गुरु बिन मुक्ति नाही* भाग 5
डॉ डी के गर्ग
कबीर ने कहा है
जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध
अँधा-अँधा ठेलिया, दून्यू कूप पड़ंत
1जीवन में दुःख का कारण मनुष्य के स्वयं के कर्म हैं। जो जैसा करेगा वो वैसा भरेगा के वैदिक सिद्धांत की अनदेखी कर मनुष्य न तो अपने कर्मों को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करना चाहता है। न ही पाप कर्मों में लिप्त होने से बचना चाहता हैं, परन्तु उस पाप के फल को भोगने से बचने के लिए अनेक अनैतिक एवं असत्य मान्यताओं को स्वीकार कर लेता हैं। जैसे कि गुरु नैया पार लगा देगा जिस दिन हम यह जान लेंगे की कर्म करने से मनुष्य जीवन की समस्त समस्यायों को सुलझाया सकता है। उस दिन हम चमत्कार जैसी मिथक अवधारणा का त्याग कर देंगे।
2 जिस दिन मनुष्य निराकार एवं सर्वव्यापक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखने लगेगा और यह मानने लगेगा की ईश्वर हमें हर कर्म करते हुए देख रहा हैं। इसलिए पापकर्म करने से बचो। उस दिन वह सुखी हो जायेगा। 3.जिस दिन मनुष्य ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था में विश्वास रखने लगेगा उस दिन वह पापकर्म से विमुख हो जायेगा। पूर्व में किये हुए कर्म का फल भोगना निश्चित हैं। वर्तमान एवं भविष्य के कर्मों को करना हमारे हाथ में हैं। मनुष्य के इसी कर्म से मिलने वाले फल की अनदेखी कर शॉर्टकट ढूंढने की आदत का फायदा पाखंडी ,निकम्मे ,धूर्त पाखंडी गुरु उठाते हैं।
4 परमात्मा पूरी सृष्टि के कण-कणमें व्याप्त है और उसने कर्म के अनुसार शरीर दिया है , भोजन की व्यवस्था की है , स्वास प्रदान की है ,बुद्धि और बल दिया है , सूर्य चन्द्रमा ,समुन्द्र तारे बनाये है जो हमारे मित्र की भांति सेवा करते है। शरीर में भीजेन पचाने ,पहुँचाने का तंत्र बनाया है और ब्वहि इसको चला रहा है , ईश्वर महाकाल है जिसकी गणना अचूक है। यदि ये कार्य हमारे हाथ में दिया होता तो सब कुछ समाप्त हो जाता। इसलिए ईश्वर ही हमारा सखा, माता ,पिता, बंधू, गुरु आदि है।
सामवेद मंत्र १०७७ में गुरु-शिष्य का विषय वर्णित है। मंत्र निम्न है।
तं त्वा विप्रा वचोविद: परिष्कृण्वन्ति धर्णसिम्।
सं त्वा मृजन्त्यायव:।।
मंत्र का पदार्थ सामवेद भाष्यकार वेदमूर्ति आचार्य (डॉ०) रामनाथ वेदालंकार जी रचित:- हे शिष्य! विद्या का ग्रहण करने वाले, गुरुकुल में प्रविष्ट हुए उस तुझको सम्पूर्ण वांग्मय के ज्ञानी ब्राह्मण गुरुजन परिष्कृत करते हैं, क्रियाशील आचार्य लोग तुझे भलीभांति शुद्ध करते एवं सद्गुणों से अलंकृत करते हैं।
भावार्थ:- गुरुओं का यह कर्तव्य है कि वे विद्या और सदाचार के दान से शिष्यों के हृदयों को परिष्कृत, शुद्ध और अलंकृत करें।
इसलिए दुनिया की चकाचौध में बहा ले जाने वाले इन गुरुओ के चक्कर में अनमोल मानव जीवन व्यर्थ न करें। बुध्दि पूर्वक विचार करें और समझे कि ईश्वर जो सबका गुरु है उसके बताये रस्ते पर चले वही गुरु अन्धकार से सूर्य की रौशनी द्वारा हमको प्रकाश में ले जाता है।
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