वेदाचार्य डॉ. रघुवीर वेदालंकार
प्रात: काल के ४बजे थे कि अचानक ही सामने एक कौपीन धारी तेजोमूर्ति को सामने खड़े देखकर हतप्रभ रह गया। आँखें मसलकर देखा तो पाया कि महर्षि दयानंद हाथ में मोटा सोटा लिए खड़े हैं। डर तो लगा कि सोटे को पीठ की ओर न बढ़ादें, तथापि चरण -स्पर्श करके पूछ ही लिया ‘महर्षि आप’ कहाँ से?
दयानंद – सम्भवामि युगे युगे ।
मैं – भगवन् ! किसलिए कष्ट किया?
दयानंद – आर्यसमाज अमर रहे । वेद की ज्योति जलती रहे का तुमुल नाद मुझे सुनायी पड़ रहा था । सोचा, चलकर स्वयं इस दृश्य को देख तो आऊँ। अब तुम्हीं बताओ, आर्यसमाज की क्या दशा हैं ।
मैं – भगवन् ! आर्यसमाज खूब फैल रहा हैं। जगह जगह आर्यसमाज खुल रहे हैं। दिल्ली में ही २०० से भी अधिक आर्यसमाजें कहे जाते हैं।
दयानंद – फिर तो सत्संगों में बहुत उपस्थिति होती होगी ।
मैं- हाँ, महाराज । लगभग ६० वर्ष के १०-१२ सज्जन तो वहाँ अवश्य ही मिल जाते हैं जिनके सिर के बाल, वस्त्र तथा वहाँ बिछी हुई चादरें ये तीनों ही सफेद ही सफेद दिखलायी देते हैं। कभी- कभी तो मंत्री, प्रधान, पुरोहित, कोषाध्यक्ष ये चार व्यक्ति ही हवन पर बैठनेवाले मिलते हैं। बच्चों तथा युवा वर्ग के लिए तो आर्यसमाज मानो अस्पृश्य ही है।
दयानंद – ऐसा क्यों ?
मैं – ऐसा इसलिए कि रिटायर होने के बाद ये समाज सेवक मन्त्री/ प्रधान आदि पदों पर इतनी दृढ़ता के साथ जम जाते हैं जैसे कि अंगद का पैर। ये भला युवको को क्यों आने देंगे? मैं उपदेशक हूँ तथा अनेक समाजों में मैंने युवा वर्ग से ऐसी शिकायतें सुनी हैं। एक संरक्षक पद भी गढ़ा गया हैं जिससे कि प्रधान भूत होने पर आजीवन संरक्षक कहला सके। आपको भी संरक्षक पद देना चाहते थे, जिसे आपने यह कहकर अस्वीकार कर दिया था कि मेरा नाम सामान्य सदस्यों में ही लिखा जाए।
दयानंद – ये आर्यसमाजी चन्दा कितना देते हैं। अब तो महंगाई का युग हैं। पर्याप्त आय होती होगी।
मैं – हाँ, भगवन् ! समाजों की आय पर्याप्त है किन्तु वह चन्दे से नहीं अपितु भवनों के किराये से है। स्थायी किरायेदार हैं तथा शादियों, पार्टियों के लिए भी सत्संग – भवन किराये पर दे दिया जाता है, जिनमें पार्टी स्तर के सब काम होते हैं। सदस्यता शुल्क तो २, ५ तथा १० रुपये मासिक ही दिया जाता है। आपने शतांश का नियम व्यर्थ ही बनाया। इससे आर्य बन्धुओं को सदस्यता में ही झूठ बोलना पड़ता है।
दयानंद – मुझे गुरुदत्त मिला था। कह रहा था कि मैंने १६ बार सत्यार्थप्रकाश पढ़ा है। ये लोग तो बीसियों बार पढ़ते होंगे।
मैं – महाराज, ऐसे तो बहुत लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने २० पृष्ठ भी सत्यार्थ के नहीं पढ़े।बीसियों बार की बात तो आप इनसे ही पूछ लीजिए ।
दयानंद – और वेद का पठन- पाठन तो प्रत्येक आर्य करता होगा, क्योंकि यह परम धर्म है।
मैं – भगवन्! यह नियम साप्ताहिक सत्संग में दोहराने के लिए है। आप घरों में जाकर स्वयं देख लीजिए कि किन के घरों में चारों वेद हैं, पढ़ना तो दूर की बात रही।
दयानंद – अच्छा, सभाओं की क्या स्थिति हैं ।
मैं – बहुत अच्छी। खूब फल -फूल रही हैं। एक ही प्रान्त में एक ही नहीं, २-२, ३-३ सभाएँ बन रही हैं । आपने कहा था गोत्र हत्यारे दुष्ट दुर्योधन के रास्ते पर आर्यावर्त चल रहा है। यह परस्पर की फूट आर्यो का पीछा छोड़ेगी या नहीं। पीछा छोड़ भी देती, किन्तु आर्यसमाज के स्वनाम धन्य स्वामी आनन्दबोध जी २-२ सभाएँ तथा समाज बनवाकर ऐसी चोंटली डाल गये हैं कि ये आर्य परस्पर लड़ते ही रहेंगे।
दयानंद – अच्छा, २-२ सभाएँ तथा समाज काम तो खूब कर रहे होंगे ।
मैं – हाँ महाराज, खूब कर रहे हैं। वार्षिकोत्सव तथा बड़े-बड़े सम्मेलन करते हैं. बड़ा ही सरल रास्ता है कि जिसे भी नेता बनना हो वह २-४ बड़े – बड़े सम्मेलन करके अपनी शक्ति का परिचय दे दे।
दयानंद – आर्यसमाजों तथा आर्यों के सामाजिक कार्य क्या – क्या हैं।
मैं – दैनिक तथा साप्ताहिक सत्संग करते हैं। वेद कथा करते हैं। वार्षिकोत्सव करते हैं। अनेक समाजों में स्कूल, सिलाई केन्द्र, औषधालय भी चलाते हैं।
दयानंद – तब तो बहुत जनता आर्य बन चुकी होगी।
मैं – आपके पास अपने समय का हिसाब – किताब हो तो मिलान कर लीजिए कि तब से संख्या घटी ही होगी, बढ़ी नहीं है।
दयानंद – ऐसा क्यों? १२५ वर्षो में भी ऐसा क्यों?
मैं – ऐसा इसलिए कि कुछ अपवादों को छोड़कर आर्यों की सन्तति न तो आर्यसमाजों में जाती है तथा न ही आर्य बनती है। दूसरे व्यक्ति बनें ही क्यों? क्योंकि उन्हें फँसाने के लिए अनेक धर्मगुरु मैदान में उतर आये हैं। वहाँ उपस्थिति भी लाखों में होती है जबकि आज आर्यसमाज के बड़े से बड़े सम्मेलन में भी लाखों की उपस्थिति नहीं होती।
दयानंद – यह पाखण्ड क्यों बढ़ रही है। मेरी पाखण्ड खण्डनी का आर्यों ने क्या किया।
मैं – महाराज, इसे मोहन आश्रम, हरिद्वार में स्थापित कर दिया गया है, क्योंकि खण्डन से लोग नाराज होते थे। आपसे भी नाराज होते थे। गालियाँ देते थे। पत्थर मारते थे। अब गालियाँ तथा पत्थर कौन खाये? आपके शिष्य श्रद्धानंन्द, लेखराम, राजपाल गोलियाँ तथा छुरे खा गये। तब से आर्य थर्रा गये कि कहीं हमारा भी यही हाल न हो जाए। परिणामस्वरूप ऐसे मेंढ़क भी अब जोर से टर्टराने लगे हैं कि जिनकी आपके समय में कोई आवाज ही न थी।हंसामत, ब्रम्हकुमारी, राधास्वामी आदि का ही प्रचार – प्रसार आप देखेंगे तो हतप्रभ रह जाएँगे। कई आचार्यों तथा बापुओं के ताम – झाम तो इनसे पृथक् हैं।
दयानंद – पुरोहित वर्ग क्या कर रहा है?
मैं – वह खूब दक्षिणा कमा रहा हैं, संस्कार करा रहा है। उसने प्रचार का ठेका नहीं लिया है।
दयानंद – उपदेशक वर्ग क्या कर रहा है।
मैं – आर्यसमाज का उपदेशक युग समाप्त हो चुका है। आज सभाओं के पास उपदेशक ही नहीं हैं। सभाओं का ध्येय प्रचार कराना रह भी नहीं गया है। उनका ध्येय सभाओं तथा गुरुकुलों पर कब्जे करना, वहाँ की सम्पत्ति को बेचना, यात्रा के बड़े – बड़े झूठे बिल बनाना, एक ही व्यक्ति का कई – कई पदों पर प्रतिष्ठित होना ही एकमात्र कार्य रह गया है। इन कार्यों की पूर्ति के लिए ही बेचारों को पर्याप्त उठक – पटक करनी पड़ती है । फिर प्रचार के लिए समय कहाँ से आएँ।
दयानंद – स्वामी श्रद्धानन्द पूछ रहे थे कि मेरे गुरुकुल की क्या दशा है।
मैं – गोलियों की आवाज स्वामी श्रद्धानन्द जी तक भी जाती
होगी। तीन – तीन सभाएँ इसकी स्वामिनी हैं। सभी इसे नोचना चाहती हैं। चांसलर तथा वाइस चांसलर बनने का लोभ इतना सर्वव्यापी है कि इसी के लिए सभाओं के मंत्री / प्रधान पदों को हथियाते हैं तथा बाद में गुरुकुल में दनदनाते हैं।
दयानंद – पण्डित वर्ग क्या कर रहा है?
मैं – यह वर्ग समाप्त हो गया है। अब तो अभाव में महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में पढ़ाने – वाले अध्यापक ही इस धर्म को निबाह रहे हैं। उनमें से अधिकतर सिद्धान्तों के मर्मज्ञ नहीं, अपितु व्याख्यान कुशल हैं इनके अतिरिक्त कुछ वक्ता ऐसे भी हैं कि जो कहते हैं कि वेद ही ईश्वर है। क्या आपका यही सिद्धांत था? ये लोग तथा इनके योगी गुरुजी नमस्ते का उत्तर भी नमस्ते से न देकर ओ३म् से देते हैं।
दयानंद – संन्यासी वर्ग क्या कर रहा है?
मैं – पहली बात तो यह कि आर्यसमाज में संन्यासी हैं ही गिनती के। ऐसा इसलिए कि आर्यलोग आश्रम मर्यादा का पालन नहीं करते। जो कुछ थोड़े – से हैं, उनमें से कुछ तो गुरुकुल या अन्य संस्थाओं के माध्यम से समाज की अच्छी सेवा कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त कुछ का काम तो लाल कपड़े करके सभाओं तथा अन्य संस्थाओं पर कब्जे करना मात्र रह गया है। तीनों ही एषणाओं में आकण्ठ डूबे हैं। प्रचार करने – वाले परिव्राट् तो कम ही दिखलायी देते हैं। आप ही अपना एक उत्तराधिकारी बना जाते तो अच्छा होता। कुछ संन्यासी राजनीति में सक्रिय हैं तथा इतने उदार हैं कि मुसलमानों से भी विवाह आदि सम्बन्ध की बात कहते हैं तथा उन्हें उसी रूप में आर्यसमाज सदस्य बनाने की वकालत करते हैं। शबाना आजमी के साथ भी कभी देखे जाते हैं । कभी पोप से मिलने जाते हैं।
दयानंद – अच्छा!
मैं – राजनीतिक दृष्टि से आर्यसमाज हाशिए पर पहुँच गया है। पहले तो कुछ प्रबुद्ध आर्य, विधान सभाओं तथा संसद के सदस्य तथा मंत्री बने भी अब तो सफाया – सा नजर आता है. राजनीति में पार्टी की पूछ होती
है, चाहे वह छोटी ही हो। तभी तो सुसंगठित भारतीय जनता पार्टी को भी उ. प्र. में सरकार बनाने के लिए मायावती की खुशामद करनी पड़ी। आपने सर्वप्रथम स्वराज्य का उद्घोष किया, किन्तु कांग्रेस ने गांधीजी को ही स्वतन्त्रता का दाता प्रचारित करके आपको पर्दे के पीछे धकेल दिया।
दयानंद – यह स्थिति कैसे बनी, जबकी स्वतन्त्रता संग्राम में ८०% आर्यसमाजियों ने ही योगदान दिया, ऐसा मैंने सुना है ।
मैं – ऐसा इसलिए हुआ कि आर्यसमाज ने आपके द्वारा प्रतिपादित राजार्य सभा को पूर्ण सम्मान नहीं दिया। आपने तो चक्रवर्ती राज्य की बात लिखी है, किन्तु आर्य तो भारत में भी अपना साम्राज्य स्थापित नहीं कर सके, क्योंकि इन्होंने कोई राजनीतिक पार्टी खड़ी नहीं की। मेरे विचार में तो यह अच्छा काम नहीं था। अकाली दल की भाँति आर्यसमाज को भी अपने नियन्त्रण में कोई राजनितिक दल खड़ा करना चाहिए था, तभी तो वैदिक मान्यताएँ प्रचारित की जातीं। आप भारत में आएँ तो आपको स्पष्ट विदित हो जाएगा कि आज राजनीति पर किसका कब्जा हैं। इससे एक हानि यह भी हुई कि आर्यसमाज का राजनीतिक मंच न होने से राजनीति के जीवाणुओं से परिपोषित कुछ नेता आर्यसमाज में ही राजनीति करने लगे। आर्यसमाज की छवि धूमिल होने लगी।
दयानंद – बेटा, यह तो तुम बहुत ही शोचनीय स्थिति बता रहे हो। मैंने तो ऐसी कल्पना भी नहीं की थी। तो क्या आर्यसमाज में लोकाराधन के कर्म कहीं भी नहीं हो रहे ?
मैं – नहीं, महाराज ! सारे कुओं में भांग नहीं पड़ी है। अभी व्यक्तिगत तथा संस्थागत स्तर पर अनेक अच्छे कार्य हो रहे हैं। आर्यसमाज में अभी भी शास्त्रज्ञ पण्डित, अच्छे वक्ता, कुशल सेवक, उत्साही कार्यकर्ता, श्रद्धेय संन्यासी तथा आचारवान् लोग विद्यमान हैं। अभी भी अनेक गुरुकुल संस्कृत के प्रचार – प्रसार में संलग्न हैं। स्कूलों के द्वारा भी कुछ न कुछ प्रचार हो ही रहा है । धर्मार्थ अस्पताल चल रहे हैं। चाहे उत्तरकाशी का भूकम्प हो या गुजरात का, अभी भी आर्यजन वहाँ जाकर पर्याप्त कार्य करते हैं तथा कर रहे हैं। कुछ संस्थाएँ शोध कार्य भी करा रही हैं । इस प्रकार बिल्कुल निराशा की स्थिति तो नहीं हैं, हाँ अधिक अच्छी भी नहीं है। आर्यसमाज की ऊर्जा शनैः -शनैः समाप्त हो रही है। परस्पर झगड़े बढ़ रहे हैं। स्वाभाविक न्यूनताएँ आर्यसमाज में घर कर कर गयी हैं. आज आर्यसमाज के प्रमाद के कारण ही पाखण्ड पुनः पनप रहा है। आपसी फूट के कारण लोगों की श्रद्धा हममें कम हो रही है । पदलिप्सा के कारण आपसी झगड़े तथा मुकदमेबाजी होते हैं। युवा एवं कुमार वर्ग के आर्यसमाज से अछूता रहने के कारण नयी पौध आर्यसमाज में न आकर संस्था भी घट रही है। विधर्मियों के विरूद्ध कुछ भी न लिखा न बोला जाने के कारण वे ही लोग स्वयं तो बढ़ ही रहे है, आर्य सिद्धान्तों पर आक्षेप भी करते हैं। यदि आर्यसमाज समय की गति को समझले तथा वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन करके भविष्य के लिए कोई ठोस योजना बनाए तो स्थिति सुधर भी सकती है, अन्यथा सुधार होना असम्भव है। आर्यसमाज में इस समय कुशल, त्यागी, तपस्वी, निस्वार्थ, दूरदृष्टि सम्पन्न नेतृत्व का अभाव है। स्वामी आनन्दबोधजी तो फिर भी सबको किसी न किसी प्रकार जोड़ते रहते थे। उनके बाद तो स्थिति बिगड़ ही गयी। इतना कहते ही स्वामीजी ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, अच्छा ४ बजने वाले हैं। मैं समाधि लगाने जा रहा हूँ। फिर कभी मिलेंगे। हाथ का स्पर्श पाते ही मेरी नींद खुल गयी तथा मैंने देखा कि मैं अपने ही कमरे में बिस्तर पर पड़ा हूँ । चार बजने वाले हैं।