‘अधिकतम’ का उपाय सोचें
इस प्रकार यह ‘न्यूनतम’ शब्द नई समस्याओं को उत्पन्न करने वाला शब्द है। इसके स्थान पर ‘अधिकतम’ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। जिसका अर्थ हो कि सभी दल ऐसे उन सभी बिंदुओं पर कार्य करेंगे जिनके आधार पर उन्होंने जनता से मत मांगा था। जिस दल के जितने अधिक सांसद हैं उसके उतने ही विषयों का ‘राष्ट्रीय एजेंडा’ में स्थान दिया जाना चाहिए। इस प्रकार न्यूनतम पर नही अपितु अधिकतम बिंदुओं के सांझा कार्यक्रम पर कार्य किया जाए। इससे अधिकतम लोगों की अधिकतम अपेक्षाएं पूर्ण हो सकेंगी।
इस छल-प्रपंच से हमारे राजनीतिज्ञों को बाज आना चाहिए कि हम ‘कम से कम’ राष्ट्रहित के विषयों पर कार्य करेंगे। यह केवल भारत में ही होना संभव है कि यहां वोट जिन विषयों पर मांगे जाते हैं शासक दल उनसे विपरीत कार्य भी यदि करें तो उन्हें यहां की राजधर्म से विमुख जनता ऐसा करने देती है। यदि जनता यहां जागरूक हो तो जिस समय में राजनीतिज्ञ न्यूनतम सांझा कार्यक्रम की मिर्ची का छोंक लगाकर हमारी आंखों में धूल झोंकते हैं तभी इनसे यह पूछा जाए कि आपको हमने वोट जिस आधार पर दिया था उसे कितने अंश में इसमें सम्मिलित किया गया है?
उदाहरण के रूप में इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जिस दल ने समान नागरिक संहिता के विषय में लेकर सौ ें से 25 सीटें प्राप्त कीं और इसका विरोध करने वाले ने मात्र पांच सीटें प्राप्त कीं तो जनमत का बहुमत यह बताता है कि सत्ता के लिए गठबंधन कर रहे दल 25 सीटें प्राप्त करने वाले दल के विषयों को ‘राष्ट्रीय एजेंडा’ में सम्मिलित करें। तब बनेगा ये अधिकतम विषयों का सांझा कार्यक्रम।
सत्ता सुख का एजेंडा
भारत में गठबंधन के स्वार्थी नेता और दल पांच वर्ष तक सत्ता सुख भोगने के लिए एजेंडा तैयार करते हैं। स्वार्थों को जीवित रखते हैं, और परमार्थ का नाटक करते हैं। इसलिए यह गठबंधन की राजनीति भारत में सफल नहीं हो पा रही है और ना ही हो पाएगी। यहां न्यूनतम का गुणगान करने वाले पांच के स्थान पर पच्चीस को वोट देते हैं और फिर जनता से ही कहते हैं-‘मेरा भारत महान।’ महान क्यों? इसलिए कि जनता ने तो उसे सत्ता सुख भोगने का अवसर नहीं दिया, किंतु फिर भी वह अवसर प्राप्त करने में सफल हने गया। तब तो उसके लिए भारत महान ही हुआ माना जाएगा।
जनता ने अवसर दिया था सांसद बनने का। सत्ता सुख की तिकड़म महोदय ने स्वयं भिड़ा ली। जहां की जनता तिकड़म का विरोध करना ही नही जानती हो भला वह देश तो महान ही कहलाएगा।
विभिन्न विचारधाराएं नही अपितु महत्वाकांक्षाएं प्रभावी हैं
भारत में राजनीतिज्ञों ने एक भ्रांति जनमानस में व्याप्त की हुई है कि हमारी विचारधाराएं अलग-अलग हैं जबकि सतही आधार पर वोटों के लिए ये लोग विरोध करते हैं, मौलिक विचारधारा इनके पास अलग से नहीं है। यथा भारत की विदेशनीति को सभी तब तक कोसते हैं जब तक कि वे विपक्ष में है। किंतु सत्ता पक्ष में आते ही मोरारजी ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ पाने के लिए और अटल जी ने शांति के क्षेत्र में ‘नोबेल पुरस्कार’ पाने के लिए राष्ट्रहितों पर ऐसी चुप्पी साध ली है कि लज्जा को भी लज्जा आ जाए। आप स्वयं ही देख लें, ये नेता-
न 370 धारा को बदल पाते हैं।
न विदेश नीति में आमूल चूल परिवर्तन कर पाते हैं।
न अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे पाते हैं।
न शिक्षा नीति को देश की संस्कृति के अनुसार लागू कर पाते हैं।
न बहुसंख्यक हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए उचित और ठोस उपाय कर पाते हैं।
न उद्योग नीति को निर्धन वर्ग के लिए उपयोगी बना सकते हैं।
न चुनाव सुधार कर सकते हैं।
न माफियाओं, गुण्डों, बदमाशों को संसद में जाने से रोक सकते हैं।
कहां तक गिनाएं? क्या-क्या लिखें? इन धूर्तों से कौन यह पूछे कि यदि आपकी विचारधारा भिन्न-भिन्न है तो उपरोक्त वर्णित सभी बिन्दुओं पर और इन जैसी अन्य ज्वलंत समस्याओं पर आपकी मौलिक और ठोस रणनीति, कार्यनीति और इनके उपाय क्या हैं?
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715