कश्मीर को लेकर आज के गृहमंत्री राजनाथसिंह पूर्णत: असफल सिद्घ हो चुके हैं। उनकी कश्मीर नीति उनकी एक कमजोर गृहमंत्री की छवि बना चुकी है। जब वह कहते हैं कि कश्मीर समस्या को वह सुलझा लेंगे तो लोगों को उनकी बात पर विश्वास नहीं होता। किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए वह सबसे अधिक खतरनाक बात होती है कि वह जो कुछ कहता है उस पर लोग विश्वास न करें, और राजनाथसिंह के बारे में देश के जनमानस में यह धारणा घर कर गयी है कि वह जो कुछ कह रहे हैं वह पूर्ण होने वाला नहीं है।
कश्मीर के संबंध में जब-जब चर्चाएं चलती हैं, बहस होती है या राजनीति में गरमाहट आती है तो समय की सुइयां पुन: 1947 की ओर घूम जाती हैं, और हम सबके अंतर्मन पर कुछ परिचित से नाम पुन: घूमने लगते हैं। इन नामों में सरदार वल्लभभाई पटेल, महाराजा हरिसिंह, पंडित जवाहरलाल नेहरू, शेख अब्दुल्ला, लियाकत अली, मौ. अली जिन्नाह, लार्ड माउंटबेटन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भारतवर्ष में कश्मीर के संबंध में ही नही, देशी रियासतों को भारत के साथ विलय करने के मुद्दे पर सरदार पटेल का नाम सर्वाधिक सम्मान के साथ लिया जाता है।
निस्संदेह सरदार पटेल ने अपने दृढ़ निर्णयों और स्पष्टवादिता से एक नही अनेक बार सिद्घ किया कि वह इस सम्मान के पात्र भी हैं। उनको पं. नेहरू ने गृह मंत्रालय के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा राज्यों संबंधी विषयों को भी दिया। इन सारे दायित्वों को सरदार पटेल ने जिस कत्र्तव्यनिष्ठा से निर्वाह किया उससे उन्हें ‘भारत का बिस्मार्क’ होने का सम्मान पश्चिमी प्रेस ने दिया।
1947 ई. में लार्ड माउंटबेटन को हमने अपना ‘बादशाह’ बनाकर रख लिया। यह हमारे तत्कालीन नेतृत्व की भूल थी क्योंकि माउंटबेटन के चर्चिल और टोरी पार्टी से बड़े घनिष्ठ संबंध थे। सभी जानते हैं कि चर्चिल एक कट्टर भारत विरोधी नेता था और वह हर स्थिति में भारत को विनष्ट होता देखना चाहता था। इसलिए माउंटबेटन जब भी उससे (स्वतंत्रता के पश्चात भी) भारत और कश्मीर के विषय में परामर्श लिया करता था, तो चर्चिल माउंटबेटन को ऐसे परामर्श ही दिया करता था जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में और आग लगे, और माउंटबेटन उस परामर्श के अनुसार अपनी ‘पत्नी के मित्र पं. नेहरू’ को मोडऩे या तोडऩे का प्रयास करता था। इस प्रकार कश्मीर के संबंध में दिखने वाले मोहरों के स्थान पर पीछे से एकअदृश्य शक्ति (चर्चिल) डोर हिला रही थी, और हम यहां कठपुतलियों को नाचते देख रहे थे।
नेहरू नाम की कठपुतली ने उस अदृश्य शक्ति की परामर्श पर निर्णय लिया और सरदार पटेल से राज्यों संबंधी मामलों में से कश्मीर को अपने पास रख लिया। सरदार पटेल सारे घटनाक्रम पर बड़ी सावधानी से दृष्टि गढ़ाये बैठे थे, उन्होंने कश्मीर को नेहरू को सौंप दिया, परंतु इसके उपरांत भी सावधान और जागरूक बने रहे। क्योंकि वह जानते थे कि कश्मीर के विषय में महाराजा हरिसिंह, पं. नेहरू, लियाकत अली, मौ. अली जिन्नाह सभी की मानसिकता दूषित थी। महाराजा हरिसिंह ने 26 सितंबर 1947 को माउंटबेटन को एक पत्र लिखा था और उसमें उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि कश्मीर की सीमाएं सोवियत रूस व चीन से भी मिलती हैं और भारत तथा पाकिस्तान से भी अत: उसे स्वतंत्र राज्य माना जाए। संभवत: यह दोनों देशों (भारत तथा पाकिस्तान) तथा अपने राज्य के हित में रहेगा,-यदि उसे स्वतंत्र रहने दिया। इस प्रकार महाराजा ‘अपना काम’ निकालने की प्रतीक्षा में थे।
सरदार पटेल इस तथ्य को जानते थे, परंतु जब महाराजा भारत के साथ आने पर सहमत हो गये तो सरदार पटेल भी ईमानदारी से और एक रणनीति के तहत महाराजा के साथ हो लिये। वैसे भी कश्मीर के विषय में उस समय महाराजा ही सबसे अधिक विश्वसनीय और मजबूत कड़ी हो सकते थे।
सरदार पटेल शेख अब्दुल्ला को कतई मुंह नही लगाते थे, क्योंकि वह ऐसा व्यक्ति था जो नीचे से ऊपर तक भारत के प्रति विष से भरा हुआ था। इसलिए शेख की हर गतिविधि पर पटेल बड़ी पैनी दृष्टि रखते थे। शेख भी सरदार पटेल के सामने घबराता था और कितने ही अवसरों पर पटेल के सामने उसकी बोलती बंद हो गयी थी। ‘सरदार पटेल : कश्मीर एवं हैदराबाद’ के लेखक द्वय पी.एन. चोपड़ा एवं प्रभा चोपड़ा लिखते हैं कि सरदार पटेल की चेतावनी थोड़े शब्दों में ही होती थी, किंतु वे अपनी बात समझाने में काफी प्रभावकारी होते थे। कश्मीर पर वाद विवाद के समय शेख अब्दुल्ला क्रोधित होकर एक बार संसद से बाहर चले गये। सरदार पटेल ने अपनी सीट से बैठे-बैठे ही उधर देखा। उन्होंने सदन के एक वयोवृद्घ व्यक्ति को बुलाकर कहा-‘(शेख को बता दो कि) शेख संसद से तो बाहर जा सकते हैं, किंतु दिल्ली से बाहर नही जा सकते।’ इस चेतावनी ने शेख को भीतर तक हिला दिया था, और वह तुरंत अपनी सीट पर आकर बैठ गये।
सचमुच सरदार पटेल जैसे नेता किसी देश को सौभाग्य से ही मिलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने देश की संसद के भीतर जिन स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हम देश की जनता के आक्रोश को समझते हैं और इस विषय में हम देश के साथ हैं। हम मानते हैं कि पी.एम. के इन शब्दों में बनावट नहीं थी और इन शब्दों का प्रभाव भी यह हुआ कि कश्मीर का नेता मुफ्ती मौहम्मद सईद ‘अपनी सीट पर बैठता नजर आया।’ यद्यपि श्री मोदी ने मुफ्ती को कश्मीर सौंपकर जो गलती की उससे उन्हें कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा और देश को पर्याप्त क्षति भी उठानी पड़ी है। सरदार पटेल का ही एक अन्य प्रकरण वर्तमान नेतृत्व का मार्गदर्शन कर सकता है। कश्मीर में सेना भेजने के निर्णय पर बक्शी गुलाम मौहम्मद ने बड़ा रोचक वर्णन किया है। दिल्ली में इस संबंध में होने वाली बैठक में बक्शी गुलाम मौहम्मद के अतिरिक्त लॉर्ड माउंटबेटन, सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमाण्डर इन चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमाण्डर उपस्थित थे। बैठक की अध्यक्षता लार्ड माउंटबेटन कर रहे थे। कश्मीर में सेना भेजने और उसे भारत के साथ रखने पर ही विचार होना था। जनरल बुकर और अन्य सभी लोग अपनी बातों से बैठक में निराशा के परिवेश का निर्माण कर रहे थे। उनकी बातों से लगता था कि जैसे वे कश्मीर की जीती हुई बाजी को हार रहे हैं। बुकर ने कहा कि उनके पास संसाधन इतने थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता दी जानी संभव नही है, लॉर्ड माउंटबेटन ने निरूत्साहपूर्ण झिझक दिखायी। पंडित जी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की। सरदार पटेल सबको मौन रहकर सुनते रहे, किंतु एक शब्द भी नही बोले। वह शांत और गंभीर प्रकृति के थे उनकी चुप्पी पराजय और असहाय स्थिति जो बैठक में परिलक्षित हो रही थी, के बिल्कुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया। राजनाथ सिंह के अंदर सरदार पटेल जैसी दूरदर्शिता और साहसिक निर्णय लेने की क्षमता का सर्वथा अभाव है। सचमुच इस समय कश्मीर को राजनाथसिंह की नहीं अपितु किसी सरदार पटेल की आवश्यकता है।