अमरता की ओर बढ़े नेता **
भारतवर्ष में चरित्र निर्माण की एक लंबी परंपरा रही है। चरित्र के आधार पर सामान्य से भी सामान्य व्यक्ति ने भगवान का दर्जा प्राप्त किया है। असल में व्यक्ति का चरित्र सोंपे गए कठिन से कठिन कार्य को सफलतापूर्वक पूरा करने में सहायक होता है । वेदों में भी कहा गया है कि धन गया तो कुछ भी नहीं गया। शरीर का कोई अंग गया को थोड़ा बहुत गया। किन्तु चरित्र गया तो सब कुछ चला गया। इस प्रकार चरित्र व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के गुणों का ‘वर्ण- पत्र’ माना जाता है । विष्णुगुप्त जो आचार्य चाणक्य के नाम से अमर है, ने अमरता की ओर जाने के लिए लिखा है कि “अधित्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तम:।” अर्थात चरित्रवान व्यक्ति कार्य करने अथवा मुंह खोलने के पहले उसके वांछनीय प्रभाव, मूल्य और विशेषता तथा प्रतिक्रिया के परिणामों की जांच परख कर लेता है । सार्वजनिक जीवन में कर्म और वाचा से उत्पन्न उचित -अनुचित के प्रभाव का विश्लेषण करना चाहिए। ऐसे देव दुर्लभ गुण उसी राजा, व्यक्ति, नेता अथवा संत में होता है जो केवल उच्चतम स्तर के पालन पोषण की क्षमता रखने वाले ग्रंथों का स्वाध्यायी हो।
दुर्भाग्य से कलयुग में हमारे भारतवर्ष में आजादी के पहले और बाद में भी अनगिनत नेता हुए, पर अमर नहीं हो पाए ! इतिहास में दर्ज राजा और संत श्रेणियों का अध्ययन करें तो पाते हैं कि राजाओं में केवल अयोध्या के राजा राम और संतों में संत कबीर निर्विवाद रूप से अजर अमर है। भारतीय मुद्रा पर ‘गांधी’ तथा पाकिस्तान की मुद्रा पर ‘जिन्हा’ का फोटो जरूर है लेकिन इनकी जनमानस और सर्व समाज में निर्विवाद स्वीकार्यता नहीं है ? मीडिया जगत द्वारा भारत के राष्ट्रपिता गांधी तथा पाकिस्तान के कायदे आजम के ‘आभामंडल’ की जिस प्रकार की चर्चा और प्रमाण प्रस्तुत किए जा रहे हैं, उसे देख- सुन कर लगता है कि कहीं रूस में लेनिन की समाधि की तरह इनकी समाधि का भी हश्र न हो जाए !! पाकिस्तान का निर्माण जीन्हा के जिस चाल चरित्र पर हुआ, आज पाकिस्तान की आवाम भुगत रही है!!
भारतवर्ष में कहलाने को तो प्रजातंत्र है। संविधान है, कानून है। चुनाव होता है, नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करता हैं। जनता के नुमाइंदे व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के रूप में कार्य करते हैं। न्यायपालिका न्याय देती है और न्याय मान्य होता है। पंचायती राज की अवधारणा को साकार रूप देते हुए जिला पंचायत, जनपद पंचायत तथा नगर निगम- पालिका का गठन भी होता है। ऊपरी तौर पर सब कुछ ठीक-ठाक दिखाई देता है लेकिन सोचनीय विषय बना हुआ है कि प्रजातंत्र के नुमाइंदे और राजनीतिक दल के नेताओं की करनी और कथनी में जमीन आसमान का अंतर क्यों देखा परखा व समझा जाता है ? हमारे देश का हर दूसरा राजनीतिक दल दलदल में फंसा हुआ है। विशेषकर चाल चरित्र और एक दूजे के लिए भाषा के संबोधन के मामले में !!
चुनाव आयोग के मानदंड के अनुसार 8 राष्ट्रीय , 54 क्षेत्रीय एवं 2769 गैर मान्यता प्राप्त दल है। इन सबके अपने-अपने नेता, उप नेता, महामंत्री और अन्य पदाधिकारियों की संख्या लाखों में होती है अर्थात भारत की कुल जनसंख्या का 1% नागरिक नेता है। इन लाखों नेताओं में बिरला एक या दो ‘मोदी’ की तरह अमरता की ओर कदम बढ़ा रहे है। हाथ के आरसी कंगन क्या? अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर और उज्जैन में महाकाल लोक बनवा दिया। वहीं राहुल गांधी बिना कोई पद के 8 साल से चौकीदार चोर, नोटबंदी और अडानी का राग अलापते अलापते राज्यों में कांग्रेस की सरकारों को डुबो दिया?
राष्ट्रपति चुनाव के समय तेजस्वी यादव ने महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती मुर्मू के बारे में ऐसे बोल बोले, मानों काटे तो खून नहीं निकले। उन्होंने विपक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करते हुए बड़ा शर्मनाक बयान दिया था – “राष्ट्रपति भवन में हमें कोई मूर्ति तो नहीं चाहिए।” यह शब्द उस तेजस्वी यादव के थे जिन्होने अपनी अनपढ़ माता और जेल भुगत रहे पिता की योग्यता का ख्याल नहीं आया और उस व्यक्ति के समर्थन में बोले जिसने कभी लालू यादव के बारे में कहा था- “लालू जी एक चल चुके कारतूस हैं और अपनी विस्फोटक क्षमता खो चुके हैं ।” राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ते समय यशवंत सिन्हा ने संविधान की मूल आत्मा, संवैधानिक ढांचे और राजनीतिक मर्यादा को तार-तार कर रख दिया था। लोकतंत्र के स्वयंभू रक्षक तथा प्रधानमंत्री पद के जन्मजात दावेदार सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, चंद्रशेखर राव, एम के स्टालिन, भूपेंद्र बघेल, अशोक गहलोत, सीताराम येचुरी, सेंथिल कुमार, देवराजन, पीनारायी विजयन, एच डी कुमार स्वामी, सिद्धरमैया और शिव कुमार समेत सभी नेताओं की वाणी संविधान निर्मित सर्वोच्च संस्थाओं और उनके मुख्याओं के प्रति अच्छी नहीं है। अच्छी नहीं है यहां तक तो ठीक है, लेकिन शब्दों का प्रयोग इतने नीचे स्तर का होता है कि सच्चे हिंदुस्तानी के दिल में चुभ जाए। राजनीतिक आकाओं से सौ गुना ज्यादा नीचे स्तर की शब्दावली उनके प्रवक्ता की होती है!!
यदि किसी नेता को इतिहास में अच्छे व आदर्श नेता के रूप में दर्ज होना है तो दलदल राजनीति से ऊपर उठकर नेताओं और प्रवक्ताओं को अपने प्रतिद्वंदी के लिए आदर्श शब्दों और संविधान सम्मत वाणी का प्रयोग करते हुए भाषा की मर्यादा का पूर्ण ध्यान करना चाहिए।
चुनाव आते जाते हैं। दलों की सरकारें भी बनती और गिरती रहती है। समय भी गुजरता जाता है । लेकिन अजर अमर रहते हैं वह पुरुष जो आदर्श सामाजिक और राजनीतिक जीवन जीते हैं । उनकी वाणी में अमृत बरसता है। जिनकी कर्म भूमि समूचे राष्ट्र का विकास होता है। जिनका व्यक्तिगत, कृतित्व और सामाजिक चरित्र धवल और निर्मल होता है। अमरता की ओर बढ़ने के लिए नेताओं की खिदमत में चाणक्य का सूत्र प्रेषित है:-
सौजन्यं यदि किं गुणै:सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनै:।
सद्धिद्या यदि किं धनैपरयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।
डॉ बालाराम परमार ‘हॅंसमुख’