जलता हुआ प्रश्न एक ही, दिल्ली किसको बोल रही?
रक्त चूसते भ्रष्टाचारी उनका घूंघट खोल रही।
सपनों का महल जलाना राजनीति का व्यवसाय बना,
कब तक इनसे जूझूंगी मैं? दिल्ली की माटी बोल रही।
वास्तव में दिल्ली आज अपने आप पर लज्जित है। सवा दो वर्ष पूर्व दिल्ली ने जिन अपेक्षाओं के साथ अपनी शासन सत्ता आम आदमी पार्टी के केजरीवाल को दी थी, उन अपेक्षाओं पर केजरीवाल खरे नहीं उतरे। दिल्ली को अपेक्षा थी कि ‘आप’ भाजपा और कांग्रेस का सर्वोत्तम विकल्प हो सकती है और वह इस प्रदेश की जनसमस्याओं को यथाशीघ्र हल करने में समर्थ होगी। परंतु देखा गया कि आप के मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्य शीघ्र ही हत्या, मारपीट, बलात्कार और भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर गये। अंतिम आशा के रूप में बचे केजरीवाल को भी अब उन्हीं के विश्वसनीय रहे ‘आप’ नेता और केजरीवाल मंत्रिमंडल के एक मंत्री कपिल मिश्रा ने दो करोड़ रूपया सत्येन्द्र जैन से लेने का आरोप लगाकर कठघरे में ला खड़ा किया है। इस पर ‘आप’ को चाहे लज्जा अनुभव हुई हो या नहीं पर ‘आप’ के अनेकों पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भारी लज्जा और पीड़ा की अनुभूति हुई है।
आज केजरीवाल की कलंक कथा और कपिल के आरोप चर्चा का विषय हैं। केजरीवाल मौन हैं। हो सकता है कि वह सोच रहे हैं कि धीरे-धीरे सब शांत हो जाएगा। हम भी मानते हैं कि सब धीरे-धीरे शांत हो जाएगा, पर सत्यनिष्ठा पर जो प्रश्नचिन्ह एक बार लग जाता है वह तो चरित्र पर लगे एक दाग की भांति होता है, जिसे धोने वाली कोई साबुन आज तक नही बनी है। समाचार पत्रों को चार दिन बाद हो सकता है कि लिखने पढऩे के लिए फिर कोई ‘केजरीवाल ‘ का ‘पिता’ मिल जाए या और कोई ऐसा धमाका हो जाए कि सारी मीडिया आप की सडांध मारती लाश को छोडक़र उधर को भाग ले पर दिल्ली की जनता के हृदय में तो इतनी देर में गांठ लग चुकी होगी, जिसे खोलना अब केजरीवाल के वश की बात नहीं होगी। यह जनता है जो सब जानती है-यह भूलती नही है-अपितु हृदय में लगे एक एक शूल को उठा उठाकर सुरक्षित रखती जाती है। समय आने पर सबका हिसाब किताब गिन गिनकर पूरा कर देती है। अत: केजरीवाल ध्यान रखें कि पर्दे के पीछे के उनके कुकृत्यों को जनता अपने पर्दे (हृदय) के पीछे ले गयी है और अब पर्दे का हिसाब ‘पर्दे’ में ही होगा।…..राज को राज रहने दो।
दिल्ली ने पिछले 800 वर्षों से एक से बढक़र एक भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, बलात्कारी और अनाचारी शासक का हिसाब किया है। पृथ्वीराज चौहान से राज्य छीनने वाले गौरी और उसके गुलामवंश को इसने एक दिन धूल चटा दी थी तो उस वंश की कब्र पर उपजने वाली सल्तनत को भी इसने एक दिन कब्र में ही दफन कर दिया था। इतना ही नहीं दिल्ली सल्तनत की कब्र में झाड़ झंखाड़ के रूप में उपजने वाले मुगलवंश को भी इसने ‘पराभव’ और पतन के गर्त में धकेलकर दम लिया था। फिर समय आया अंग्रेजों का उनका तो गर्व दिल्ली ने मात्र 35 वर्ष में ही (1912 से 1947 तक) भूमिसात कर दिया था। जो अंग्रेज यह कहते थे कि उनके राज्य में सूर्यास्त नही होता, उन्हें दिल्ली ने 35 वर्ष में ही अस्ताचल के अंक में धकेल दिया था-ऐसे में केजरीवाल किस खेत की मूली हो सकते हैं? इन्हें तो इनकी औकात दिल्ली ने मात्र दो वर्ष में ही एमसीडी के चुनावों में बता दी है।
जब शासक शोषक बन जाता है और राजधर्म को भूलकर ‘खाजधर्म’ (खुजली में खुजाने से बड़ा अच्छा लगता है, व्यक्ति अपना ही रक्त निकाल लेता है, पर खुजाता रहता है, वैसे ही राजनीति में जब लोग अपने ही देश के खून को चूसने वाले बन जाएं तो उनका यह कार्य ही खाजधर्म बन जाता है) में लग जाता है तो उसका पतन एक दिन होता ही है। राजनीति का यह अकाट्य सत्य हर ‘नेहरू’ पर और हर ‘मोदी’ पर समान रूप से लागू होता है। राजनीति उसी की चेरी होती है जो राजधर्म का पालन करता है। अन्यथा जब इतिहास के कक्ष में जाकर राजनीतिक का शवोच्छेदन किया जाता है तो राजनीति वही बोलती है जो राजधर्म उससे उस समय उगलवाता है। अत: राजनीति को चाहे लोग जुमलों से या नौटंकी से या पप्पूपन से कितना ही भ्रमित करने का प्रयास कर लें-उसकी वास्तविक समीक्षा तो इतिहास के न्यायालय में ही जाकर होनी होती है।
भ्रष्टाचार के विरूद्घ लडक़र भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति सपना दिखाने वाले केजरीवाल ने यदि राजनीति को भ्रष्टाचार की दलदल में उतारकर दिल्ली को अपमानित किया है तो मानना पड़ेगा कि इतिहास के न्यायालय में उन पर सुनवाई आरंभ हो चुकी है। सपना बेचना राजनीति में अपराध नहीं है, अपितु सपनों को तोडऩा अपराध है। सपनेे आप बेचें और खूब बेचें। लोगों से खूब कहें कि हम पानी नि:शुल्क देंगे, बिजली नि:शुल्क देंगे, अपराधविहीन समाज देंगे, नारी सम्मान को स्थापित करेंगे इत्यादि। पर ये सपने यथार्थ के धरातल पर तैरने भी चाहिए। लोगों को दिखना भी चाहिए कि मेरी आंखों के सामने सपने धरती पर उतर रहे हैं और साकार हो रहे हैं।
केजरीवाल जी! आपने अन्ना हजारे के मंच से सपनों की चोरी की थी और उन चोरी किये गये सपनों को आपने दिल्ली की जनता को बेचना आरंभ कर दिया था। पर चोरी का माल था ना इसलिए मोरी में चला गया। कहने का अभिप्राय है कि राजनीति में ‘विजन’ अपना होना चाहिए उसे चुराओ मत। अपने ‘विजन’ को आप लागू कर सकते हैं, क्योंकि उसकी ताली आपके पास होती है। दूसरे के विजन की ताली आपके पास नही होती इसलिए आप उसे लागू नहीं कर सकते। आपका ‘विजन’ अन्ना का विजन सिद्घ हो गया है जिसके बल पर आप दिल्ली की जनता का मूर्ख बना रहे थे। आपका अपना ‘विजन’ तो हत्या, मारपीट बलात्कार और भ्रष्टाचार का था। आज जब ये सब दिल्ली की जनता के सामने एक सड़ी लाश के रूप में पड़ा है तो उस पर दिल्ली पाश्चाताप भी कर रही है और अपने निर्णय पर उसे लज्जा भी आ रही है। आपने दिल्ली के साथ अच्छा नही किया।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।