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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

अपनी बौद्घिक क्षमताओं से छत्रसाल निरंतर आगे बढ़ता रहा

हिन्दुत्व का अर्थ….
हिंदुत्व का अर्थ स्पष्ट करते हुए वेबस्टर के अंग्रेजी भाषा के तृतीय अंतर्राष्ट्रीय शब्दकोष में कहा गया है-”यह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास और दृष्टिकोण का जटिल मिश्रण है। यह भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुआ। यह जातीयता पर आधारित मानवता पर विश्वास करता है। यह एक विचार है, जो कि हर प्रकार के विश्वास पर विश्वास करता है तथा धर्म, कर्म, अहिंसा, संस्कार व मोक्ष को मानता है और उनका पालन करता है। यह ज्ञान का मार्ग है, स्नेह का मार्ग है जो पुनर्जन्म पर विश्वास करता है। यह एक जीवन पद्घति है जो हिंदू की विचारधारा है।”
अंग्रेजी लेखक केरी ब्राउन  अपनी पुस्तक ‘द इसेंशियल टीचिंग्स ऑफ हिन्दूइज्म’ में लिखता है :-”आज हम जिस संस्कृति को हिंदू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्घांत है जिस मजहब को पश्चिम के लोग समझते हैं, कोई किसी भगवान में विश्वास करे या किसी ईश्वर में विश्वास नही करे फिर भी वह हिंदू है। यह एक जीवन पद्घति है।”
हिंदुत्व की इस जीवन पद्घति को राष्ट्रीय संदर्भों या राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हमारी एक ऐसी सामूहिक जीवन पद्घति कहा जा सकता है, जिसे राष्ट्रीय चेतना कहा जाना और भी उचित होगा। ंिहन्दुत्व को जीवन-पद्घति मानने का अभिप्राय हमारे सामाजिक जीवन और धार्मिक क्रिया कलापों तक सीमित नही माना जा सकता। इसे राष्ट्रीय चेतना का विषय मानकर इसका हमारे इतिहास के साथ समन्वय स्थापित किया जाना भी युगीन आवश्यकता है। क्योंकि ऐसा करने से हमारा गौरवपूर्ण अतीत हमारे सामने आ पाना संभव है। यदि हमने अपनी राष्ट्रीय चेतना की उपेक्षा की तो हमारा इतिहास विनष्ट हो जाएगा और उससे हमारा अस्तित्व बच पाना संभव नही रहेगा।

सबसे गौरवपूर्ण इतिहास हमारा
विश्व के सभी देशों के इतिहास से अधिक गौरवपूर्ण इतिहास हमारा है। इसे एक दृष्टांत से समझा जा सकता है। एक परिश्रमी किसान सपत्नीक अपने खेतों के लिए जा रहा था। जब वे राजा के राजभवन के निकट से निकल रहे थे किसान की पत्नी एक टक उस भव्य राजप्रासाद को निहारती रह गयी,  जबकि किसान कुछ दूर निकल गया।
किसान ने दूर जाकर देखा कि उसकी पत्नी तो राजा के भव्य राजप्रासाद को निहारती पीछे खड़ी रह गयी है। तब उसने ऊंची आवाज से उसे पुकारा कहा-‘प्रिये! इस राजप्रासाद को तुम इस प्रकार क्यों निहार रही हो, हमारा भवन तो इससे भी सुंदर है। आगे क्यों नही बढ़ती हो?’
किसान की पत्नी आगे बढऩे लगी। परंतु किसान की इसी बात को राजा, जो कि उस समय अपने प्रासाद के ऊपर खड़ा था -ने भी सुन लिया। उसे आश्चर्य हुआ कि मेरे राजप्रासाद से भी सुंदर भवन इस किसान का कैसे हो सकता है? इसलिए उसने उस किसान को अपने सेवकों के माध्यम से अपने राजप्रासाद में बुलवा भेजा।
राजाप्रासाद में पहुंचे किसान से राजा ने पूछा कि तुम्हारा भवन मेरे राजप्रासाद से उत्तम और सुंदर कैसे हो सकता है?
किसान ने बड़े शांतभाव से कहा-”राजन! मेरे हरे-भरे और अनाज की कलियों से लदे खेत ही हमारे भवन हैं। उनसे हमें प्राकृतिक और वास्तविक आनंद मिलता है जीवन मिलता है, प्रकृति के सान्निध्य में रहकर जीवन सुखद, समृद्घ और सात्विक बनता है। जिससे शारीरिक और आत्मिक उन्नति हमें मिलती है। हमारी आजीविका उसी से चलती है। इसलिए हमारे भवन सबसे सुंदर हैं जो -आपके राज्य के निवासियों के लिए भी अन्नादि प्रदान करते हैं। इसलिए समस्त जनता का वही आश्रय स्थल है। क्या महाराज आपके राजप्रासाद में यह सारी विशेषताएं हैं?”
राजा की समझ में आ गया था कि किसान के भवन उसके राजप्रासाद से सुंदर क्यों हैं? 

भारत सर्वाधिक सुंदर भवन है 
समस्त भूमंडल के निवासियों का आश्रयस्थल भारत है, भारतभूमि ही है जो समस्त मानव जाति को मानवता का संदेश देती है, और सभी प्राणियों को एक ही पिता की संतान मानती है। इस पवित्र भूमि की इसी पहचान की रक्षा के लिए जो इतिहास रचा गया और जिसके निर्माण में लोगों ने अपने जीवन खपा दिये, वही इतिहास संपूर्ण भूमंडल का सर्वोत्तम गौरवमयी इतिहास है। उसे भुलाया नही जा सकता।

 महायोद्घा छत्रसाल का पश्चात्ताप
जब युद्घभूमि से उठकर छत्रसाल युद्घ शिविर में लाया गया और उसने देखा कि उसके साथ क्या हो गया है तो उसे अपने अब तक के किये पर पश्चात्ताप हुआ।
वह सोचने लगा-”यह सारी लड़ाई किसके लिए मैंने लड़ी? उस मुगल बादशाह के लिए जो हमारे हिंदू धर्म या हिंदू समाज का और हिंदुस्तान की संस्कृति का कट्टर शत्रु है। जो सदा हिंदुओं को कष्ट देने और हिंदुओं के ही हाथ से हिंदुओं को समाप्त कराने की योजनाएं बनाता रहा है? उसके पूर्वजों ने भी हमारी जाति के साथ बहुत अत्याचार किये हैं। उस दुष्ट ने हमारे मंदिर गिरवाये हैं, रथयात्रा, मेले, विद्यालय सबको रोक दिया है।
मूत्र्तियों को तुड़वाकर पैरों के नीचे कुचलवाया है। अब इस धर्म द्रोही को अधिक सहायता देना असंभव है।” (संदर्भ : ‘शक्तिपुत्र छत्रसाल’ पृष्ठ 97)

मुगल सेना से फेर लिया मुंह और चल दिये शिवाजी से मिलने
छत्रसाल को अपने पिता का प्रतिशोध लेना था। इसलिए वह अब नही चाहता था कि मुगलों की सेना में रहकर और अधिक समय नष्ट किया जाए। तब उस महायोद्घा ने हिंदू शक्ति के पुंज बनकर उभर रहे छत्रपति शिवाजी महाराज के पास जाना उचित समझा। वह शिवाजी महाराज को पहले से ही अपना आदर्श मानता था, पर अब तो वह उनके प्रति पूर्णत: समर्पित हो गया था। इसलिए वह उनसे मिलने के लिए चल दिया। उसने शिकार खेलने के बहाने से मुगलों के बीच से निकलकर अपने साथ ज्येष्ठ भ्राता अंगदराय और पत्नी देवकुंवरि को लिया।
छत्रपति शिवाजी उस समय मुगलों से ही एक युद्घ में व्यस्त थे। उनसे मिल पाना बड़ा कठिन था। पर छत्रसाल भी संकल्प शक्ति का धनी था। उसने संकल्प धारण कर लिया और अपने ‘आदर्श नेता’ से मिलने की योजनाएं बनाने लगा, मार्ग ढूंढऩे लगा। उनके साथ अपने कुछ बुंदेले सैनिक भी थे, जो उनके अति विश्वसनीय थे।

छत्रसाल की छत्रपति से भेंट
शिवाजी महाराज भी छत्रसाल की वीरता से प्रभावित थे, इसलिए वह स्वयं भी उससे मिलना चाहते थे। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि छत्रसाल स्वयं ही उनकी ओर चला आ रहा है तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। अंत में अनेकों कष्टों को सहन करता छत्रसाल भीमा नदी के उस पार पहुंचा, जहां शिवाजी का प्रवास था। दोनों वीर योद्घाओं की भेंट की साक्षी भीमा नदी की पवित्र जलधारा बनी। शिवाजी महाराज ने अपने आसन से उठकर छत्रसाल जैसे शूरवीर का स्वयं अभिनंदन किया।
शिवाजी महाराज ने कुशल क्षेम पूछने के पश्चात छत्रसाल को हिंदू समाज के लिए मिलकर काम करने का अपनी ओर से वचन दिया और उन्हें आश्वस्त किया कि वह जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यहां तक चलकर आये हैं, उसमें उनका पूरा सहयोग और आशीर्वाद सदा उनके साथ है।

छत्रसाल तुम संघर्ष करो-हम तुम्हारे साथ हैं
छत्रसाल को वह मिल गया जो वह पाना चाहते थे। छत्रपति की छत्रछाया छत्रसाल को मिल गयी यह उस समय कोई थोड़ी उपलब्धि नही थी। छत्रपति ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि तुम अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करो-हम तुम्हारे साथ हैं।
छत्रपति शिवाजी कुशल राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने छत्रसाल को बुंदेलखण्ड में औरंगजेब के लिए एक चुनौती के रूप में उतारकर स्वतंत्रता संघर्ष को इस क्षेत्र में बल देने का निर्णय लिया। उन्होंने इस महान कार्य में छत्रसाल को अपना पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया और यह भी स्पष्ट कर दिया कि अपने पिता का राज्य प्राप्त कर उसे स्वतंत्रता से भोगो। 
शिवाजी की इस योजना से शत्रु दक्षिण में ही नही उत्तर में भी फंस जाना था, उत्तर या मध्य भारत में शत्रु को जितना उलझाया जाता उतना ही शिवाजी को लाभ मिलना था। साथ ही शिवाजी यह भी भली-भांति जानते थे कि शत्रु के लिए इस समय संपूर्ण देश में जितना अधिक हिंदू स्वातंत्रय समर तेज किया जाए उतनी ही उसकी शक्ति क्षीण होगी। इसलिए उन्होंने छत्रसाल की प्रतिभा को मुखरित किया और उनके भीतर स्वतंत्रता की दहकती आग में अपना आशीर्वाद देकर घी और डाल दिया।
छत्रसाल को शिवाजी से मिला आशीर्वाद अपने जीवन की सबसे मूल्यवान उपलब्धि जान पड़ रहा था। वह बड़ी प्रसन्नता के साथ शिवाजी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त कर उनके समक्ष नतमस्तक हो गया। शिवाजी ने उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। बोले-‘तुम सेवक नही स्वामी बनो। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। जाओ और भारत के भविष्य के लिए कार्य करो।’
यह कहकर शिवाजी ने भारत के पराक्रम और शौर्य की प्रतीक तलवार हाथ में ली और उसे छत्रसाल की पीठ में बांध दिया। तब शिवाजी से आशीर्वाद ग्रहण कर नरपुंगव छत्रसाल अपने पिता के राज्य बुंदेलखण्ड की ओर लौट चले।

चलने लगा अगली योजना पर विचार प्रवाह
स्वतंत्रता और स्वराज्य के परमाराधक और ज्योति-पुंज के रूप में ख्याति प्राप्त छत्रपति शिवाजी से उनका शौर्य समकालीन व्यक्ति मिले और उसके भीतर स्वतंत्रता और स्वराज्य का चिंतन प्रस्फुटित ना हो भला यह कैसे हो सकता था? जड़ जड़ को प्रभावित करता है तथा साधक पर जड़ता को प्रभावी करता है तो चेतन चेतन को प्रभावित करता है या साधक की चेतना को ज्योतित कर देता है। वैसे ही शिवाजी के तेजस्वी स्वरूप ने छत्रसाल के तेजोमयी मन को और भी अधिक धारदार बना दिया। छत्रसाल को अपने लिए किसी ऐसे ही संरक्षक की आवश्यकता थी और वह आवश्यकता शिवाजी महाराज के मिल जाने से अब पूर्ण हो गयी थी।
इसलिए शिवाजी से मिलकर लौट रहे छत्रसाल को अब स्वतंत्रता और स्वराज्य के तेजस्वी चिंतन ने घेर लिया था। उसे बुंदेलखण्ड की स्वतंत्रता पूरे देश में स्वतंत्रता की अलख जगाने का उचित मंच जान पड़ रही थी। इसलिए समस्त बुंदेलों को एकता के सूत्र में बांधकर स्वतंत्रता के लिए कठिन साधना करना अब उसका जीवनध्येय बन गया था।

शुभकरण और बलदाऊ से की भेंट
अपने लक्ष्य की साधना को फलीभूत करने के लिए छत्रसाल ने शुभकरण बुंदेला से भेंट की। यह वही व्यक्ति था जिसने राजा चंपतराय के साथ विश्वासघात किया था। पर इस भेंट का कोई परिणाम नही निकला। हां, इतना अवश्य हुआ कि शुभकरण बुंदेला ने अपने किये हुए पापकर्म के लिए छत्रसाल से क्षमा याचना अवश्य की, और उसे पूर्ण सम्मान भी दिया। पर जब छत्रसाल ने शुभकरण के सामने अपने आने का प्रयोजन रखा तो शुभकरण ने स्पष्ट कर दिया कि वह औरंगजेब के विरूद्घ कुछ नही कर सकता।
छत्रसाल को इस प्रकार अपने लक्ष्य की साधना के लिए चलाये गये अपने अभियान के पहले चरण में शुभकरण से मिलकर असफलता मिली। पर वह निराश नही हुुआ। उसने शुभकरण से विदा ली और किसी उचित अवसर के आने पर उससे अपना सहयोग करने का वचन भी लिया। इसके पश्चात छत्रसाल की दृष्टि अपने चचेरे भाई बलदाऊ पर गयी। बलदाऊ (बलदीवान) बहुत ही बहादुर था।
बलदाऊ के समक्ष छत्रसाल ने अपने आने का प्रयोजन स्पष्ट किया। उसकी देशभक्ति की भावना और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण के भाव से बलदाऊ गदगद हो गया। उसने छत्रसाल को उसके साहस के लिए बधाई दी और अपना हर प्रकार का सहयोग उसे देने का वचन दिया।
जब ईश्वर कोई महान मनोरथपूर्ण कराते हैं तो उसके लिए संसार में हमें हमारे महान साथियों से मिलाते हैं। ये साथी हमें अपनी लक्ष्य साधना में हमारा सहयोग करते हैं और परिणाम हम देखते हैं कि हम एक बड़ा कार्य कर बैठते हैं। जब किसी का पतन होता है तो उस समय भी देखा जाता है कि हमारे अपने सबसे निकट के व्यक्ति ही हमारा साथ छोडऩा आरंभ करते हैं। जुडऩे वाला भी पहला कोई एक ही व्यक्ति होता है, जिसके जुडऩे से हमारी अनुकूलता हमारे साथ चलने लगती है और जिसके जुडऩे से हमारे चारों ओर साथियों का मेला सा लगने लगता है, इसी प्रकार इस मेले में से सबसे पहले छोडऩे वाला भी कोई एक ही व्यक्ति होता है जिसके साथ छोड़ते ही हमारी सारी प्रतिकूलताएं हम पर हावी और  प्रभावी होने लगती हैं। 
छत्रसाल के साथ बलदाऊ का साथ आना ऐसा ही रहा कि उसके पश्चात छत्रसाल की अनुकूलताएं उसका साथ देने लगीं।

बुुंदेलखण्ड में दौड़ गयी खुशी की लहर
अब बुंदेलखण्ड में नवस्फूर्ति का संचार सा होने लगा था। चारों ओर देशभक्ति का रंग वैसे  ही बिखरता सा दिखने लगा था जैसे होली के पर्व से पूर्व गेंहूं की  फसल में हल्का पीलापन झलकने लगता है और किसान समझ लेता है कि फसल अब पकने लगी है। छत्रसाल की फसल भी अब पकने लगी थी।
उधर औरंगजेब बुंदेलखण्ड के प्रति पूर्णत: सजग हो चुका था। वह बुंदेलखण्ड की दिन प्रतिदिन की सूचना ले रहा था। उसे ज्ञात हो गया था कि बुंदेलखण्ड की परिस्थितियां उसके अनुकूल नही हैं और छत्रसाल वहां दिन-प्रतिदिन स्वतंत्रता और स्वराज्य का रंग बिखेर रहा है? तब औरंगजेब ने गवालियर के सूबेदार फिदाई खां को आदेश दिया कि वह बुंदेलखण्ड पर आक्रमण कर छत्रसाल के प्रयासों को छिन्न-भिन्न कर दे। इसके लिए चाहे जो उपाय अपनाए जाएं-उन्हें अपनाने की पूरी छूट फिदाई खां को दी गयी और उसे बता दिया गया कि छत्रसाल का कोई भी ऐसा प्रयास सफल न होने पाये, जिससे वह बुंदेलखण्ड को स्वतंत्रता की ओर ले जा सके।
फिदाई खां ने अपने क्रूर बादशाह के आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से ओरछा के राजा सुजानसिंह को अपनी ओर से आदेशित किया कि जब वह बुंदेलखण्ड पर आक्रमण करेगा तो उसे वहां के मंदिरों-मूत्र्तियों के विनाश में सहयोग करने तथा इस युद्घ का सारा खर्चा वहन करने के लिए उद्यत रहना होगा सुजानसिंह ने भी चंपतराय  के साथ विश्वासघात किया था परंतु अब वह हिंदू समाज के विरोध में जाना नही चाहता था। औरंगजेब ने 9 अप्रैल 1629 ई. को फिदाई खां को उक्त पत्र लिखा था। सुजानसिंह इस समय दक्षिण में था। फिदाई खां अपने 1800 घुड़सवारों के साथ बुंदेलखण्ड की ओर चल दिया। 
इतिहासकार लिखता है-”उन्होंने (छत्रसाल) अपना एक दूत डबरा के लिए रवाना किया। वह छत्रसाल के पत्र के साथ धुरमंगद बख्शी से मिला। धुरमंगद फूला न समाया, वहां के बुंदेले वीरों को लेकर वह धूमघाट पहुंचा। उधर से फिदाई खां भी बढ़ता आ रहा था। धुरमंगद ने छत्रसाल के निर्देशानुसार धूमघाट में ही फिदाई खां को रेाक दिया। कहते हैं कि फिदाई खां और उसके घुड़ सवारों की यहां ऐसी पिटाई हुई कि वह उल्टे पैरों वहां से भाग खड़ा हुआ।
जब सुजानसिंह को यह पता लगा कि छत्रसाल बुंदेलों को संगठित करता बुंदेलभूमि पर प्रभावी हो रहा है और सभी की योजना के अनुसार धुरमंगद बागसी (वख्शी) ने फिदाई खां को धूमघाट पर हराया है तो वह और भी अधिक भयभीत हो उठा। उधर विजयी धुरमंगद ने यह तय कर लिया कि वह अपने समस्त सहयोगियों सहित चंपतराय के पुत्र वीर छत्रसाल से मिलकर बुंदेला संगठन को प्रभावशाली बनाएगा।”
(शक्तिपुत्र छत्रसाल)

हिन्दू होने लगा संगठित
जब विपरीत परिस्थितियां बनती हैं या जब कोई शत्रु आपका विनाश करने के लिए आपके समक्ष आ पहुंचता है तो नेतृत्व यदि सक्षम और समर्थ है तो यह देखा जाता है कि समाज में संगठित होने की प्रक्रिया स्वत:स्फूर्त प्रेरणा से भी गति पकडऩे लगती है। छत्रसाल के समक्ष और समर्थ नेतृत्व से प्रसन्न बुंदेलों में इस समय अदभुत देशभक्ति का संचार हो रहा था। जिससे छत्रसाल की सेना दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। स्वतंत्रता और स्वराज्य की ध्वजा लिए वीर बुंदेले अपने नायक छत्रसाल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने लगे। उन्हें अपने प्राणों की चिंता नही थी। चिंता थी तो केवल बुंदेलखण्ड की स्वतंत्रता की थी। चंपतराय के विरोधी हों या समर्थक अब सबका लक्ष्य एक हो गया था-स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए छत्रसाल का सहयोग करना है। 
सुजानसिंह इस समय छत्रसाल की बढ़ती शक्ति को लेकर भयभीत था। उसे छत्रसाल की बढ़ती शक्ति को देखकर अपने उन पापकर्मों ने घेर लिया था जो उसने राजा चंपतराय को नीचा दिखाने या उन्हें मरवाने के लिए उस समय किये थे। वह समझ रहा था कि यदि छत्रसाल ने उसकी ओर दृष्टि उठाई तो उसका परिणाम क्या हेागा? उसके मंत्रियों ने भी उसे परामर्श दिया कि वह परिवर्तित परिस्थितियों में  छत्रसाल के साथ समझौता कर ले। मंत्रियों का यह परामर्श व्यावहारिक था क्योंकि उस समय का समस्त बुंदेलखण्ड छत्रसाल के प्रति आकृष्ट हो रहा था। इसलिए वह नही चाहते थे फिदाई खां के प्रस्ताव को स्वीकार कर उसकी कोई सहायता की जाए। अब औरंगजेब की मानसिकता को भी परिवर्तित हो गयी थी वह सुजानसिंह को गिरफ्तार कराना चाहता था। सुजानसिंह दक्षिण से ओरछा आ गया था। तब उसके छत्रसाल के लिए पत्र लिखा और अपने एक सभासद के माध्यम से उसे छत्रसाल के पास पहुंचवाया।

सुजानसिंह के साथ की मित्रता
पत्र को पाकर छत्रसाल सुजानसिंह से मिले और उनसे पिछली बातों को भूलकर आगे की सुधि लेने का आग्रह किया। सुजानसिंह ने मंदिर में जाकर देवता के समक्ष छत्रसाल से वचन दिया कि वह हर संकट में उनका साथी रहेगा बदले में छत्रसाल ने भी सुजानसिंह का साथ देने का वचन दिया। इस प्रकार छत्रसाल ने अपना व्यापक प्रभाव क्षेत्र बना लिया। जो उसकी बौद्घिक क्षमताओं से ही संभव हो पाया था।
क्रमश:

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