हिन्दुत्व के विषय में उच्चतम न्यायालय ने ‘शास्त्री यज्ञपुरूष दास और अन्य विरूद्घ मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य (1966 एससीआर 242)’ में कहा है-”जब हम हिंदू धर्म के विषय में सोचते हैं तो हमें हिंदू धर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है। विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिंदू धर्म किसी एक दूत को नही मानता, किसी एक भगवान की पूजा नही करता, किसी एक मत का अनुयायी नही है, वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नही मानता यह किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्घति या रीति नीति को नही मानता। वह किसी मजहब या संप्रदाय की संतुष्टि नही करता। बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्घति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं।”
उच्चतम न्यायालय को ”रमेश यशवन्त प्रभु विरूद्घ प्रभाकर कुण्टे (एआईआर 1996 एससी 1113)” के प्रकरण में विचार करना था कि विधानसभा के चुनावों के दौरान मतदाताओं से हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगना क्या साम्प्रदायिक भ्रष्ट आचरण है? तब उच्चतम न्यायालय ने कहा-”हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दूइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मजहबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है। इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता। यह दर्शाता है कि हिंदुत्व शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्घति से संबंधित है। इसे कट्टर पंथी मजहबी संकीर्णताओं के समान नही कहा जा सकता। साधारणतया हिंदुत्व को एक जीवन पद्घति और मानव मन की दशा से ही समझा जा सकता है।”
माननीय उच्चतम न्यायालय न्याय का शीर्ष मंदिर है। न्यायालयों में पर्याप्त भ्रष्टाचार के उपरांत भी भारत की न्यायव्यवस्था विश्व की शीर्षस्थ न्यायव्यवस्था है। हमने कितने ही महत्वपूर्ण बिंदुओं पर भारत के उच्चतम न्यायालय को अपना निर्भीक मत रखते या निर्णय देते देखा है। पर हमारे स्वयं के भीतर दोष हैं। हम अपनी निर्भीक न्यायव्यवस्था में तो विश्वास भी रखते हैं और उस पर गर्व भी करते हैं, पर उसके दिये गये आदेशों या निर्णयों का सम्मान करना नही जानते। हमारी इस मानसिकता को भारतीय समाज की विडंबना कहना चाहिए।
हमारे राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों ने भारतीय समाज की इस विडंबना को और भी अधिक प्रोत्साहित किया है। जब न्यायालयों की ओर से कोई ऐसा निर्णय आता है जो किसी राजनीतिक दल या किसी राजनीतिज्ञ के हितों के विरूद्घ हों और उसके स्थिर रहने से उसके मतों पर विपरीत प्रभाव पडऩे की संभावना हो तो ऐसा राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ न्यायालय के द्वारा दिये गये उक्त आदेश को ‘कूड़ेदान’ में फेंकने में तनिक सी भी देरी नही करता है।
हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म के विषय में यही कहा जा सकता है। भारत की कथित सैकुलरिस्ट पार्टियां माननीय न्यायालय के उक्त आदेशों का पालन इसलिए नही करतीं कि उन्हें इस प्रकार के आदेशों में साम्प्रदायिकता की गंध आती है। इसलिए उन्हें इनसे लाभ के स्थान पर हानि होने की संभावना अधिक रहती है। क्योंकि ऐसे न्यायिक निर्णयों की पैरोकारी से या उन्हें लागू कराने से उनके परंपरागत ‘वोट बैंक’ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। यही कारण है कि हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म पर बहस कराके इनकी एक सर्वसम्मत परिभाषा गढने में हम असफल रहे हैं। कथित सैकुलरिस्ट पार्टियां इस प्रकार के न्यायिक निर्णयों को इस प्रकार उपेक्षित करती हैं कि जैसे ये हुए ही नही हैं और यदि हो गये हैं तो इनकी ओर ध्यान आकृष्ट करना मानो एक ‘सामाजिक अपराध’ है। राष्ट्रीय पाप है। ये इन्हें अपनी मौत मर जाने देना चाहतीं हैं।
दूसरी ओर वे राजनीतिक पार्टियां या राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म को अपना सिरहाना ही बना रखा है, पर वे इसे अपने तकिया के नीचे रखकर सो जाते हैं। इनके भाषणों में हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म का बड़ा शोर मचता है। जिसे देखकर यह लगता है कि इन लोगों को सत्ता मिलते ही ये देश का मानचित्र परिवर्तित कर देंगे। वैसे इनके कार्य व्यवहार, कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर होता है। ये बातें चाहें हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म की करते हैं और उच्चतम न्यायालय के उक्त आदेशों की व्यवस्था के अनुसार चाहे कितनी ही बार उक्त निर्णयों को सराहते हैं परंतु उक्त निर्णयों की हत्या तो ये भी करते हैं। क्योंकि संपूर्ण भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक को उच्चतम न्यायालय के उक्त आदेश हिन्दू मानते हैं। हमारे धर्म को हिंदुत्व घोषित करते हैं परंतु हिंदू, हिन्दुत्व के पैरोकार बने कुछ राजनीतिक दल या राजनीतिज्ञ अपने भाषणों में और कार्य व्यवहार से कुछ ऐसा आभास देते हैं कि वे देशवासियों को हिंदू न मानकर ‘वर्ग विशेष’ के लोगों को हिंदू मानते हैं। जबकि किसी कैरी ब्राउन नामक अंग्रेजी लेखक का कथन है-
”आज हम जिस संस्कृति को हिंदू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं। वह उस मजहब से बड़ा सिद्घांत है जिस मजहब को पश्चिम के लोग समझते हैं। कोई किसी भगवान में विश्वास करें या किसी ईश्वर में विश्वास नही करें फिर भी बड़ा हिंदू है। यह एक जीवन पद्घति है यह मस्तिष्क की एक दशा है।”
हिंदूवादी संगठनों या राजनीतिक दलों या राजनीतिज्ञों की सोच भी ऐसी ही हो सकती है। पर जब किसी भी अवसर पर वोट राजनीति गर्माती है तो उस समय कुछ ऐसा आभास दिया जाता है, जिससे यह प्रति ध्वनित होता है कि जैसे हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म किसी वर्ग विशेष के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द हैं। भाजपा ने जब भी वोट मांगे हैं तो उसने हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म के विषय में कभी अपना स्पष्ट चिंतन या दृष्टिकोण प्रकट नही किया। इसने वोट प्राप्त करने के लिए जिस हिंदुत्व का आश्रय लिया वह हमारा राजधर्म नही हो सकता। हमारे राजधर्म और हिंदुत्व में कोई विरोधाभास नही है। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पर इन्हें सेकुलरिस्ट पार्टियां और हिंदूवादी संगठन या राजनीतिक दल अलग-अलग करके दिखाते हैं।
भाजपा ने हर चुनाव में अपने मतदाताओं को ठगा है। क्योंकि उसने हिंदू, हिन्दुत्व और हिन्दूइज्म का शुद्घ स्वरूप कभी मतदाताओं के समक्ष प्रकट नही किया। भाजपा ने कभी भी यह साहस नही किया कि वह भारत की न्याय व्यवस्था और उच्चतम न्यायालय के प्रति प्रतिबद्घ है और उनके द्वारा पारित निर्णयों का सम्मान करते हुए संपूर्ण भारत के प्रत्येक नागरिक को वह जन्मना और स्वाभाविक हिंदू मानती है, पर उन्हें उनके पूजा पद्घति के अधिकारों से वंचित नही करती है। वह निजी विश्वास और मत के अनुसार अपनी पूजा पद्घति जो चाहे सो अपनायें पर भारत में रहते हुए उनकी पहचान केवल ‘एक हिंदू’ की है। न्यायालयों के ऐसे निर्णयों के दृष्टिगत भाजपा को संसद के माध्यम से कानून पास कराकर भारत को एक ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित कराने की पहल करनी चाहिए थी। चुनावों के दौरान भाजपा के पक्ष में खड़े हुए युवा वर्ग ने भाजपा से यही अपेक्षा की थी कि वह चुनाव उपरांत भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करेगी। उस समय वोट लेने के लिए भाजपा ने ऐसा प्रचार प्रसार होने दिया। इसलिए युवाओं ने एक ‘वर्ग विशेष’ के लोगों के प्रति अश्लील टिप्पणी ‘सोशल मीडिया’ पर कीं। जिससे लगा कि भाजपा अपने ‘हिंदू राष्ट्र’ में किसी एक वर्ग के लोगों का जीना कठिन कर देगी।
इसलिए उस समय देश में साम्प्रदायिक आधार पर मतों का तेजी से धु्रवीकरण हुआ। अब भाजपा सत्ता में तो आ गयी है पर वह वोट भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित नही कर पा रही है और न कर पाएगी। क्योंकि उसने मतों का धु्रवीकरण करने के लिए उस समय जिन नीतियों का सहारा लिया उससे भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित करने को लेकर ऐसा परिवेश बन गया कि जैसे ‘हिंदू राष्ट्र’ घोषित होते ही देश में आग लग जाएगी। भाजपा अपने बुने जाल में फंसकर रह गयी है। दिल्ली ने उसके जाल पर कोहरा की चादर चढ़ा दी है। अब भाजपा कोहरे की चादर से बाहर झांकने का प्रयास कर रही है। पर कोहरा इतना घना है कि दृश्यमानता न के बराबर है। पर हमारे इस लेख का अभिप्राय यह नही कि हम मोदी की कार्यक्षमता, दूरदृष्टि और उनके साहसी नेतृत्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। उनकी कार्यशैली के परिणाम अभी आने शेष हैं। बात केवल इतनी है कि जब भारत की न्याय व्यवस्था में सबका विश्वास है तो सभी को एक साथ कहना चाहिए-”मैं भी हिंदू तू भी हिंदू, मिलकर बोलो सारे हिंदू।” इस राष्ट्रीय उद्घोष पर किस बात की राजनीति। यह सोच तो हमारे राजधर्म का अनिवार्य अंग है और यह हमारे संविधान की मूल भावना भी है। वीर सावरकर और हिंदू महासभा का चिंतन भी यही है। जो लोग वीर सावरकर या उनके संगठन को ‘मुस्लिम विरोध’ की राजनीति करने वाला एक संगठन कहकर उपेक्षित करते हैं या ऐसा सिद्घ करने की राजनीति करते हैं वे दोनों ही वीर सावरकर और उनके संगठन के शत्रु हैं। ऐसे में सैकुलरिस्ट की या गैर सैकुलरिस्ट की राजनीति करना और अपनी पहचान को ही विदू्रपित कर लेना हमारे लिए लज्जा की बात है। हमारा राजधर्म और हमारा संविधान जिस बिंदु पर एकमत है उस पर राजनीति विपरीत मत क्यों रखती है? मोदी यदि राजनीति को राजधर्म और संविधान के अनुकूल कर देें तो उनका जीवन युग-युगों के लिए भारत के लिए प्रेरक हो सकता है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।