बिखरे मोती-भाग 185
तत्वज्ञान प्राप्ति के लिए आत्मज्ञानी व्यक्ति बाधा आने पर भी विचलित नही होता है क्योंकि उसके अंदर स्थैर्य का विशिष्ट गुण होता है। वह थर्मोस्टेट की तरह होता है, थर्मोस्टेट से अभिप्राय है कि कमरे में लगे हुए ए.सी. के तापमान को स्थिर रखने वाला यंत्र। इस यंत्र की यह विशेषता है कि कमरे के तापमान को एक निश्चित सूचकांक पर स्थिर रखता है। सहसा कोई खिडक़ी अथवा दरवाजा बंद होने के बाद कमरे के तापमान को पूर्ववत कर देता है। ठीक इसी प्रकार हमारे अंत:करण की अवस्था है। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब हमारे मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार विकृत हो जाते हैं। विषयों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) की काली-पीली आंधियां चलती हैं।
तूफान अथवा बवण्डर चलते हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी जो अपना धैर्य नहीं खोता अर्थात अपने लक्ष्य से विचलित नही होता, मन की शांति नहीं खोता, समझो उसके मन का ‘थर्मोस्टेट’ ठीक काम कर रहा है, यानि कि उसका स्थैर्य अक्षुण्ण है। यह स्थैर्य नाम का गुण साधक को पतन के गहृवर में गिरने से बचाता है, उसका पदस्खलन नही होने देता है, साधक के मन को डांवाडोल नहीं होने देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो स्थैर्य नाम का गुण साधक के मन, बुद्घि, चित्त अहंकार का तापमान स्थिर रखता है अर्थात इनकी पवित्रता को कायम रखता है। अत: अपने चित्त, मन बुद्घि और अहंकार के तापमान को सर्वदा नियंत्रण में रखिये, इनका क्षण-प्रतिक्षण निरीक्षण करते रहिए अर्थात इन्हें परिष्कृत करते रहें, चित्त को डांवाडोल पल भर के लिए भी न होने दें। इसके लिए सीधा और सरल उपाय है कि सर्वदा अपनी आत्मा की आवाज सुनें और उसका जीवन में अनुकरण करें।
याद रखो, जिस प्रकार कुतुबनुमा जलयान को सही दिशा का बोध कराती है, बड़े-बड़े तूफान और झंझावातों में भी जलयान को भटकने नहीं देती है, उसे उसके सही गंतव्य तक पहुंचाती है, ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मा की आवाज हमारे जीवन को सही दिशा देती है, मार्गदर्शन करती है। माना कि माता-पिता, भाई-बहन, जाति-कुल खानदान इत्यादि का चयन करना तुम्हारे वश में नहीं है-किंतु अच्छे मित्रों का अथवा अच्छी संगति का, अच्छी पुस्तकों का शुभ संकल्पों अथवा अच्छे विचारों का, अच्छे अवसरों का अर्थ शुद्घि, भावशुद्घि अर्थात अंत:करण शुद्घि का, दिव्य गुणों में अभिवृद्घि का चयन करना तो आप के वश में है। इसके अतिरिक्त मन के विकारों का शमन और आत्म परिष्कार अथवा आत्मनिग्रह करना तो आपके वश में है। अत: अपने चित्त की चंचलता को लगाम दें। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को नियंत्रण में रखें-ताकि आपके चित्त में व्यग्रता और उग्रता की तपिश (तीनों प्रकार के ताप) बढऩे न पाये। यह तभी संभव है जब आप मन के थर्मोस्टेट अर्थात मन के स्थैर्य नामक अदभुत गुण अथवा दिव्य दौलत को सर्वदा अक्षुण्ण रखेंगे। संसार में जितने भी महापुरूष हुए हैं, उनके जीवन को वंदनीय, अभिनंदनीय और अनुकरणीय बनाने में स्थैर्य नामक गुण की भूमिका श्लाघनीय है और अत्यंत महत्वपूर्ण है। अत: कुछ बनना चाहते हो तो स्थैर्य नामक गुण से सर्वदा सज्जित रहिए और आगे बढिय़े। मंजिल आपके स्वागत की प्रतीक्षा में है।
क्रमश: