इस बात को दृष्टिगत रखते हुए कृष्ण जी कहते हैं-‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मोभयावह:’ अपने धर्म में मर जाना भी उत्तम है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह है। इसे एक बात से हम समझ लें कि अध्यापक (ब्राह्मण) का कर्म पढ़ाना है, राजा का कर्म राज करना है। राज करने से पढ़ाना सरल है। यदि कोई विद्वान राजा अपने राजधर्म को छोडक़र पढ़ाने में रूचि ले तो यह उसके लिए श्रेयस्कर नहीं है। यह स्थिति उसके लिए अच्छी होकर भी प्रमाद वाली होगी। इसलिए राजा के लिए उचित है कि वह अपने शासन की जटिलताओं को सुलझाने की ओर ध्यान दे और लोक कल्याण में लगा रहे, यही उसका राजधर्म है और यही उसका नियत कर्म है। ऐसे सुयोग्य शासक के प्रति यह बात एकदम उचित प्रतीत होती है कि ‘कोऊ नृप होई हमें का हानि’।
राष्ट्रधर्म का महत्व
स्वधर्म के धर्म से अलग हम सबका एक अन्य धर्म भी है और वह है ‘राष्ट्रधर्म।’ वैसे तो राष्ट्रधर्म जनसाधारण तक के कार्यकलापों को भी अपने में समाहित किये हुए होता है किंतु राजनेताओं का राष्ट्रधर्म मुख्य रूप से अधिक अनुकरणीय और माननीय होता है। उनका चिंतन, अध्ययन, मनन सभी कुछ राष्ट्रधर्म में ही केन्द्रित होता है। उनका तो-
उठना बैठना भी राष्ट्रधर्म में आता है।
बोलना-सुनना और कहना भी राष्ट्रधर्म में आता है।
चलना-फिरना भी राष्ट्रधर्म में आता है।
राजनीतिज्ञों से जनसाधारण बहुत कुछ सीखता है, क्योंकि जनसाधारण अपने जननेताओं का अनुकरण करता है, और उनके द्वारा निष्पन्न आचरण को अपने लिए अनुकरणीय, ग्रहणीय और मननीय मानता है। पिछले दिनों भाजपा के पूर्व अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी पाकिस्तान के दौरे पर गये तो वहां के ‘कायदे आजम’ मौहम्मद अली जिन्ना की मजार के समक्ष इतने झुक गये कि अपने राष्ट्रधर्म को ही भूल गये। उन्हें स्मरण ही नहीं रहा कि जिस राष्ट्र का विघटन और विखण्डन कराने के लिए यह व्यक्ति उत्तरदायी रहा, और जिसके कारण अपनी पवित्र मातृभूमि को विभाजन की कष्टकारी प्रसव पीड़ा झेलनी पड़ी, आज उसी की मजार पर इतना झुककर अपनी पवित्र भारत भूमि के एक सपूत के रूप में खड़ा होना नितांत अशोभनीय है। वैसे भी भाजपा और आडवाणी जी की सारी राजनीति के केन्द्र में जिन्ना जैसे लोगों के प्रति ऐसा सम्मान दिखाने की कहीं कोई संभावना नहीं थी।
अत: आवश्यक है कि मां का सम्मान सुरक्षित रहे, स्वधर्म सुरक्षित रहे। किंतु स्वधर्म को परधर्म पर वारते हुए आडवाणी ने जिन्नाह के सम्मान में कशीदे पढऩे प्रारंभ कर दिये, उनका यह आचरण लोगों को अच्छा नहीं लगा।
फलस्वरूप ‘धर्मभ्रष्ट’ होकर जब वह भारत लौटे तो जितनी थू-थू उनकी हुई-उतनी भारतीय राजनीति में संभवत: आज तक किसी की न हुई होगी। लज्जाहीन होकर पद त्याग का नाटक किया, किंतु अब यह स्पष्ट हो गया है कि जिन्ना का जो जिन्न पाकिस्तान से लगकर आडवाणी के साथ आया है वह अभी उनका पीछा नहीं छोड़ रहा। राष्ट्रघात का दण्ड नियति लिख चुकी है। जब जनता ऐसे राजनीतिज्ञों को दंडित करने के अपने धर्म से च्युत होती है तो राष्ट्र में उपद्रव और विप्लव का तांडव होता है। आडवाणी के संदर्भ में इसे हम स्वयं अपनी आंखों से भारत में देख भी रहे हैं।
राजनीति का वेश्या रूप
हमारी जनता की उपेक्षा वृत्ति के कारण आज भारतीय राजनीति ‘वेश्या’ हो गयी है, उसके साथ जो भी चाहे सहवास कर सकता है। जबकि अपने मौलिक स्वरूप में राजनीति वेश्या नहीं है। वह मूल्यों पर और धर्म पर आधारित है। नैतिकता उसके रोम-रोम में बसी है। उसका अपना धर्म है, अपने आदर्श हैं, अपनी मान्यताएं हैं, अपने सिद्घांत हैं। वेश्या के पास इन सब मूल्यों का अभाव होता है। राजनीति उन्हीं लोगों का आवाह्न करती है जो स्वधर्म के प्रति जागरूक होते हैं। जो स्वधर्म के प्रति जागरूक होते हैं, जो स्वधर्म से विमुख होकर लोगों की आंखों से धूल झोंककर राजनीति में पहुंच जाते हैं वे दुष्ट होते हैं जो राजनीति नामक सती के साथ सहवास कर रहे हैं।
यह स्थिति कभी यह कहकर स्वीकार नहीं की जा सकती कि राजनीति वेश्या है। ऐसा कहना मानो सभ्य समाज के साथ एक असभ्य और क्रूर उपहास है। किसी की असहायवस्था को सहमति बताना भी एक अपराध है। वस्तुत: राजनीति भ्रष्ट नहीं है, राजनीति निकृष्ट भी नहीं है और राजनीति वेश्या भी नहीं है।
इसके संचालक, शासक और शासित प्रजातंत्र में दोनों ही है। शासक के हथकंडे, झंडे और डंडे तथा जनता के द्वारा उन हथकंडों, झंडों और डंडों पर अपनी सहमति की जितने अंश में मुहर लगा दी जाती है उतने ही अंश में राजनीति के भीतर गिरावट आती है। इसलिए शासक और शासित की नीति और नीयत से राजनीति का निर्माण होता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715