राजस्थान सरकार – ‘राइट टू हेल्थ बिल 2022 ‘ पर हंगामा है क्यों बरपा ?
अशोक भाटिया
स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर इन दिनों राजस्थान उबाल पर है। यह देश की पहली ऐसी राज्य सरकार है, जिसने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत लाया राइट टू हेल्थ बिल 2022 बीती 21 मार्च को पारित किया है। विधेयक के प्रावधानों से असंतुष्ट लगभग 2,500 निजी अस्पतालों के डॉक्टर सड़कों पर हैं। इस वजह से राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से लड़खड़ा गई हैं। वहीं यह विधेयक उन मरीजों के लिए बहुत ही लाभकारी बताया जा रहा है, जो निजी अस्पतालों का भारी-भरकम खर्च नहीं उठा सकते। इसे राजस्थान विधानसभा के पटल पर सितंबर 2022 में ही रखा गया था, लेकिन विपक्ष और डॉक्टरों की मांग पर इसमें कुछ संशोधन किए गए। इमरजेंसी की विशेष व्याख्या करते हुए इसमें दुर्घटना, पशुओं और सांप के काटने और प्रसव की जटिलताओं को भी शामिल किया गया।
हालाँकि अब स्वास्थ्य सुविधाओं को मूलभूत अधिकार बनाने के ऐतिहासिक कानून का निजी अस्पताल और डॉक्टर अनुचित और असंगत तरीके से विरोध कर रहे हैं जबकि उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था कि आखिरकार लोगों को ऐसा अधिकार मिला जिसे आजादी के 75 साल बाद भी नहीं दिया जा रहा था।राजस्थान में डॉक्टरों की तरफ से यह विरोध तब चरम पर पहुंच गया जब विधानसभा में इस किस्म का विधेयक आया और शुरुआती बाधाओं के बावजूद उसे पारित कराने का प्रयास किया जा रहा था। इस विधेयक को पिछले सत्र में ही पारित होना था लेकिन इसे प्रवर समिति को भेज दिया गया। अब विधानसभा के हाल के सत्र में 21 मार्च को राइट टु हेल्थ यानी स्वास्थ्य का अधिकार बिल पारित किया गया है। निजी अस्पतालों और डॉक्टरों का जोरदार और परेशान करने वाला विरोध इस विधेयक के समर्थन में मजबूत सिविल सोसाइटी आंदोलन के खिलाफ है जो अधिकार के तौर पर राजस्थान के सभी लोगों के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सभी किस्म की निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की मांग कर रहा है।
यह विधेयक ब्रिटेन में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) और यूरोप में अन्य विकसित देशों-जैसे मॉडलों के आधार पर बनाया गया है। 1945 से 1951 तक इंग्लैंड में स्वास्थ्य मंत्री रहे एनएचएस के योजनाकार ने काफी पहले कहा था कि ‘बीमार होना न तो ऐसा भोग-विलास है जिसके लिए लोगों को पैसे देने पड़ें, न ऐसा अपराध है जिसके लिए उन्हें दंडित किया जाए बल्कि ऐसी विपत्ति है जिसकी भरपाई पूरे समुदाय को मिल-जुलकर करनी चाहिए।’
सीआईआई द्वारा आयोजित एशियाई स्वास्थ्य सम्मेलन में प्रस्तुत आंकड़े के अनुसार, भारत में कम-से-कम 5 से 6 करोड़ लोग स्वास्थ्य खर्चों की वजह से गरीबी में डूब जाते हैं। पिछले साल जारी नवीनतम राष्ट्रीय स्वास्थ्य रिपोर्ट में बताया गया कि पूरे भारत में 2018-19 में स्वास्थ्य पर औकात से बाहर खर्च 2.88 लाख करोड़ था जो वर्तमान स्वास्थ्य खर्च का 53.23 प्रतिशत था, मतलब परिवारों ने वस्तुतः सरकार से अधिक खर्च किया।
राजस्थान इन सबको खत्म करने की दिशा में काम करने वाला पहला राज्य होगा जो पूरे देश में इसी तरह की सुविधा देने की सही मांग को दिशा देगा। लेकिन डॉक्टरों के प्रदेश संघ, खास तौर से वे जो निजी डॉक्टरों और निजी अस्पतालों का प्रतिनिधित्व करते हैं, ने इसका जी जान से विरोध किया है। उन लोगों ने यहां तक धमकी दी है कि अगर विधेयक को वापस नहीं लिया गया, तो वे हड़ताल पर चले जाएंगे। इन लोगों ने तीन महत्वपूर्ण मांगें की हैं जिनमें से कोई भी रोगियों के लिहाज से विधेयक को बेहतर नहीं बनाता।
विधेयक में एक खास प्रावधान हैः किसी भी आपातकालीन स्थिति में सरकारी या निजी अस्पताल में सभी निवासियों को बिना नगद और निःशुल्क चिकित्सा उपलब्ध कराई जाएगी। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करते हुए इसमें हजारों जानों को बचाने की संभावना है कि ऐसी हालत में किसी बीमार का निकटतम स्वास्थ्य केन्द्र पर समय पर इलाज किया जा सकेगा- भले ही उसकी भुगतान करने की क्षमता हो या नहीं। इसलिए, यह बात ज्यादा चक्कर में डालने वाली है कि आखिर, डॉक्टर ऐसे प्रावधान के खिलाफ क्यों हैं जो जीवन बचाने वाले हैं।
निजी स्वास्थ्य प्रदाताओं में आशंका है कि आपातकालीन देखभाल की लागत के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता और यह बहुत अधिक भी हो सकती है। हकीकत यह है कि कई मायनों में इस डर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। पहली बात यह है कि कुछ ही आपात मामले निजी अस्पताल में जाते हैं। दूसरी अहम बात यह है कि सभी आपात मामलों में ज्यादा खर्च हो, जरूरी नहीं। रोगी को सरकारी अस्पताल भेजने से पहले, कई आपात स्थितियों में रोगी को सार्वजनिक सुविधा में भेजने से पहले उसे स्थिर करने में उच्च लागत नहीं लगती। उदाहरण के लिए, दौरों के ज्यादातर रोगियों को गंभीर मामलों में भी सस्ती देखभाल की ही जरूरत होती है।
तीसरी, मुख्यमंत्री दुर्घटना बीमा योजना नामक राज्य सरकार की एक योजना पहले से ही मौजूद है जो प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) के राज्य संस्करण चिरंजीवी योजना के साथ जुड़ी हुई है। यह योजना सभी दुर्घटना पीड़ितों को मुफ्त आपातकालीन देखभाल की सुविधा देती है, भले ही उनकी बीमा स्थिति कुछ भी हो। सरकार को इसका दायरा बढ़ाकर सभी तरह की आपात देखभाल को इसमें शामिल करना चाहिए। लागत का कुछ हिस्सा उन अस्पतालों द्वारा वहन किया जा सकता है जिन्होंने भूमि सब्सिडी के रूप में सरकार से लाभ ले रखा है और जहां चिरंजीवी योजना आदि के माध्यम से रोगी पहुंच रहे हों।
दूसरी मांग जिला और राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरणों में डॉक्टरों के संघ के प्रतिनिधित्व की है। यह उचित मांग है। स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की जरूरत है ताकि न केवल डॉक्टरों बल्कि नर्सों, एएनएम और आशा को भी इसमें शामिल किया जा सके जो गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की बड़ी जिम्मेदारी निभाते हैं। साथ ही, जैसा कि सिविल सोसाइटी समूहों ने मांग की है, प्रतिनिधित्व में सिविल सोसाइटी समूहों, रोगियों के समूहों और नागरिकों के समूहों को शामिल किया जाना चाहिए।
तीसरी महत्वपूर्ण मांग उस प्रावधान को हटाने से जुड़ी है जो अधिनियम के तहत स्थापित शिकायत निवारण तंत्र के समक्ष लंबित किसी भी मामले में सिविल अदालतों में अपील करने पर रोक लगाता है। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी मामले में ऐसा प्रतिबंध कानूनन गलत और न्याय के अधिकार के खिलाफ है। सरकार को इसे हटाना चाहिए।
राजस्थान स्वास्थ्य का अधिकार अधिनियम एक सही कानून है और यह सरकारी स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत करने और समान स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने में सुधार के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करेगा और आने वाले समय में दूसरे राज्य भी उसका अनुसरण करेंगे।
पहले से मौजूद योजनाएं भी इस पर असमंजस की स्थिति बना रही हैं। राज्य सरकार ने इसी साल के बजट में चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना में 10 लाख रुपये तक मुफ्त इलाज की सुविधा को बढ़ाकर 25 लाख कर दिया। इस योजना में सरकार ने 1 अप्रैल 2022 से 31 दिसंबर 2022 के बीच 1,940 करोड़ रुपये का भुगतान किया था। दूसरी योजना सरकारी कर्मचारियों, मंत्रियों, पूर्व और वर्तमान विधायकों के लिए है। तीसरी ‘निशुल्क निरोगी राजस्थान योजना’ में सरकारी अस्पतालों में मुफ्त दवा, सभी ओपीडी-आईपीडी और रजिस्ट्रेशन की सुविधा है। इसमें मार्च 2022 से दिसंबर 2022 तक 1,072 करोड़ रुपये खर्च हुए। चौथी, निशुल्क टेस्ट योजना में मेडिकल कॉलेजों से संबंधित सरकारी अस्पतालों में 90 टेस्ट मुफ्त में कराने की सुविधा है।
हालाँकि अधिकांश डॉक्टरों का कहना है कि कानून ने उन्हें मरीजों को मुफ्त में सभी सेवाएं प्रदान करने के लिए मजबूर कर दिया है। हालांकि, कानून में जिन मुफ्त सेवाओं की बात की गई है, वे ज्यादातर सरकारी संस्थानों के लिए हैं। कानून सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों की ओर से मुफ्त ओपीडी सेवाओं, आईपीडी सेवाओं के परामर्श, दवाओं, निदान, आपातकालीन परिवहन, प्रक्रिया और आपातकालीन देखभाल’ का लाभ उठाने के अधिकार की बात करता है। अधिकांश बिल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित हैं। लेकिन डॉक्टर्स को इस बिल में शामिल किए गए नामित यानी डेसिगनटेड शब्द पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि डेसिगनटेड शब्द ऐसा है, जिसमें प्राइवेट हॉस्पिटल्स को निशाना बनाया जा सकता है।
वैसे ऐसा नहीं कि बिल रातों रात किसी अध्यादेश के द्वारा लाया गया हैं |इसके सोच विचार के लिए प्रयाप्त माथा पच्ची की गई है | राइट टु हेल्थ बिल का ड्राफ्ट पिछले साल मई में पब्लिक डोमेन में रखा गया था । इस पर सरकार ने कई स्टेकहोल्डर्स की टिप्पणियां मांगी थी। 23 सितंबर को, विधेयक को विधानसभा में पेश किया गया और फिर सलेक्ट कमेटी को भेजा गया। स्वास्थ्य मंत्री की अध्यक्षता वाली समिति ने कई हितधारकों के साथ विचार-विमर्श किया। हालांकि, सरकार और आईएमए के राजस्थान चैप्टर तथा यूनाइटेड प्राइवेट क्लिनिक्स एंड हॉस्पिटल्स एसोसिएशन ऑफ राजस्थान (UPCHAR) सहित विभिन्न चिकित्सा संघों के बीच कई दौर की बातचीत भी हुई। लेकिन अब 1,700 निजी अस्पतालों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक निकाय ने दावा किया है कि डॉक्टर असंतुष्ट रहे। तब भारी जनहित को ध्यान में रखते हुए, विधानसभा ने 21 मार्च को विधेयक पारित किया।
विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने भी दो मुद्दों पर आपत्ति की है। उसका कहना है कि इसमें कम से कम 50 बेड वाले मल्टिस्पेशलिटी अस्पताल ही हों और मरीजों की समस्या या शिकायत के लिए सिंगल विंडो सिस्टम हो। वैसे आपत्ति करने वाले भाजपा के दोनों ही विधायक कालीचरण सर्राफ और राजेंद्र राठौर बिल पर बनी प्रवर समिति के मेंबर भी थे। फिलहाल, सरकार जरूरत के हिसाब से संशोधन की बात कह रही है, लेकिन सवाल यह भी है कि बार-बार संशोधन होने से लोगों का इस पर भरोसा कितना रह जाएगा?
अशोक भाटिया,
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