पश्चिम पहले संघ को समझे, फिर करे आलोचना
अवधेश कुमार
अमेरिका के जाने-माने शिक्षाविद और वॉल स्ट्रीट जर्नल के स्तंभकार वॉल्टर रसेल मीड ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी के बारे में जो लिखा है, उस पर पूरी दुनिया में बहस चल रही है। मीड ने लिखा है कि वर्ष 2014 और 2019 के आम चुनावों में लगातार भारी जीत के बाद अब बीजेपी 2024 में भी सफलता की ओर बढ़ रही है। इसे सुर्खियां बनना ही था। किंतु उनके लेख का मुख्य बिंदु 2024 का चुनावी आकलन नहीं है। संघ और बीजेपी की पृष्ठभूमि, विचारधारा और उसके चरित्र के बारे में जो कुछ उन्होंने लिखा, वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
क्या हैं तीन स्थापनाएं
उनकी तीन बातें विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।
पहली, बीजेपी ऐसे अनोखे राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास की बुनियाद पर खड़ी है, जिसे भारतीय मूल्य और संस्कृति से परिचित लोग ही समझ सकते हैं।
दूसरी, बीजेपी विश्व की सबसे महत्वपूर्ण विदेशी राजनीतिक पार्टी है, लेकिन इसे संभवत: सबसे कम समझा गया है।
तीसरी, बीजेपी की बुनियाद क्या है? उनके लेख का मूल स्वर यह है कि बीजेपी को समझने के लिए संघ को भी समझना होगा। संघ के बारे में उनका कहना है कि एक समय में हाशिए पर पड़ी विचारधारा के आधार पर सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आंदोलन चलाने वाला यह दुनिया का सबसे मजबूत नागरिक संगठन है।
ध्यान रहे, दुनिया भर में चर्चा का विषय बना मीड का यह आलेख राहुल गांधी द्वारा लंदन में संघ को मुस्लिम ब्रदरहुड के समतुल्य बताने के बयान के तुरंत बाद आया है। हालांकि विरोधी इससे खुश हो सकते हैं कि बीजेपी की व्याख्या करते हुए मीड ने भी मुस्लिम ब्रदरहुड का नाम लिया है। लेकिन उनका संदर्भ अलग है।
मीड कहते हैं कि बीजेपी दुनिया की जिन तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियों के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों को साथ लाती है, वे हैं- इस्राइल की लिकुड पार्टी, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और इजिप्ट की मुस्लिम ब्रदरहुड।
मुस्लिम ब्रदरहुड की तरह बीजेपी पश्चिमी उदारवाद के कई विचारों को खारिज करती है, लेकिन आधुनिकता की प्रमुख विशेषताओं को अपनाती है।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तरह बीजेपी एक अरब से अधिक लोगों वाले राष्ट्र की अगुआई करती है ताकि वह वैश्विक महाशक्ति बन सके।
इस्राइल की लिकुड पार्टी की तरह बीजेपी परंपरागत मूल्यों के साथ बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था को अपनाती है।
जाहिर है, इसे केवल अमेरिका और वॉल स्ट्रीट के प्रसार क्षेत्रों के पाठकों को समझाने की दृष्टि से दिया गया उदाहरण मानना चाहिए। दुनिया में संघ और बीजेपी की तरह दूसरा कोई संगठन नहीं है, जिससे उनकी तुलना की जाए। जो उदाहरण उनके समक्ष है, उसे उन्होंने प्रस्तुत कर दिया। इसमें भी वह बीजेपी को इन सबसे अलग बताते हैं। इस तरह वह संघ को विश्व का अनोखा संगठन और उससे निकली बीजेपी को सभी उपलब्ध पार्टियों से अलग साबित कर देते हैं:
मीड लिखते हैं कि अमेरिकी विश्लेषक, खासकर वामपंथी उदारवादी अक्सर नरेंद्र मोदी के भारत को देखकर पूछते हैं कि यह डेनमार्क जैसा क्यों नहीं है? वे यह नहीं समझते कि भारत एक जटिल जगह है। पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्यों में भी बीजेपी ने उल्लेखनीय राजनीतिक सफलता प्राप्त की है।
दिलचस्प है कि एक अमेरिकी होते हुए भी उन्होंने इस सचाई को रेखांकित किया है कि RSS के यहां तक पहुंचने के पीछे हजारों स्वयंसेवकों की कई पीढ़ियां खपी हैं। जब हमारे ही देश के लोग हिंदू धर्म, हिंदुत्व और राष्ट्र आदि की सही समझ नहीं रखते तो इसे आश्चर्य ही कहा जाएगा कि पश्चिम का एक व्यक्ति हिंदुत्व, हिंदू धर्म आदि को बिल्कुल सही संदर्भों में समझ ले।
जहां तक पीढ़ियों के खपने की बात है तो 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापना के बाद गिनती करना मुश्किल है कि कितनी संख्या में प्रचारकों ने पूरा जीवन संघ और उससे निकले संगठनों के विस्तार की कोशिशों में लगा दिया। इस तरह का चरित्र विश्व के किसी संगठन में नहीं है। विद्वेष, घृणा, उग्रता जैसी विचारधारा वाले संगठन को इस तरह जीवन देने वाले कार्यकर्ताओं की फौज नहीं मिल सकती।
आलोचक कह सकते हैं कि मीड ने अमेरिका के रणनीतिक भविष्य की दृष्टि से बीजेपी और संघ का विश्लेषण किया है। उन्होंने कहा है कि अमेरिकी लोग बीजेपी और संघ के साथ जुड़ने के निमंत्रण को खारिज करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि चीन के साथ तनाव बढ़ रहा है और अमेरिका को आर्थिक राजनीतिक साझेदार के रूप में भारत की जरूरत है। उनके विश्लेषण को यहीं तक सीमित रखकर देखने का मतलब होगा सच को पूरी तरह नकारना। अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों के पत्रकार-लेखक संघ और बीजेपी के बारे में अक्सर अपने दृष्टिकोण से ही समझते और लिखते-बोलते रहे हैं।
नेशन स्टेट, नेशनलिज्म, रिलीजन, रिलीजियस या थियोक्रेटिक स्टेट, कल्चर, स्वदेशी आदि का उनका ज्ञान हमेशा उन पर हावी रहता है।
इसलिए राष्ट्र राज्य, हिंदू राष्ट्र, राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, हिंदुत्व आदि को हमेशा उग्र सांप्रदायिक, मजहबी और संकीर्ण राष्ट्रीयता के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
हकीकत यह है कि भारतीय संदर्भ में इन शब्दों के मायने बिल्कुल अलग हैं। यह समझने की कोशिश जिन कुछ पश्चिमी विद्वानों ने की, उन्हें अपनी ही दुनिया में मान्यता नहीं मिली।
पूर्वाग्रह से परे
बहरहाल, तात्पर्य यह नहीं कि वॉल्टर रसेल मीड ने संपूर्ण रूप से भारत तथा संघ और बीजेपी के दृष्टिकोण के अनुरूप विचार किया है। किंतु उन्होंने संघ और बीजेपी के लोगों से मिलने तथा उनके साहित्य का अध्ययन करने के बाद काफी हद तक पूर्वाग्रह से हटकर और सही संदर्भों में इन संगठनों को देखने की कोशिश की है।
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