सत्ता में लिप्त सभी दल
हमने जनता पार्टी को सत्ता को सत्ता सौंपी, चरण सिंह के लोकदल को सत्ता सौंपी, वीपीसिंह के जनता दल को सत्ता सौंपी, राष्ट्रवाद की प्रहरी बनी भाजपा को सत्ता सौंपी और आज साम्यवादियों के सहयोग से चल रही कांग्रेसी सरकार को पुन: सत्ता सौंप दी है, लेकिन शासन का ढंग वही है जो सन 1947 ई. में हमने अंगीकृत कर लिया था। तब इसका क्या अर्थ हुआ? अर्थ यह हुआ कि यह जितने लालू, मुलायम, रामविलास, शरद पवार, शरद यादव, मायावती, अटल, आडवाणी मार्का नेता हमें दिखायी देते हैं-इन सबके पास अपनी-अपनी विचारधारा नहीं है, अपितु अपनी-अपनी ऊंची-ऊंची अभिलाषाएं और महत्वाकांक्षाएं मौजूद हैं जिन्हें ये शीघ्र से शीघ्र पूरा कर लेना चाहते हैं। यदि किसी केे पास अपना चिंतन है भी तो उसे उसी केे साथी चलने नहीं देते। माना जा सकता है कि इन लोगों में से कई लोग चिंतनशील और विशाल हृदयी व्यक्तित्व के स्वामी हैं-परंतु यदि शासन को लोककल्याण का आधार न बनाने में और लोकतंत्र को लूटतंत्र बनाने में ये लोग सहायक रहे हैं तो इन्हें सफल राजनीतिज्ञ नहीं माना जा सकता। अटल जी जैसे राजनेता को उन्हीं के साथ रहने वाले आडवाणी जैसे लोगों ने असफल कर दिया।
राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए लंबी लड़ाई लडऩे के लिए इन नेताओं में से अधिकांश के पास समय नहीं है। इसलिए ये गठबंधन के नाम पर ‘बेमेल की खिचड़ी’ पकाते हैं। विभिन्न महत्वाकाक्षाओं को एक नाव में सफर कराने के लिए बलात बैठाने का प्रयास करते हैं। ये महत्वाकांक्षाएं जिस दिन नाव पर बैठती हैं उसी दिन उसे डुबाने के लिए अपने-अपने प्रयास तेज करना आरंभ कर देती हैं। कम से कम सन 1977 से तो राष्ट्र ऐसी महत्वाकांक्षाओं को देखता और झेलता चला आ रहा है, फिर भी आश्चर्य है कि इन धूत्र्त नेताओं का यह गठबंधन वाला ‘धंधा’ यहां एक अच्छे उद्योग की भांति फलफूल रहा है। न जनता सावधान है और न ही देश का बुद्घिजीवी वर्ग इन विषमताओं को उजागर करने के लिए सामने आ रहा है। पता नहीं, इन परिस्थितियों में यह देश कैसे चलेगा? कैसे बनेगा इसका स्वर्णिम भविष्य? और कैसे होगी क्रांतिकारियों के बलिदानों की रक्षा? बस परमात्मा ही रक्षा करे।
उत्तरदायित्व किसी का नहीं
हमने भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को देखा और झेला। इससे पूर्व भी गठबंधन की सरकारों को देखा और झेला था और आज भी देख और झेल रहे हैं। इन गठबंधनों के समय जो शिक्षा हमें मिली है वह यह है कि भाजपा के सहयोगी भी सरकार के साथ इसलिए असहयोग करते रहे कि यदि सरकार गिरती भी है तो बुराई तो भाजपा को ही मिलेगी। इसलिए आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जैसे लोग अपनी कीमत बढ़वाते रहे और सरकार का दोहन करते रहे। यही स्थिति दूसरे दलों के नेताओं की रही, वे गठबंधन धर्म भूलकर अपना मूल्य बढ़वाने के चक्कर में लगे रहे। इसी को सत्ता की दलाली कहा जाता है।
इसी प्रकार ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में अपना मूल्य कुछ अधिक ही मानती और मनवाती रहीं। उधर तमिलनाडु में जयललिता का घमंड जब तक तमिलनाडु की जनता ने ही नहीं तोड़ दिया तब तक वह भी अपनी वास्तविक स्थिति को भूले रहीं।
उधर गठबंधन का बड़ा दल इस भूल में रहता है कि मुझे जनता अधिक चाहती है, शेष तो सभी तेरे पिछलग्गू हैं, इसलिए यदि सरकार गिरती भी है तो तू जनता से स्वयं को स्पष्ट बहुमत दिलाने की अपील करना, जिससे इन छोटे दलों से सदा-सदा के लिए मुक्ति मिल जाए। इस प्रकार की सोच गठबंधन के प्रत्येक दल को राष्ट्र और राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति उदासीन बनाती हैं।
उनकी यह भावना अनुउत्तरदायित्व की भावना है जिससे राष्ट्र के हित प्रभावित होते हैं। हर दल की यही सोच होती है कि तेरा सहयोगी दल भी तुझसे अध्किा लोकप्रिय न होने पावे। सौतनों की भांति हरन् दल एक दूसरे की लोकप्रियता से घृणा करता है जिससे राष्ट्र का अहित होता है। आज मनमोहन सिंह के साथ भी यही हो रहा है। कांग्रेस और मुलायम की समाजवादी पार्टी विवशता के कारण एक दूसरे की बगल में बैशाखी लगाये खड़ी है, किंतु दोनों ही उस अवसर की खोज में है कि जब अपनी सरकार बचाकर दूसरे की सरकार को गिरा दिया जाए। उधर वामपंथी दलों के अपने हित है। उनके बैशाखियों का मूल्य कांग्रेस समझती है, इसलिए चुप है। साम्यवादी भी अपने मूल्य का पूरा-पूरा लाभ ले रहे हैं।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715
मुख्य संपादक, उगता भारत