पुराने पड़ गए सिद्धांतों को अलग हटाकर नए ढंग से “ब्रह्मस्फुट सिद्धांत” लिखा।‘स्फुट’ शब्द का अर्थ है—फैलाया हुआ या संशोधित। देश- काल- परिस्थिति के अनुसार यदि कोई बात असत्य सिद्ध हो गई थी या उसके सिद्धांत में कोई नूतनता आ जाने से उसमें सुधार की कोई और सम्भावना हो सकती थी तो इसके लिए हमारे ऋषियों को नवीन ग्रंथ तैयार करने की पूर्ण छूट होती थी। यही कारण रहा कि ब्रह्मगुप्त के इस ग्रंथ को विद्वानों ने भी प्रशंसित किया। गणित के क्षेत्र में उन्होंने आधुनिक अंकगणित और बीजगणित की नींव रखी।
अंकगणित की नींव रख, दिया नया विचार।
बीजगणित का आधार दे, किया बड़ा उपकार।।
ब्रह्मगुप्त संसार के ऐसे पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने कहा कि किसी संख्या में शून्य जोड़ने या घटाने से वह संख्या नहीं बदलती है। किसी संख्या को शून्य से गुणा करने या उसमें भाग देने से वह शून्य हो जाती है। उनके इस सिद्धांत ने गणितज्ञों को बहुत लाभ पहुंचाया। ब्रह्मगुप्त ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी वैज्ञानिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए सबसे पहले कुक्कुट गणित के रूप में बीजगणित का प्रयोग किया। गणित के क्षेत्र में या कहिए कि गणितज्ञों के संसार में उनके कुक्कुट गणित ने भी नई संभावनाओं और आविष्कारों को जन्म दिया।‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ के टीकाकार पृथूदक स्वामी (860 ई.) उनकी मृत्यु के लगभग 200 वर्ष पश्चात कुक्कुट गणित के लिए ‘बीजगणित’ शब्द का प्रयोग किया था।
उन्होंने अपनी दूसरी रचना ‘खंड खाद्यक’ लिखी थी। उसमें भी उन्होंने अपनी महान मेधा शक्ति का परिचय दिया है। उन्होंने अपनी यह पुस्तक 67 वर्ष की अवस्था में तैयार की थी। इस पुस्तक में कुल आठ अध्याय हैं। जिसमें उन्होंने पंचांग बनाने की विधि विस्तार से बतलाई है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि उन पर हिंदू समाज की रूढ़िवादिता का प्रभाव पड़ा। यही कारण रहा कि उन्होंने भारत के वैज्ञानिक सिद्धांत को नकारते हुए सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को राहु केतु वाली कहानी से जोड़कर देखा। इसके अतिरिक्त उन्होंने धरती को घूमती हुई देखने से भी इंकार कर दिया, इसके विपरीत उन्होंने कहा कि धरती अपने आप में स्थिर है।
इस सबके उपरांत भी हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि आज का पश्चिम का वैज्ञानिक अथवा गणितज्ञ भी यह मानने लगा है कि वर्तमान बीजगणित भारत की देन है। जिसका कुक्कुट गणित के रूप में ब्रह्मगुप्त ने आविष्कार किया था।
कुल मिलाकर भारत की ज्ञान संपदा को वैश्विक ज्ञान संपदा और वैश्विक धरोहर बनाने की दिशा में जिन महान ऋषियों ने भारत में जन्म लेकर महान कार्य संपादित किए हैं उनमें ब्रह्मगुप्त का नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखे जाने योग्य है। उन्होंने अपनी मेधा शक्ति का परिचय देकर संसार का उपकार किया। गणित के क्षेत्र में उनके द्वारा बनाए गए नियम आज तक संसार के गणितज्ञों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। वह भारत की एक महान विरासत हैं। जिस पर आने वाली पीढ़ियां नाज करती रहेंगी।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत