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अलविदा-तीन तलाक

अलविदा-तीन तलाक
हम एकऐतिहासिक और मौन क्रांति के साक्षी बन रहे हैं। भारत में मुस्लिम समाज में व्याप्त एकअभिशाप को हम मिटता देख रहे हैं। देश के भीतर जिस प्रकार इस अभिशाप को मिटाने के लिए मुस्लिम महिलाएं सामने आयीं और उनके इस सार्थक प्रयास को बहुत से मुस्लिम विद्वानों ने भी अपना समर्थन यह कहकर दिया कि तलाक की वर्तमान प्रक्रिया न केवल दोषपूर्ण है अपितु यह कुरान की भावना के विपरीत होने के कारण गैर इस्लामिक भी है-उससे इस अभिशाप को मिटाने में सराहनीय योगदान मिला है।
अब नई व्यवस्था के लिए तैयारी की जा रही है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अब तीन तलाक की वर्तमान में जारी प्रक्रिया को सुधारने की दिशा में मौलवियों और काजियों को दिशा-निर्देश जारी करेगा। इन दिशा-निर्देशों को पूर्णत: लोकतांत्रिक और एक उदार सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप बनाने व ढालने का प्रयास किया जाएगा। अब विवाद होने पर पति पत्नी पारस्परिक सहमति से हल निकालेंगे। यदि उनकी पारस्परिक सहमति से हल नहीं निकलता है तो कुछ समय के लिए वे अस्थायी रूप से अलग हो जाएंगे जिससे कि परिस्थितियों की उत्तेजना शांत हो सके और दोनों को एक दूसरे को समझते हुए अपनी गलती का अहसास करने का अवसर मिल सके। यदि इसके उपरांत भी समस्या जस की तस रहती है तो दोनों पक्षों के वृद्घजनों और एक मध्यस्थ के माध्यम से समस्या का समाधान खोजा जाएगा। यदि वृद्घजनों का ज्ञान और अनुभव भी समस्या को सुलझाने में असफल रहता है तो पति एक बार तलाक बोलेगा और पत्नी इदद्त अवधि पूरी करेगी। इदद्तकाल में यदि दोनों में कोई समझौता हो जाता है तो ठीक, नहीं तो इदद्त पूरी होने के पश्चात विवाह विच्छेद हो जाएगा। यदि इदद्त अवधि समाप्त होने पर भी दोनों में समझौता हो जाता है तो फिर दोनों निकाह कर सकेंगे। अब यह भी व्यवस्था की जा रही है कि दूल्हा-दुल्हन को निकाह के समय ही यह शर्त लिखित में देनी होगी कि वे तलाक नहीं लेंगे। इसके साथ-साथ वर को निकाह के समय ही यह बता दिया जाएगा कि वह जीवन भर तीन तलाक नहीं देगा, क्योंकि  ऐसी क्रूर सामाजिक व्यवस्था को शरीयत में असंगत और अवांछित माना गया है।
‘अकल के दखल’ को कुछ लोगों ने इस्लाम के लिए पूर्णत: प्रतिबंधित और निषिद्घ कर दिया था, उसी का परिणाम था कि मुस्लिम महिलाएं ‘तीन तलाक’ की पूर्णत: अमानवीय व्यवस्था को झेल रही थीं। वे अभिशप्त थीं-पुरूष प्रधान समाज की स्वेच्छाचारिता को झेलने के लिए। लोगों ने नारी को केवल बाजार की चीज समझ लिया था, जिसे जब चाहो बदल दो और जब चाहो नई ले आओ। ऐसी सोच मानव समाज के लिए अभिशाप थी। मुस्लिम समाज के संवेदनशील लोग इस व्यवस्था के विरूद्घ थे, पर वह इस्लाम की कठमुल्लावादी तंग व्यवस्था के सामने अपने आपको असहाय मान रहे थे। इतना ही नहीं राजनीति भी मुस्लिम महिलाओं का कल्याण करने में अपने आपको असमर्थ पा रही है। अब खुली हवाओं के झोंके आने लगे हैं तो ऐसे संवेदनशील मुस्लिमों को अवश्य सुखानुभूति हो रही है जो नारी को पुरूष के लिए पत्नी ही न मानकर उसे बहन बेटी, बुआ, माता आदि के रूप में भी देख रहे थे। उन्हें पता था कि जब किसी नारी को तलाक दिया जाता है तो वह एक व्यक्ति की पत्नी ही नही होती अपितु उसी समय वह किसी की बहन भी होती है तो किसी की बेटी और किसी की बुआ या किसी की मां भी होती है, और इस प्रकार की अमानवीय तीन तलाक की व्यवस्था से उस समय इन सारे रिश्तों का दिल टूटकर रह जाता है। ऐसा लंबे काल से होता आ रहा था और इस्लाम का एक वर्ग-‘कठमुल्ले लोग’ इस्लाम को आगे बढऩे से रोके खड़े थे। उनकी दृष्टि दोषपूर्ण थी, मन काला था और नीयत बुरी थी। उन्हें ‘हलाला’ का ‘चस्का’ लग चुका था, और वे लोग 21वीं सदी में भी नारी को पुरूष की भोग्या बनाकर रखने की हठ कर रहे थे। यह सारी व्यवस्था और उसे पोषित करने वाला यह कठमुल्लावाद न केवल अलोकतांत्रिक था अपितु निर्दयी और क्रूर भी था। जिसका समापन होना ही चाहिए था।
यूनान के विख्यात दार्शनिक सुकरात बहुत कुरूप थे। वे सदा अपने साथ एक दर्पण रखा करते थे। सुकरात दर्पण में अक्सर अपना चेहरा देखा करते थे। एक दिन कुछ लोगों ने सुकरात से इसका कारण पूछा। 
सुकरात थोड़े हंसे। फिर बोले, मैं जानता हूं कि मैं बहुत कुरूप हूं। इसलिए मैं क्षण-क्षण दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब निहारा करता हूं। जिससे हर क्षण मुझे यह अनुभूति बनी रहे कि मैं बहुत कुरूप हूं और अपनी इस कुरूपता को सुंदरता में बदलने के लिए लोगों की भलाई के लिए मुझे सुंदर और उत्तम कार्य करने चाहिएं।
जैसे सुकरात को उनकी कुरूपता भी सुंदर कार्य करने के लिए प्रेरित करती थी, वैसे ही सुंदर लोगों को भी उनकी सुंदरता सुंदर कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकती है कि जैसा सुंदर मैं हूं वैसे ही सुंदर मेरे कार्य भी हों।
इस प्रकार दर्पण व्यक्ति का अच्छा मित्र हो सकता है। जैसे दर्पण अच्छा मित्र है वैसे ही स्वस्थ आलोचना भी हमारी मित्र होती है। आलोचना शास्त्रार्थ को जन्म देती है और शास्त्रार्थ से यथार्थ का सत्यार्थ निकलकर आता है। यह सत्यार्थ ही समुद्रमंथन के पश्चात मिलने वाला अमृत है। जिसे पीकर कोई भी अमर हो सकता है। कोई माने या न माने पर हमने ‘तीन तलाक’ पर अपने सामने ‘देवताओं और राक्षसों’ द्वारा किया गया समुद्रमंथन कार्य पूर्ण होते देखने का सौभाग्य प्राप्त किया है। इस समुद्रमंथन से इस्लाम को सुकरात की भांति अपने चेहरे को देखने का अवसर मिला है और उसने सुकरात की भांति ही सुंदर कार्य करने का निर्णय लिया है। जिससे स्पष्ट होता है कि समुद्रमंथन का यह ‘भागीरथ प्रयास’ सफल रहा है। इस महान कार्य में समाज के जिन प्रगतिशील लोगों का व पूरी राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था का और इस्लामिक विद्वानों का सहयोग रहा है-वे सभी बधाई के पात्र हैं।

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