लेखक- पं० युद्धिष्ठिर मीमांसक
जिस समय योरोपीय देशों में वेदार्थ जानने के लिए प्रत्यन हो रहा था, उसी समय भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने एक सर्वथा नई दृष्टि से वेदार्थ करने का उपक्रम किया। स्वामी दयानन्द का वेदार्थ इन दोनों प्रकार के वेदार्थों से भिन्न था। स्वामी दयानन्द ने वेदार्थ की प्राचीन और अर्वाचीन सभी प्रक्रियाओं का भारतीय ऐतिहासिक दृष्टि से अनुशीलन किया और इस बात का निर्णय किया कि वेद और उसके अर्थ की वह स्थिति नहीं है, जो यज्ञों के प्रादुर्भाव के पीछे उत्तरोत्तर परिवर्तन होकर बन गई है। अपितु जिस समय यज्ञों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, उस समय वेदों की जो स्थिति थी और जिस आधार पर वेद का अर्थ किया जाता था, वही उसका वास्तविक अर्थ था। इसके लिए उन्होंने समस्त वैदिक और लौकिक, आर्ष और अनार्ष, सर्वविध संस्कृत वाङ्मय का आलोडन किया। मनुस्मृति, षड्दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् और महाभारत आदि ग्रन्थों में जहां कहीं भी उन्हें प्रसङ्ग प्राप्त प्राचीन वेदार्थ सम्बन्धी संकेत उपलब्ध हुए उनके अनुसार प्राग्यज्ञकालीन वेदार्थ करने के जो नियम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने निर्धारित किए, वे इस प्रकार हैं-
१. वेद अपौरुषेय वा मनीषी स्वयंभू कवि का काव्य वा देवाधिदेव की दैवी वाक् वा ज्येष्ठ ब्रह्म की ब्राह्मी वाक् वा प्रजापति की श्रुति वा महाभूत का निःश्वास होने से अजर अमर अर्थात् नित्य है। अतएव
२. वेद में किसी देश जाति और व्यक्ति का इतिवृत्त नहीं है। इस कारण
३. वेद के समस्त नाम पद (=प्रातिपदिक) यौगिक (=धातुज) हैं, रूढ़ नहीं। अतएव उनके सर्वविधप्रक्रियानुगामी होने से
४. वेद सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। इसलिए
५. वेद में आधिभौतिक तथा आधिदैविक समस्त पदार्थ विज्ञान का सूत्र रूप से वर्णन है। इसके साथ ही आध्यात्मिक दृष्टि से
६. वेद के किसी भी मन्त्र में ईश्वर का परित्याग नहीं होता अर्थात् सम्पूर्ण वेद का वास्तविक तात्पर्य अध्यात्म में है। अतएव
७. वेद के अग्नि, वायु, इन्द्र आदि समस्त देवता वाचक पद उपासना प्रकरण (=अध्यात्म) में परमेश्वर के वाचक होते हैं और अन्यत्र भौतिक पदार्थ के। याज्ञिक क्रिया का पर्यवसान आधिदैविक विज्ञान में होने से
८. युक्ति प्रमाणसिद्ध याज्ञिक क्रिया कलाप, मन्त्रार्थनुसृत विनियोग और तदनुसारी याज्ञिक अर्थ भी ग्राह्य है, अन्य नहीं।
९. वेद मनीषी स्वयंभू कवि का काव्य होने से उसकी वाक्यरचना बुद्धिपूर्वक है। अतएव
१०. वेद में भौतिक जड़ पदार्थों से अभिलषित पदार्थों की याचना, अश्लीलता, वर्ग-द्वेष और पशु-हिंसा आदि-आदि असम्भव तथा अनर्थकारी बातों का उल्लेख नहीं है।
११. वेद स्वतः प्रमाण हैं, अन्य समस्त वैदिक, लौकिक, आर्ष और अनार्ष वाङ्मय परत: प्रमाण अर्थात् वेदानुकूल होने से मान्य है। अतएव
१२. वेद की व्याख्या करने में व्याकरण, निरुक्त, छन्द:, ज्योतिष, पदपाठ, प्रातिशाख्य, आयुर्वेदादि उपवेद, मीमांसा वेदान्त आदि दर्शन, कल्प (श्रौत, गृह्य, धर्म) सूत्र, ब्राह्मण और उपनिषद् आदि आदि समस्त वैदिक, लौकिक, आर्ष और अनार्ष वाङ्मय से सहायता ली जा सकती है (क्योंकि इनमें प्राचीन वेदार्थ सम्बन्धी अनेक रहस्यों के संकेत विद्यमान हैं), परन्तु कोई भी मन्त्र-व्याख्या इन ग्रन्थों के अनुकूल न होने वा विपरीत होने से अमान्य नहीं हो सकती, जब तक वह स्वयं वेद के विपरीत न हो।
इन नियमों के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद के साढ़े छ: मण्डल और सम्पूर्ण यजुर्वेद का भाष्य रचा। उन्होंने अपने भाष्य में इन मूलभूत सिद्धान्तों का सर्वत्र अनुगमन किया है। जैसे सायण और स्कन्द स्वामी आदि भाष्यकारों ने सिद्धान्त रूप से वेद का नित्यत्व और उसमें अनित्येतिहास के अभाव का प्रतिपादन करके भी अपने वेदभाष्यों में इन मूल सिद्धान्तों का अनुगमन करने में असमर्थ रहे, ऐसा दोष स्वामी दयानन्द के भाष्य में कहीं नहीं है।
[सन्दर्भ ग्रन्थ- मीमांसक-लेखावली (प्रथम भाग); प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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