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विशेष संपादकीय संपादकीय

‘ड्रैगन चीन का मकडज़ाल’

व्यक्ति का मौलिक चिंतन उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। मौलिक चिंतन जितना ही पवित्र, निर्मल, छल-कपट रहित और सार्वजनीन होता है, उसमें उतना ही सर्व-समावेशी भाव अंतर्निहित होता है, और वह मानवता के लिए उतना ही उपयोगी होता है। ऐसा व्यक्ति संसार के लिए उपयोगी और बहुमूल्य होता है और यह विश्व उसका ‘भूसुर’ के रूप में अभिनंदन करता है। यदि किसी व्यक्ति की महानता का वैश्विक पैमाना ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्ति ही होता तो ‘भूसुर’ जैसे पवित्र शब्दों का अस्तित्व ही नही होता। ‘नोबेल पुरस्कार’ प्राप्ति में तो लोग पता नहीं कैसी-कैसी युक्तियों का मकडज़ाल बुनते हैं, पर ‘भूसुर’  की महान उपाधि तो व्यक्ति के सहज, सरल और निष्कपट भाव से उसे स्वयं ही मिल जाती है।
जैसे एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को उसके महान गुण उच्चता और भव्यता प्रदान करते हैं, उसी प्रकार किसी राजनीतिक व्यवस्था को भी उसके चिंतन के मौलिक बिन्दु उच्चता और भव्यता या इसके विपरीत नीचता या हीनता प्रदान करते हैं। राजनीतिक व्यवस्थाओं में लोकतंत्र को मानवीय भावनाओं के सर्वथा निकट इसीलिए माना जाता है कि यह शासन प्रणाली व्यक्ति की गरिमा का और व्यक्ति के मध्य बंधुता को बढ़ाने का सबसे अधिक गंभीर और सार्थक प्रयास करती है। लोकतंत्र शासन प्रणाली धर्मानुकूल है, क्योंकि धर्म भी व्यक्ति को धारता है और उसकी गरिमा को वैश्विक मानस की पवित्रता देकर उसे मानवतावादी बनाता है। मानवतावाद में ही बंधुता विस्तार पाती है। यही कारण है कि हमारे ऋषि महर्षियों ने लोकतंत्र और धर्म का गहरा संबंध माना है। उनका मानना था कि जो धर्मानुकूल है-लोककल्याण की भावना से भरा है-वही लोकतंत्र है और जो लोकतंत्र है वही धर्म है। कहने का अभिप्राय हुआ कि राजनीति और धर्म का अन्योन्याश्रित संबंध है। आज के विद्वान यदि भारत के महान राजनीतिक मनीषियों के इस गंभीर चिंतन से मतभिन्नता रखते हैं तो यह इस विश्व का दुर्भाग्य है। ऐसी मतभिन्नता रखने वाले लोग अपूज्य हैं और यदि यह संसार दुर्भाग्यवश फिर भी इन अपूज्यों का पूजन कर रहा है तो मानना पड़ेगा कि अभी विश्व से दुर्भिक्ष, मरण और भय का साम्राज्य समाप्त नही होने वाला।
विश्व की दुर्भिक्ष, मरण और भय की राजनीतिक शासन प्रणाली को चीन ने अपनाया और विश्व में इस शासन प्रणाली के माध्यम से करोड़ों लोगों की आवाज को आज भी यह देश लोहे के ताले डालकर बंद कियेबैठा है। वहां एक ही पार्टी का शासन है-उसे एक ऐसे ‘राजनीतिक परिवार’ का शासन कह सकते हैं-जिसने विश्व में आबादी के दृष्टिकोण से सबसे बड़े एक देश पर अपना राजनीतिक वर्चस्व और एकाधिकार स्थापित कर लिया है। वहां यह अनिवार्य है कि देश का शासन प्रमुख एक ही परिवार (राजनीतिक दल) का व्यक्ति बनेगा। यह व्यवस्था पूर्णत: अलोकतांत्रिक है, क्योंकि इसमें लोक की आवाज को बलात् शांत किया जा रहा है, और ऐसी परिस्थितियां सृजित कर ली गयी हैं कि शासन ‘एक परिवार’ से बाहर जाने ही न पाये। ऐसा चिंतन सार्वजनीन और सार्वभौम नहीं हो सकता। क्योंकि इस चिंतन में किसी के अधिकारों का दमन है और अधिकारों का दमन करने की प्रवृत्ति व्यक्ति को स्वेच्छाचारी और उच्छ्रंखल बनाती है। जिससे किसी भी स्थिति में पक्षपात रहित न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे व्यक्ति का, या ऐसी शासन प्रणाली का या ऐसे देश का मौलिक चिंतन अन्याय, अत्याचार और दमन पर केन्द्रित होता है। जिससे वह लोकतंत्र के ‘भूसुर’  के विपरीत ‘विश्व दैत्य’ (ड्रैगन) बन जाता है। वह राक्षस होता और संसार के उसे ही भस्मासुर कहा जाता है।
‘नोबेल पुरस्कार’ यदि हमारे ऋषियों के ‘भूसुर’  की हल्की सी छाया दिखाता है तो ‘ड्रैगन’ तो हमारे ऋषियों के ‘भस्मासुर’ शब्द का ज्यों का त्यों स्थानापन्न है। भस्मासुर की संज्ञा उसी को दी जाती थी जो व्यक्ति या देश या शासन प्रणाली इस हंसती खेलती वैश्विक सभ्यता को मिटाने की योजनाओं में लिप्त रहती थी। आज चीन विश्व में ‘बड़े दादा’ अमेरिका को अपनी टांग के नीचे से निकालने के लिए विश्व में सैनिक अड्डे बना रहा है-इसके लिए वह मानो तीसरे विश्वयुद्घ की महाविनाशलीला की तैयारी कर रहा है। उसे ‘दादा’ का स्थान लेना है-एक रक्तिम क्रांति करनी है, इसलिए वह करोड़ों-अरबों लोगों को मारने की योजनाएं बना रहा है। जो लोकतंत्र के हत्यारे होते हैं, उन का चिंतन विध्वंस की योजनाओं में ही लगा रहता है उनसे किसी प्रकार के सृजन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। भारत को घेरने के लिए चीन पाकिस्तान में सैनिक अड्डे बनाने की तैयारी कर रहा है। यह देश धर्म को अफीम मानता है और लोकतंत्र का हत्यारा है। अत: इसके यहां लोककल्याण और विश्वकल्याण का उत्कृष्ट चिंतन निकलना सर्वथा असंभव है। इसलिए इससे किसी प्रकार के मानवतावाद की अपेक्षा करना अपने आपको अंधेरे में रखने के समान होगा।
हमें 1962 को ध्यान में रखकर अपनी सैन्य तैयारी  करनी होगी। किसी भी प्रकार का प्रमाद या आलस्य हमें विनाश की भट्टी में झोंक सकता है। चीनी सामान का बहिष्कार देश के लोगों को करना सीखना होगा। स्वदेशी अपनाकर राष्ट्रवाद की भावना का विस्तार करना होगा और घर के ‘जयचंदों’ की कार्यशैली पर सूक्ष्मता से दृष्टि रखनी होगी। यह ऐसे ही नहीं है कि भारत की एक राजनीतिक विचारधारा का नेता देश के सेनाध्यक्ष को ‘हिटलर’ की उपाधि दे देता है। हमें संकेतों और परिस्थितियों को समझना चाहिए कि क्यों एक राजनीतिक विचारधारा के लोग कन्हैया को ‘हीरो’ बनाना चाहते हैं और क्यों वे लोग ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ कहने वालों को पुरस्कार देते रहे हैं?
षडय़ंत्र गहरा है-
”गहरी साजिश गहरा राज,
मकडज़ाल का रचता दुर्भाव,
दुर्गन्ध फैली दूर-दूर तक
सिमटता जा रहा सद्भाव।”

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