वराहमिहिर भारत की गौरवशाली वैज्ञानिक परंपरा के महातेजस्वी नक्षत्र हैं। इनका जन्म 499 ई0 में और मृत्यु 587 ई0 में हुई मानी जाती है । अपने जीवन काल में उन्होंने भारतीय गणितज्ञ और खगोलशास्त्री के रूप में संसार भर में विशेष कीर्ति प्राप्त की थी। उनके तेजस्वी जीवन के कारण भारत को भी विश्व भर में सम्मान प्राप्त हुआ था। उन्होंने ‘पंचसिद्धान्तिका’ नामक ग्रंथ में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। उन्होंने अपने समय में शिक्षा के क्षेत्र में भी कीर्तिमान स्थापित किए। नई पीढ़ी को ज्ञान – विज्ञान के साथ जोड़ने की अंतःप्रेरणा से प्रेरित होकर उन्होंने उज्जैन में गणित विज्ञान का एक गुरुकुल स्थापित करवाया था । जो आने वाली कई शताब्दियों ( लगभग 700 वर्ष ) तक ज्ञान का प्रचार – प्रसार करता रहा। इस गुरुकुल के माध्यम से उन वर्षों में अनेक विद्यार्थियों को लाभ प्राप्त हुआ था। हमारे लिए यह बहुत ही गौरव पूर्ण तथ्य है कि जिस समय इस्लाम के आक्रमण भारत को निरंतर दुर्बल करने का प्रयास कर रहे थे, उस समय भी वराह मिहिर के द्वारा स्थापित यह गुरुकुल बड़ी शान से विद्यार्थियों का निर्माण कर रहा था। इन गुरुकुलों के माध्यम से भारत उस समय अपनी सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक एकता को बनाए रखने में बहुत हद तक सफल रहा था। अपने पिता आदित्यदास से उन्हें गणित और ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त हुआ।
गणित ज्योतिष के क्षेत्र में, किया था काज महान।
भारत को पहचान दी, समझा सकल जहान।।
मूल रूप से कश्मीर के बारामूला (पुरुषोत्तम नागेश ओक जी के अनुसार ) में जन्मे वराहमिहिर ने दिल्ली में आकर उस समय के खगोलविदों और वैज्ञानिकों की एक छोटी सी बस्ती बसाई । ऐसी भी मान्यता है कि इस वैज्ञानिक का जन्म उज्जैन के समीप कपित्था गांव में हुआ था। इस महान खगोलविद के द्वारा बसाई गई नगरी को आज हम महरौली के नाम से जानते हैं। वराह मिहिर ने इस बस्ती को मिहिरावली नाम दिया था । विद्वानों की मान्यता है कि इस उपनगरी में केवल वैज्ञानिक लोग ही निवास कर सकते थे। जिन्हें ज्ञान विज्ञान ,ज्योतिष और गणित की गहन मंत्रणा करने के लिए एक स्थान पर बसाया गया था। वराहमिहिर ने इसी मिहिरावली के पास अपनी खगोल विद्या का केंद्र स्थापित किया था। इसी को आजकल हम कुतुबमीनार के रूप में देखते हैं। इसके बनाने या स्थापित करने में पूर्णतया वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया है। भारत से द्वेष रखने वाले इतिहासकारों ने इस स्तंभ को ‘कुतुबमीनार’ कहकर गुलाम वंश के शासक कुतुबुद्दीन के साथ जोड़ने का अपराध किया है। जबकि कुतुबुद्दीन ऐबक के विषय में यह भी एक सत्य है कि वह दिल्ली का शासक कभी रहा ही नहीं था और ना ही दिल्ली उसके अधिकार क्षेत्र में थी।
अपराधी हर लेखनी, देश संग करे घात।
स्वाभिमान को बेचती, गद्दारों के हाथ।।
मिहिर बहुत ही सटीक भविष्यवाणी करने में भी पारंगत थे। एक बार उन्होंने राजा विक्रमादित्य को कहा था कि उनका नवजात शिशु 18 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने अपने पुत्र को बचाने के हर संभव प्रयास किए, परंतु वह 18 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को ही प्राप्त हो गया। तब राजा ने मिहिर को बुला कर कहा, ‘मैं हारा, आप जीते’। मिहिर ने नम्रता से उत्तर दिया, ‘महाराज, वास्तव में मैं तो नहीं ‘खगोल शास्त्र’ के ‘भविष्य शास्त्र’ का विज्ञान जीता है’। महाराज विक्रमादित्य ने कहा अमीर किस प्रकार के उत्तर को सुनकर प्रसन्न होकर उन्हें मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया। उसी दिन से मिहिर वराह मिहिर के नाम से जाने जाने लगे। उनकी विद्वता और अपने विषय में पूर्ण पारंगत होने के दृष्टिकोण से ही महाराजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में स्थान दिया था। उन्होंने भी संसार के तत्कालीन बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों को वेद के इस मत से सहमत और परिचित कराया था कि यह पृथ्वी गोल है जो कि सूर्य का चक्कर लगाती है।
डा.मोहन चन्द तिवारी(वैज्ञानिक) जी के अनुसार “भारतीय जलवैज्ञानिक वराहमिहिर जिसने सबसे पहले अन्तरिक्ष में मंगल ग्रह पर 1500 वर्ष पूर्व जल की खोज की और पृथिवी में भी भूमिगत जल की खोज करते हु्ए सर्वप्रथम इस भूवैज्ञानिक सिद्धान्त को स्थापित किया कि मनुष्यों के शरीर में जिस तरह नाड़ियां होती हैं उसी प्रकार भूमि के नीचे भी जलधारा को प्रवाहित करने वाली शिराएं होती हैं। वराहमिहिर का जलविज्ञान एकांगी रूप से केवल भूगर्भीय जल पर आधारित सैद्धान्तिक विज्ञान ही नहीं है बल्कि वर्षाकालीन अन्तरिक्षगत मेघों के पर्यवेक्षण, मौसमविज्ञान सम्बन्धी जलवायु परीक्षण तथा भूगर्भीय जल की खोज पर आधारित ‘औब्जर्वेटरी’और प्रायोगिक विज्ञान भी है।”
आर्यभट्ट जैसे महान वैज्ञानिक के साथ भी वराह मिहिर के गहरे संबंध थे । कुछ लोगों की तो यह भी मान्यता है कि आर्यभट्ट इनके गुरुजी थे। कुछ भी हो लेकिन एक बात सच सच है कि इन दोनों ही समकालीन आर्य वैज्ञानिकों ने अपने सार्थक और वैज्ञानिक जीवन से संसार को कई अविष्कार करके दिए और उसे वैज्ञानिक बौद्धिक लाभ पहुंचाया।
डा.मोहन चन्द तिवारी ने वराह मिहिर के जल विज्ञान पर विशेष अनुसंधान किया है। उन्होंने इस दिशा में वराह मिहिर द्वारा किए गए महान कार्य की ओर संकेत करते हुए प्रमाणिक आधार पर लिखा है कि “वराहमिहिर जी का जलविज्ञान एकांगी रूप से केवल भूस्तरीय जल अथवा भूगर्भीय जल पर आधारित सैद्धान्तिक विज्ञान ही नहीं बल्कि वर्षाकालीन अन्तरिक्षगत मेघों के पर्यवेक्षण और मौसमविज्ञान सम्बन्धी जलवायु परीक्षण पर आधारित प्रायोगिक विज्ञान भी है। वराहमिहिर जी का मत है कि बलदेव आदि प्राचीन ऋतुवैज्ञानिकों की मान्यता के अनुसार मौसम वैज्ञानिकों द्वारा आगामी मानसूनों के आने की भविष्यवाणी ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद होने वाली ग्रह–नक्षत्रों की स्थिति तथा जलवायु परीक्षण के आधार पर की जानी चाहिए –
“मेघोद्भवं प्रथममेव मया प्रदिष्टं
ज्येष्ठामतीत्य बलदेवमतादि दृष्ट्वा।
भौमं दकार्गलमिदं कथितं द्वितीयं
सम्यग्वराहमिहिरेण मुनिप्रसादात्।।” – बृहत्संहिता‚ 54.125
मानसूनी वर्षा के बारे में वराहमिहिर की मान्यता है कि बादलों के ‘वृष्टिगर्भ’ को धारण करने की अवधि साढ़े छह महीने यानी 195 दिनों की होती है। बादल चन्द्रमा के जिस नक्षत्र में गर्भ धारण करते हैं ठीक 195 दिनों के बाद उसी नक्षत्र में वर्षा के रूप में बादलों का प्रसव होता है –
“यन्नक्षत्रमुपगते गर्भश्चन्द्रे भवेत् स चन्द्रवशात्।
पंचनवते दिनशते तत्रैव प्रसवमायाति।।” – बृहत्संहिता‚ 21.7
वर्षा से प्राप्त होने वाले अन्तरिक्ष जल को ही वराहमिहिर जी ने भूस्तरीय तथा भूगर्भीय जल का मूल कारण माना है। किन्तु समय पर वर्षा न होना तथा बादलों का फट जाना इस स्थिति का द्योतक है कि बादलों का समय से पहले ही गर्भस्राव हो गया है। वराहमिहिर के अनुसार यदि बादलों के गर्भधारण के बाद आंधी‚ चक्रवाती तूफान‚ उल्कापात‚ दिग्दाह‚ भूकम्प आदि प्राकृतिक उत्पात के लक्षण प्रकट हों तो निश्चित कालावधि में मानसूनी वर्षा की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए तथा यह मान लेना चाहिए कि बादलों का गर्भस्राव हो चुका है।”
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत