Categories
संपादकीय

देश के इतिहास की ‘मीरजाफरी परंपरा’ और राहुल गांधी जब अफगानिस्तान के अमीर को महात्मा गांधी ने भारत पर आक्रमण करने के लिए किया था आमंत्रित

महात्मा गांधी ने कभी हमारे देश में ‘खिलाफत आंदोलन’ चलाया था। बहुत लोग हैं जो यह मानते हैं कि खिलाफत का अर्थ अंग्रेजों का विरोध करना था। जबकि सच यह नहीं था। सच यह था कि टर्की के खलीफा को अंग्रेजों ने जब उसके पद से हटा दिया तो उसकी खिलाफत अर्थात धार्मिक जगत में उसकी हुकूमत को फिर से स्थापित कराने के लिए गांधी जी ने भारत में आंदोलन चलाया। यद्यपि मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना जैसे लोग भी नहीं चाहते थे कि खलीफा की खिलाफत की लाश के लिए गांधी इस प्रकार का प्रलाप भारत में करें। गांधीजी का यह खिलाफत आंदोलन मोपला जैसी भयानक त्रासदी को लेकर आया। जब 1920 – 21में मोपला ( केरल ) में लगभग 25000 हिंदुओं को मुसलमानों ने गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया। गांधीजी की आंखें इसके उपरांत भी नहीं खुली। उसी समय गांधी जी ने अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्लाह खान को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। मोहम्मद अली जैसे मुस्लिम नेता इस कार्य में बढ़-चढ़कर गांधी का सहयोग कर रहे थे। गांधीजी का मानना था कि भारत हिंदू और मुसलमानों का है और मुस्लिम सल्तनत को वह सहन कर सकते हैं, पर अंग्रेजों की सल्तनत को नहीं। गांधीजी अपने लेखों में कई बार यह लिख चुके थे कि औरंगजेब उनका आदर्श है जो कि एक दयालु बादशाह था।
उक्त घटना का उल्लेख स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज ने सार्वजनिक रूप से अपने लिब्रेटर में करते हुए लिखा था। उस दस्तावेजी साक्ष्य और अमीर को गांधीजी की लिखावट का एक मसौदा तैयार किया गया था। जिसे मौलाना महोमा ने स्वामी जी को दिखाया था। अपने ‘यंग इंडिया’ में गांधीजी ने लिखा था कि यदि अफगान सफल हुए तो भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करना सुनिश्चित करेंगे। गांधीजी मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा पर पहुंच गए थे, जब उन्होंने भारत के मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए सारे देश के हिंदुओं को अफगानिस्तान के अमीर अमानुल्लाह खान के सामने डालने की मन में ठान ली थी। इस घटना का उल्लेख ‘हिंदू राष्ट्र दर्शन’ के पृष्ठ संख्या 98 पर किया गया है।
भारत के इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जो इतिहास लेखक बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए महाराणा प्रताप के दादा महाराणा संग्राम सिंह को दोषी ठहराते हुए उन्हें कोसते हुए नहीं थकते, वही गांधीजी के इस प्रस्ताव को या अफगानिस्तान के अमीर को भारत पर आक्रमण करने के लिए बुलाने की घटना को भारत में गांधी जी के धर्मनिरपेक्षता के प्रति समर्पण के एक दिव्य भाव के रूप में देखते हैं। इतिहास में इस घटना को अधिक उभारा भी नहीं गया है।
अब आते हैं कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सबसे बड़े नेता राहुल गांधी की गतिविधियों पर। कांग्रेस के राहुल गांधी सावरकर जी के कथित माफीनामे को रह-रहकर उभारने की कोशिश करते हैं। प्रथमतया तो सावरकर जी ने ऐसी कोई माफी नहीं मांगी थी और यदि एक बार सोच भी लिया जाए कि उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी तो भी विदेशी शक्ति को भारत पर आक्रमण करने की घटना माफी मांगने की घटना से कहीं अधिक निर्मित है। क्योंकि माफी मांगना तो व्यक्तिगत है पर दूसरे देश को अपने देश पर आक्रमण करने के लिए निमंत्रण देना राष्ट्र के साथ अपघात है।
गांधीजी अपने समय में जो कुछ करना था कर के चले गए। पर यदि आज के गांधी अर्थात राहुल गांधी की नीतियों पर भी विचार करें तो उनका आचरण भी कुछ वैसा ही है जैसा उनके वैचारिक पूर्वज गांधी जी का था। यदि गांधी जी उस समय विदेशी शक्तियों को भारत पर आक्रमण के लिए बुलावा दे रहे थे तो आज राहुल गांधी भी उसी इतिहास को दोहरा रहे हैं, जब वे विदेश की भूमि पर खड़े होकर संसार की बड़ी शक्तियों से भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं और कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र मर रहा है , आप लोगों को हमारी सहायता करनी चाहिए। जैसे गांधी जी को उस समय औरंगजेब के मानस पुत्रों का शासन स्वीकार था और इसके लिए उन्हें देश के बहुसंख्यक को उस क्रूर शासन के सामने मेमने की भांति फेंकने को तैयार थे , उसी प्रकार राहुल गांधी को विदेशी शक्तियों का हस्तक्षेप स्वीकार है, और वे भी स्वयं के सत्ता स्वार्थ के चलते भारत के बहुसंख्यक समाज को आज भी विदेशी शक्तियों और भारत के मुस्लिमों के सामने फेंकने को तैयार हैं। अपनी इसी नीति के अंतर्गत राहुल और उनकी मां ने सांप्रदायिक हिंसा निषेध कानून लाने का प्रयास किया था। चीन के साथ भी वह क्या खिचड़ी पकाते रहते हैं ? इसकी चर्चा अक्सर समाचार पत्रों में होती रहती है।
राहुल गांधी इस समय लोकतंत्र को खतरे में बता रहे हैं। पर उनकी स्वयं की वजह से तो देश के लिए भी खतरा बढ़ रहा है ? उनकी पार्टी लोकतंत्र पर आए संकटों को लेकर पर्याप्त शोर मचा रही है। इसके उपरांत भी देश के लोग कांग्रेस और उसके नेता के साथ लगने को तैयार नहीं हैं। इसका कारण केवल एक है कि अभी 9 वर्ष पहले 2014 तक कांग्रेस की सरकार भारत के लोगों को आतंकवादियों से यह कहकर डराती रही थी कि अनजानी वस्तु को छुएं नहीं, अनजाने व्यक्ति के हाथ से भोजन या खाने पीने की कोई भी वस्तु ग्रहण ना करें। देश के अधिकांश लोग इस बात को भली प्रकार जानते हैं कि उस समय देश में कितना आतंक का परिवेश व्याप्त हो गया था ? लोग अजनबी चीज को देखकर भी घबरा जाते थे। पर आज बीते 9 वर्ष के काल में वह सब चीजें इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं। इसके चलते देश का जनमानस राहुल गांधी पर विशेष ध्यान नहीं दे रहा है। यही कारण है कि गांधी परिवार के किसी भी सदस्य की सभा में भीड़ नहीं पहुंच रही है। पी0 चिदंबरम जैसे कांग्रेस के बड़े नेता भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि राहुल गांधी के भीतर वह नेतृत्व नहीं है जो जनता को अपनी ओर आकर्षित कर सकें।
कांग्रेस के लिए वास्तव में राहुल गांधी बोझ बन चुके हैं और कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेता उनसे मुक्ति चाहते हैं पर कोई भी खुलकर नहीं कह सकता। इसी प्रकार की मानसिकता को समझ कर भाजपा के कई नेता टी0वी0 चैनलों पर कह रहे हैं कि राहुल गांधी के साथ जो कुछ हुआ है , वह उनके अपने संगठन की लापरवाही और उनके प्रति असहयोगी दृष्टिकोण के कारण हुआ है।
राहुल गांधी को लेकर उनके कई समर्थकों की मान्यता है कि जिस प्रकार सदस्यता गंवाने के बाद कभी इंदिरा गांधी के साथ देश का जनमानस लग गया था, उसी प्रकार आगामी लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी चुनाव की बाजी पलट सकते हैं और देश के लोग सहानुभूतिवश उनके साथ आकर जुड़ जाएंगे। इस प्रकार एक विक्टिम कार्ड के रूप में राहुल गांधी और उनके निकटस्थ मंडली के लोग उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त करने की घटना को इस प्रकार देखने का प्रयास कर रहे हैं। अब इन लोगों को यह कौन समझाए कि जनता पार्टी के समय में जब इंदिरा गांधी की संसद सदस्यता समाप्त की गई थी तो उस समय की परिस्थितियां दूसरी थीं और आज की परिस्थितियां दूसरी हैं। उस समय देश के लोगों ने पहली बार विपक्ष को सत्ता की चाबी सौंपी थी, पर विपक्षी दल जब सत्ता में आए तो वहां पर भी गिद्धों की भांति लड़ने लगे थे। इससे देश के लोगों ने परिपक्व निर्णय देने का मन बनाया और यह सोच लिया कि सत्ता में बैठकर केवल लड़ने के अतिरिक्त जो पार्टी या सरकार कुछ नहीं कर पाई उससे देश का भला नहीं हो सकता। यही कारण था कि उन्होंने उस समय देश के मतदाताओं ने इंदिरा गांधी में फिर से अपना भरोसा व्यक्त किया और देश की सत्ता उन्हें सौंप दी।
अब यदि देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि इस समय सत्ता में बैठे दलों में किसी प्रकार की कोई खींचतान नहीं है और वे भाजपा नीत गठबंधन में रहकर अपने आप को सुरक्षित और सम्मानित अनुभव कर रहे हैं। देश के मतदाताओं को वर्तमान सरकार से कोई गंभीर शिकायतें नहीं है। तब राहुल गांधी अपनी दादी के इतिहास को दोहरा पाएंगे, इस बात में संदेह है।
हमारी पूर्ण सहानुभूति राहुल गांधी के साथ है , क्योंकि हमारी भी इच्छा है कि देश में एक मजबूत और शक्तिसंपन्न विपक्ष खड़ा हो। राहुल गांधी राजनीति में अपने आपको कभी गंभीर व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए। राहुल गांधी कह रहे हैं कि मेरे नाम के पीछे सावरकर नहीं लिखा है। मैं गांधी हूं, इसलिए माफी नहीं मांगूंगा । यद्यपि वह अब से पहले न्यायालय के समक्ष एक से अधिक बार वे माफी मांग चुके हैं। उनकी इस प्रकार की बचकानी गतिविधियों और हरकतों का देश के जनमानस पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। कांग्रेस के भीतर भी कई ऐसे बड़े नेता हैं जो राहुल गांधी को ऐसी ही हरकतें करने के लिए उकसाते रहते हैं। कांग्रेस के इस प्रकार की सोच व मानसिकता वाले नेताओं का प्रयास है कि गांधी राहुल गांधी इसी प्रकार अपनी हरकतों से बदनाम होते रहे तो एक दिन वह आ जाएगा जब देश राहुल गांधी को विदा कर उनमें से किसी को अपना नेता स्वीकार कर लेगा।
कांग्रेस के पास इस समय खड़गे जैसे अनुभव शील नेता हैं, पर वे भी अपने नेता और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के भीतर बेकार का उत्साह भरने के लिए उन्हें ‘शेर’ बताने की गलती करते हैं। वास्तव में खड़गे जैसे नेताओं की इस प्रकार की सोच उनकी चाटुकारिता को ही स्पष्ट करती है। जिससे पता चलता है कि वह राहुल गांधी और सोनिया गांधी के समक्ष खुलकर नहीं बोल सकते। जब किसी भी पार्टी , संगठन या सत्ता में उच्च पदों पर बैठे लोगों के दरबार में इस प्रकार के चाटुकारों की फौज बढ़ती है तो ऐसे संगठन या राजनीतिक दलों या नेताओं का पतन होना निश्चित होता है। भारत की प्राचीन काल से परंपरा रही है कि राजा का महामंत्री अत्यंत स्पष्टवादी होना चाहिए और उसे समय पर कठोर भाषा का प्रयोग करते हुए राजा को सही परामर्श देते हुए संकटों से सचेत करना चाहिए। ऐसे में आवश्यक है कि कांग्रेस के अध्यक्ष श्री खड़गे जैसे नेता अपनी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को सही परामर्श दें और उन्हें लोकतंत्र और लोकतांत्रिक परंपराओं के साथ-साथ लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर अर्थात संसद के प्रति भी गंभीर बने रहने की शिक्षा दें।
अब आते हैं भाजपा की ओर। भाजपा यदि इस समय राहुल गांधी को जानबूझकर मैदान से हटा रही है और सोच रही है कि उनके हट जाने के बाद या चुनावों से दूर करा देने के बाद चुनावी मैदान उसके हाथों में होगा तो यह इस पार्टी की सबसे बड़ी भूल होगी। जब छल-बल से अपने प्रतिद्वंदी को मैदान से दूर किया जाता है तो वह छल-बल एक दिन अपने लिए पैरों की कुल्हाड़ी बन जाता है। आलस्य और प्रमाद बढ़ने से संगठन जर्जर होने लगता है और धीरे-धीरे पतन के गर्त में चला जाता है। हमारा देश भारत शत्रु के हाथ में तलवार देकर लड़ने वाला देश रहा है। इसने कभी निहत्थे शत्रु पर हमला नहीं किया और ना ही शत्रु को छलबल के माध्यम से मैदान से हटाने का अपराध किया। भाजपा हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना में विश्वास रखती है तो उसे हिंदू राजनीति के मूल्यों को भी अपनाना होगा। भाजपा से अपेक्षा की जाती है कि वह राहुल गांधी को चुनावी मैदान से न तो हटाए और न हटने के लिए मजबूर करे बल्कि उनके हाथों में तलवार देकर उनसे वीरता के साथ युद्ध करे।
राहुल गांधी से भी अपेक्षा की जाती है कि वह भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाएं और गांधी जी के द्वारा इतिहास में दर्ज कराई गई गलतियों को अपनाने का अपराध ना करें। उन्हें समझना चाहिए कि भारत अब जाग चुका है और वह उनके सहित प्रत्येक नेता की प्रत्येक गतिविधि पर बड़ी बारीकी से नजर रखता है। राहुल गांधी की प्रत्येक गतिविधि को देश के लोग महात्मा गांधी की गलतियों के साथ तोल तोल कर देख रहे हैं । यदि राहुल गांधी इतिहास में दर्ज की गई गलतियों से शिक्षा नहीं ले पाए तो 2024 ही नहीं अगले आम चुनाव भी उनके हाथों से चले जाएंगे। देश का जनमानस नहीं चाहता कि देश के इतिहास की बदनाम ‘मीरजाफरी परंपरा’ आगे बढ़े और विदेशों को भारत में आकर हस्तक्षेप करने के राहुल गांधी के आमंत्रण से उनका नाम भी इसी परंपरा में लिखा जाए ?

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

Comment:Cancel reply

Exit mobile version