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राजनीति संपादकीय

राष्ट्रघाती मुस्लिम तुष्टिकरण-भाग-2

राष्ट्रघाती मुस्लिम तुष्टिकरण-भाग-2
आज कुछ असामाजिक तत्व मजहब के नाम पर एक होकर देश को तोड़ रहे हैं। 12 राज्यों में नक्सलियों को कम्युनिस्टों का सहयोग और संरक्षण प्राप्त है। देश की आर्थिक नीतियों पर और कश्मीर के प्रश्न पर हम अमेरिकी दबाव में कार्य करते हैं।
शिक्षानीति और देश की न्याय व्यवस्था पर सरकार ने किसी विशेष वर्ग या राजनीतिक विचारधारा के लोगों को प्रसन्न करने के लिए तुष्टिकरण का उपाय अपनाते हुए उनका भारतीयकरण नहीं होने दिया है। उसमें भारतीयता नहीं है। इसलिए राष्ट्रप्रेम की भावना का सर्वनाश होता जा रहा है। सब ओर से देश के मूल्यों को  खतरा है। देश की संस्कृति को खतरा है। इसी कारण देश की स्वतंत्रता को भी वास्तविक खतरा है। इसी खतरे को हमें पहचानना होगा।
आज राष्ट्र के नागरिकों को यह समझना होगा कि ‘स्वतंत्रता को खतरा’ है, का जो नारा हमारे नेता हमारे समक्ष देते हैं, उसका अर्थ उनके शब्दों की भाषा में न समझकर हम उनके आचरण की भाषा से समझें। स्वतंत्रता सचमुच संकट में है, अपहृत है, दुष्टों के चंगुल में है। आज राष्ट्र को इस वास्तविक स्वतंत्रता को प्राप्त करने के लिए ही लड़ाई  करनी है। हमें इन सत्ताधीशों काले अंग्रेज अधिनायकों से भी कहना होगा कि-व ‘(काले) अंग्रेजों भारत छोड़ो।’ इनसे भारत छुड़वाने का अभिप्राय है कि भारत की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था का पूर्णत: भारतीयकरण किया जाए और उसे वैदिक संस्कृति के मूल्यों के अनुरूप ढालकर राष्ट्र निर्माण के पुनीत कार्य में हम सब जुट जाएं।
गठबंधन की राजनीति
भारत में संसदात्मक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अंग्रेजों की नकल करते हुए लागू किया गया। अपने उन विदेशी आकाओं की नकल करना हमारे तत्कालीन राजनीतिक आकाओं को अच्छा लगता था। इस शासन में कहने को तो लोकतंत्र की वास्तविक स्वामी जनता है, किंतु वास्तव में यह लोकतंत्र भारत में तो एक परिवार का तंत्र अथवा जागीर होकर रह गया।
नेहरू जी के समय से ही इस ओर सारी कांग्रेस कार्य करने लगी थी। इस मनोवृत्ति की परिणति ‘देवकांत बरूआ’ जैसे लोगों के इस कीर्तिगान में देखी गयी कि-‘इंदिरा इज इंडिया, एण्ड इंडिया इज इंदिरा।’ वास्तव में देवकांत बरूआ के ये शब्द उस समय उन जैसे कितने ही चमचों, गुर्गों और चाटुकारों की मन: स्थिति और उस परिस्थिति का प्रतिनिधित्व करते थे जो इस दल के नेताओं अर्थात नेहरू परिवार ने अपने लिए तैयार कर ली थी। यह प्रवृत्ति कांग्रेस को खा गयी, क्योंकि इसने कांग्रेस के भीतर अपने बूते खड़ा होने वाला नेतृत्व उत्पन्न नहीं होने दिया। फलस्वरूप सारी कांग्रेस किसी एक परिवार की मुट्ठी में बंद होकर रह गयी। जो लोग इन गीतों को न गा सके उन्होंने या तो कांग्रेस स्वयं छोड़ दी अथवा छोडऩे के लिए उन्हें बाध्य कर दिया गया। बहुत से लोगों की ‘पॉलिटिकल डैथ’ भी कर दी गयी।
पश्चिम बंगाल में साम्यवाद
इंदिरा जी ने अपने समय में पश्चिम बंगाल को साम्यवादियों की झोली में डाल दिया। उन्हें अपने प्रधानमंत्री पद की चिंता थी, इससे अलग किसी अन्य व्यक्ति के ‘राजनैतिक कैरियर’ की उन्हें तनिक भी चिंता नही थी। उनकी इस अधिनायकवादी और अलोकतांत्रिक सोच व कार्यप्रणाली से लोकतंत्र राजतंत्रीय तानाशाही में परिवर्तित हो गया।
राष्ट्र को, अधिनायकों के गीत गाने वालों ने (राष्ट्रीयगान को देखें उसमें ‘अधिनायक’ शब्द आज भी जुड़ा हुआ है) रातों रात अधिनायकवाद में फंसा दिया। इस समय में कई गलत कार्य देश में हुए। विषयान्तर भय से यहां उनका उल्लेख करना उचित नहीं होगा। देश में इंदिरा जी ने आपातकाल लागू कर दिया।
इस आपातकाल की एक देन यह रही कि इंदिरा जी की जेलों में जूते खा-खाकर विपक्ष को कुछ विवेक उत्पन्न हुआ। उन्होंने पहली बार सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करते हुए एक होकर चुनाव लडऩे का निर्णय किया। जिन प्रयोगों को इंदिरा जी प्रांतों में कहीं-कहीं क्षेत्रीय दलों के साथ कर रही थीं -वही प्रयोग प्रथम बार केन्द्र की राजनीति में हमारे विपक्ष ने अपनाया। इस प्रकार भारत में पहली गठबंधन सरकार 24 मार्च 1977 ई. को मोरारजी देसाई जैसे कडक़ राष्ट्रवादी नेता की अगुवाई में गठित हुई। किंतु देश की जनता को शीघ्र ही ज्ञात हो गया कि इस गठबंधन के रथ में जितने घोड़े जुते हुए हैं उन सबकी दिशा अलग-अलग है। परिणाम स्वरूप मोरारजी भाई को यह रथ खींचना कठिन हो गया, और शीघ्र ही उन्हें अपना पदत्याग करके इस रथ को छोडऩा पड़ गया।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715

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