महाराणा राज सिंह का औरंगजेब को पत्र
महाराणा राज सिंह अपने समय में वैदिक हिंदू धर्म के रक्षक के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने हर उस असहाय भारतवासी की आवाज बनने का प्रयास किया जो उस समय क्रूर मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचारों का शिकार हो रहा था। अपने देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने हर वह कार्य करने का प्रयास किया, जिसे वह कर सकते थे। उन्होंने मेवाड़ के लोगों के भीतर ही नहीं, अपितु पूरे भारतवर्ष में हिंदू समाज के लोगों के भीतर वीरता का संचार करने का प्रयास किया। तत्कालीन क्रूर शासक औरंगजेब को उन्होंने चुनौती दी।
औरंगजेब उस समय हिंदुओं पर जजिया कर लगा रहा था । इस अनैतिक और अमानवीय कर के माध्यम से यह मुगल बादशाह हिंदुओं का रक्त चूस रहा था। धर्म हितैषी और देश हितेषी महाराणा राजसिंह क्रूर मुगल शासक औरंगजेब की सरकार की नीति को सहन नहीं कर सके। फलस्वरूप उन्होंने उसके लिए बहुत ही विनम्रतापूर्वक परंतु अपनी पूर्ण स्पष्टवादिता और देशभक्ति की भावना को प्रकट करते हुए पत्र लिखा । वह पत्र इस प्रकार था :-
“यद्यपि आपका शुभचिंतक मैं आपसे दूर हूं, तथापि आपकी राजभक्ति के साथ आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने के लिए उद्यत हूं। मैंने पहले आपकी जो सेवाएं की हैं, उनको स्मरण करते हुए नीचे लिखी हुई बातों पर आपका ध्यान दिलाता हूं। जिनमें आपकी और आपकी प्रजा की भलाई है। मैंने यह सुना है कि अनेक युद्धों के कारण आपका बहुत धन खर्च हो गया है और इस काम में खजाना खाली हो जाने के कारण उसकी पूर्ति के लिए आपने एक कर ( जजिया ) लगाने की आज्ञा दी है।
…… आपके पूर्वजों के भलाई के काम थे। इन उन्नत और अक्षर सिद्धांत पर चलते हुए वे जिधर पैर उठाते उधर विजय और संपत्ति उनका साथ देती थी। उन्होंने बहुत से प्रदेश और किले अपने अधीन किए। आपके समय में आपकी अधीनता से बहुत से प्रदेश निकल गए हैं। अब अधिक अत्याचार होने से अन्य क्षेत्र भी आपके हाथ से चले जाते रहेंगे। आपकी प्रजा पैरों तले कुचली जा रही है और आपके साम्राज्य का प्रत्येक प्रांत कंगाल हो गया है। आबादी घटती जा रही है और आपत्तियां बढ़ती जा रही हैं तो अमीरों का क्या हाल होगा? सेना असंतोष प्रकट कर रही है ,व्यापारी शिकायत कर रहे हैं। मुसलमान असंतुष्ट हैं, हिंदू दु:खी हैं और बहुत से लोग तो रात को भोजन तक नहीं मिलने के कारण क्रुद्ध और निराश होकर रात दिन सिर पीटते हैं कि हिंदुस्तान का बादशाह हिंदुओं के धार्मिक पुरुषों से द्वेष के कारण ब्राह्मण, सेवड़े, जोगी, बैरागी और सन्यासियों से जजिया लेना चाहता है।
वह आपके धार्मिक ग्रंथ जिन पर आपका विश्वास है, आपको यही बताएंगे कि परमात्मा मनुष्य मात्र का ईश्वर है ना कि केवल मुसलमान का। उसकी दृष्टि में मूर्तिपूजक और मुसलमान समान हैं। आपकी मस्जिदों में उसी का नाम लेकर लोग नमाज पढ़ते हैं वहां भी उसी की प्रार्थना की जाती है। इसलिए किसी धर्म को उठा देना ईश्वर की इच्छा का विरोध करना है। जब हम किसी चित्र को बिगाड़ते हैं तो हम उसके निर्माता को अप्रसन्न करते हैं।
मतलब यह है कि आपने जो कर ( जजिया ) हिंदुओं पर लगाया है वह न्याय और सुनीति के विरुद्ध है, क्योंकि उससे देश दरिद्र हो जाएगा। इसके अतिरिक्त वह हिंदुस्तान के खिलाफ नई बात है। यदि आपको अपने धर्म के आग्रह ने इस पर उतारू किया है तो सबसे पहले राम सिंह आमेर से जो हिंदुओं का मुखिया है जजिया वसूल करें । उसके बाद मुझे एक ख्वाहिश है क्योंकि मुझसे वसूल करने में आपको कम दिक्कत होगी परंतु चींटी और मक्खियों को पीसना वीर और उदार चित वाले पुरुषों के लिए अनुचित है। आश्चर्य की बात है कि आप को यह सलाह देते हुए आपके मंत्रियों ने न्याय और प्रतिष्ठा का कुछ भी ख्याल नहीं रखा।”
हिन्दू रक्षक महाराणा राज सिंह
यह पत्र उदयपुर के राजकीय कार्यालय में सुरक्षित है। जिसका डब्ल्यू0बी0 रोज का किया अनुवाद कर्नल टॉड ने अपने “राजस्थान का इतिहास” में किया है। “बंगाल एशियाटिक सोसाइटी” के संग्रह तथा तीसरी “रॉयल एशियाटिक संग्रह” लंदन में भी इसकी प्रति सुरक्षित रखी गई है। जिससे इस पत्र की प्रमाणिकता सिद्ध होती है और हमें पता चलता है कि महाराणा राज सिंह अपने शासनकाल में किस प्रकार हिंदूहित रक्षक के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे? महाराणा राजसिंह ने निसंकोच भाव से परंतु निर्भीकता के साथ औरंगजेब के समक्ष उस बात को रखने का साहस किया , जिसे उस समय कोई नहीं कर सकता था।
इस पत्र के माध्यम से महाराणा राज सिंह ने औरंगजेब के सामने उस समय के हिंदू समाज की मनोव्यथा को रखने का प्रयास किया। साथ ही मुगल शासक को यह भी आभास कराया कि देश के हिंदुओं को वह लावारिस ना समझें। पूरे हिंदू समाज के हित की हितों की रक्षा के लिए इस समय आमेर नरेश के साथ-साथ वह स्वयं भी जीवित हैं। बड़ी सहजता और विनम्रता के साथ औरंगजेब को महाराणा ने यह भी स्पष्ट किया कि आप मानवता के विरुद्ध आचरण कर रहे हैं, जिसका परिणाम एक दिन अवश्य भुगतना पड़ेगा।
महाराणा राज सिंह की दूरदर्शिता
इसी समय औरंगजेब ने एक विशाल सेना अपने पुत्र मुअज्जम ,गुजरात के सूबेदार मोहम्मद दीन, इलाहाबाद के सूबेदार हिम्मत खान आदि के साथ 3 सितंबर 1679 को दिल्ली से राजस्थान के लिए भेजी। बादशाह की यह सेना 25 सितंबर को अजमेर पहुंच गई। औरंगजेब युद्ध से भाग नहीं सकता था। ऐसी परिस्थितियों में युद्ध करना उसके लिए अनिवार्य हो गया था।
इस समय महाराणा राज सिंह की दूरदर्शिता और कूटनीति के चलते मारवाड़ और मेवाड़ एक होकर काम करने के लिए सहमत थे। राणा ने अपनी पूर्ण दूरदर्शिता का परिचय देते हुए और हिंदुस्तान के भविष्य के दृष्टिगत दोनों राजपरिवारों को एक साथ बैठाने में सफलता प्राप्त की। इस सैनिक गठबंधन के चलते औरंगजेब की रातों की नींद उड़ चुकी थी। दोनों राजाओं के बीच इस बात पर सहमति बन चुकी थी कि मुगलों से युद्ध के समय छापामार युद्ध का भी सहारा लिया जा सकता है। जब युद्ध चल रहा था । मुगल बादशाह ने उदयपुर का विनाश करने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर 1 दिसंबर 1679 को अजमेर से अपनी सेना के साथ प्रस्थान किया। इसके पश्चात उसके साथ उसके अन्य सूबेदारों के सेनादल आकर मिलते रहे। 4 जनवरी 1680 को वह मॉडल से उदयपुर के लिए चला।
महाराणा राज सिंह अपने पूर्वजों के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर चलते हुए औरंगजेब का सामना कर रहा था। ज्ञात रहे कि अबसे पूर्व के मेवाड़ के शासकों ने कई बार युद्ध में छापामार युद्ध का प्रयोग कर चुके थे। महाराणा राज सिंह ने अपने ही पूर्वजों के मार्ग पर चलने का निर्णय लिया। जिस प्रकार युद्ध के समय अब से पूर्व के महाराणा अपने शहरों को निर्जन कर दिया करते थे और खेतों को उजाड़ दिया करते थे, उसी प्रकार राजसिंह ने सारे मेवाड़ के क्षेत्र को निर्जन कर दिया। मेवाड़ के लोग नगरों, ग्रामों और शहरों को छोड़कर पहाड़ों की ओर चल पड़े। जब बादशाह देहबारी पहुंचा तो वहां पर तैनात हिंदू सैनिकों ने उसका सामना किया और वे सभी योद्धा युद्ध करते – करते वीरगति को प्राप्त हो गए। इसमें बदनेर के ठाकुर सांवल दास, सरदार मान सिंह जैसे कई योद्धा सम्मिलित थे।
औरंगजेब ने 2 अप्रैल, 1679 ई. में हिंदुओं पर जजिया कर लगाया था। महाराणा राज सिंह उस समय हिंदू शक्ति का अर्थात हिंदुओं के राष्ट्रीय मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। राष्ट्रीय मोर्चा के नेता के रूप में ही उन्होंने औरंगजेब की इस अत्याचार और दमनकारी नीति का विरोध किया था। महाराणा राज सिंह ने उस समय औरंगजेब के विद्रोही मारवाड़ के अजीतसिंह व दुर्गादास राठौड़ को शरण दी थी। महाराणा के इस कार्य की उस समय सर्वत्र प्रशंसा की गई थी। आज भी हिंदू समाज को उनके प्रति इस बात के लिए कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने उस समय एक अच्छी पहल करके हिंदू शक्ति को संगठित किया। मारवाड़ के अजीत सिंह को शरण देना सचमुच बहुत बड़ी बात थी और अपने आप को ही मुगलों का शत्रु बना लेने के समान बात थी।
इस प्रकार राजसिंह, दुर्गादास व अजीतसिंह तीनों ही औरंगजेब के कट्टर विरोधी हो गए।
महाराणा राज सिंह और उनके साथियों ने मिलकर औरंगजेब के बेटे अकबर को औरंगजेब के खिलाफ उकसाकर सत्ता संघर्ष में उसका साथ देना आरंभ किया। इस संबंध में जानकारी मिलती है कि इसका पता जब औरंगजेब को चला तो वह स्वयं महाराणा राज सिंह और उनके द्वारा समर्थित अकबर के विद्रोह को दबाने के लिए आया। औरंगजेब ने विरोधियों की शक्ति को अधिक देखकर कूटनीति का प्रयोग करते हुए 15 जनवरी, 1681 ई. को औरंगजेब ने धोखे से शहजादे अकबर के सेनापति तहव्वर खाँ को मरवा दिया। औरंगजेब ने अकबर के नाम एक जाली पत्र उसकी। प्रशंसा में लिखकर राजसिंह व दुर्गादास के खेमे के बाहर डलवा दिया। जिसमें लिखा था, कि “बेटा हो तो तेरा जैसा जिसने मेरे दोनों दुश्मनों को एक साथ एक ही मैदान में ले आया।” राजसिंह व दुर्गादास ने इस पत्र को पढ़ा तो उनका दिमाग चकरा गया और अकबर को गद्दार समझकर उसे वहीं मैदान में छोड़कर अपनी रियासत में आ गए।
शहजादे अकबर ने सुबह उठकर देखा तो राजसिंह और दुर्गादास अपने खेमे में नहीं थे। उसने सोचा कि राजपूत जाति, धोखा तो नहीं करती लेकिन इन्होंने मेरे साथ ऐसा क्यों किया। शहजादा अकबर वापस राजसिंह और दुर्गादास राठौड़ के पास गया तो उन्होंने उसे पत्र दिखाते हुए कहा कि “अच्छा बेटा तू हम दोनों को मरवाना चाहता था।” अकबर ने उनसे कहा कि “यह पत्र मेरे बाप के द्वारा लिखा गया जाली पत्र है। उसकी सोच हमारी सोच से हमेशा दो कदम आगे रहती है।” तब राजसिंह और दुर्गादास ने कहा कि शहजादे अकबर इस गलती के लिए हमें माफ कर दो। हम वापस तुम्हारा साथ देंगे। कुछ दिनों के बाद 1680 ई. में महाराणा राजसिंह को विष दे दिया गया। जिस कारण राजसिंह की कुम्भलगढ़ दुर्ग में मृत्यु हो गई।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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