संतति निरोध की मूर्खतापूर्ण नीतियां अपनाने का षडय़ंत्र
भारत में संतति निरोध की नीतियां भी पश्चिम के अंधानुकरण पर टिकी हैं। इस विषय को इससे जुड़ी हुई गुत्थ्यिों को हमारे राजनीतिज्ञों ने पश्चिमी दृष्टिकोण से ही देखा और समझा है।
पश्चिमी दृष्टिकोण से बढक़र दुर्भाग्यपूर्ण है इस विषय पर इस्लामिक दृष्टिकोण को मान्यता देने की भारतीय राजनीतिज्ञों की दोगली और राष्ट्रद्रोहपूर्ण नीतियां। उनके विषय में शरीयत और शेष के विषय में पश्चिमी दृष्टिकोण की ऊहापोह के मध्य राजनीतिज्ञों के लिए भारत का प्राचीन दार्शनिक दृष्टिकोण कहीं दबकर रह गया है। नई पीढ़ी भारतीय दृष्टिकोण के इस विषय को स्पष्ट करने को उत्सुक नहीं है। यही स्थिति राजनीतिज्ञों की भी है।
मर्यादित ‘काम’ की भावना मर्यादित ‘अर्थ’ की जनक होती है। यह भारतीय परंपरा है -संतति उत्पादन के विषय में। घर में पर्याप्त धन संपन्नता है या राष्ट्र को बाह्य अथवा आंतरिक संकट के कारण अच्छे योद्घा युवकों की आवश्यकता है तो संतान अधिक उत्पन्न करना भी अच्छा माना जाता है। किंतु यदि ऐसी कोई स्थिति नहीं है तो अधिक संतान उत्पत्ति श्रेयस्कर नहीं है।
स्त्री-पुरूष के स्वाभाविक पारस्परिक आकर्षण को ‘शारंगधर’ ने ‘काम’ कहा है, यह काम स्त्री-पुरूष को एक दूसरे की ओर आकर्षित करता है और एक दूसरे को आत्मिक धरातल पर जोड़ देता है। इसलिए दोनों एक अटूट बंधन में बंधे हुए (स्वयं को) समझते हैं, यह बंधन ऐसा है – जिसके कारण कोई सा भी एक दूसरे की भावना को अपवित्र नहीं करता। भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी को दंपत्ति कहा गया है, क्योंकि इन दोनों का मिलन एक और एक को मिलाकर ‘एक’ बनाने की भारतीय विवाह पद्घति की अनोखी परंपरा है।
काम की यह भावना इस अर्थ और संदर्भ तक बड़ी पवित्र रहती है। इसके रहने तक किसी श्रंगार, बनावट या दिखावट की किसी भी पक्ष को आवश्यकता नहीं होती। जब इसमें श्रंगार आदि आकर जुड़ जाती है, तब यही काम मानव का शत्रु बन जाता है, जो उसे यौवन में भडक़ा कर पटक-पटक कर मारता है। तब ‘वासना’ का नंगा नाच होता है। जो अनिष्टकारी साबित होता है।
वासना के इस नंगे नाच से जो संतति उत्पन्न होती है, वह जीवन भर निरू द्देश्य रहती है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति में सहायक बने माता-पिता के मिलन का उद्देश्य एक सुंदर सृष्टि करना नहीं होता, अपितु भडक़ी हुई वासना को शांत करते हुए एक खेल-खेलना मात्र उद्देश्य होता है। अत: परिणाम भी आशाओं के प्रतिकूल ही आता है। ऐसी संतान को ही संस्कृत में ‘कामजात:’ कहा जाता है। इसी शब्द को आजकल कुछ लोग ‘कमजात’ कहते हैं।
पाश्चात्य वासना
पश्चिमी जगत का दृृष्टिकोण ‘वासना’ है, जो श्रंगार आदि से भडक़ती है और उत्तेजनात्मक आकर्षण भरे स्वार्थपूर्ण मिलन को प्रेम मान लिया जाता है। इससे जब किसी एक का मन भर जाता है-तब वह किसी अन्य के प्रति आकर्षित हो जाता है। पूर्व का संबंध टूट जाता है। इस प्रकार विवाह को भी उनके यहां एक संविदा माना जाता है। जबकि भारतीय संस्कारों में इसे एक पवित्र संस्कार मान लिया गया है, जो कि शुद्घत: आत्मिक धरातल पर दो आत्माओं का परस्पर का सुंदर सम्मेलन है।
वह किसी आकस्मिक उत्तेजना या वासना की परिणति नहीं है, अपितु हृदय की गहराईयों से निकले वास्तविक प्रेम की एक सुंदर सी अभिव्यक्ति है।
इसी सुंदर सी अभिव्यक्ति को भारतीय राजनीतिज्ञों को अपनी ओर से नये शब्द और नये अर्थ देने चाहिए थे, जिससे भारत की यह सुंदर परिपाटी शेष विश्व के लिए भी आदर्श बन जाती। भारत की परंपरा और आर्यों की सभ्यता मोक्षाभिमुखी है, इसलिए वह आध्यात्मिक ढंग से हर समस्या पर सोचती है। जबकि पश्चिम की सभ्यता या इस्लामिक सभ्यता निरी भौतिकवादी सभ्यताएं हैं। इसलिए वह भोगवाद और भौतिकवाद पर टिकी हुई निरी ‘खोखली सभ्यताएं’ हैं, जिनका भवन रेत पर टिका हुआ है।
भारत का दृष्टिकोण
हमारे इस प्यारे देश भारत के निर्माण में ऋषियों का अप्रतिम योगदान रहा है। ऋषियों ने स्वानुभूत बातों को यथार्थ के धरातल पर एक संस्कार के रूप में इस प्रकार स्थापित किया, जिस प्रकार एक कुशल शिल्पी, भवन निर्माण में ईंट को काट-छांटकर सही रूप में स्थापित किया करता है। इन्होंने भारत की संस्कृति का निर्माण संस्कारों से किया। इसलिए मानव को संस्कारयुक्त बनाने पर ही बल दिया। मानव जन्म से शूद्र होता है। संस्कार युक्त मानव को ही द्विज कहा गया है। ऋषियों ने द्विजों की इस पावन संस्कृति को प्रकृति के सान्निध्य और सामीप्य में पुष्पित, पल्लवित और विकसित किया। अत: उन्होंने मानव का स्वाभाविक भोजन अन्न नहीं, अपितु शाक, फल-फूल, दूध, दधि इत्यादि को बताया।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715
मुख्य संपादक, उगता भारत