अन्नोत्पादन से कितने ही जीवों की हत्या हलादि से होती है। वनों का संकुचन होता है। फलत: पर्यावरण का संकट आ खड़ा होता है। इसलिए प्राकृतिक और स्वाभाविक रूप से जो कुछ हमें मिल रहा है वही हमारा स्वाभाविक भोजन है। अत: अन्न से रोटी बनाना और उसे भोजन में ग्रहण करना तो एक बनावट की स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऋषियों ने प्रकृति के सान्निध्य में बीतने वाले जीवन को ब्रह्मचर्य से सुगंधित किया। शाक, फल-फूल, दूध-दही के प्राकृतिक भोजन को लेने से ब्रह्मचर्य की सहज रूप में साधना संभव है। किंतु यदि भोजन में सहजता, स्वाभाविकता और प्राकृतिक अवस्था का अभाव है और मिर्च-मसाले आदि की चटपटाहट का प्राबल्य है तो वह शरीर में विकार और उत्तेजना उत्पन्न करता है।
हमारे ऋषि मुनि ईश्वर से प्रार्थना करते हुए आयु, प्राण, प्रजा (उत्तम संतति) पशुधन (घोड़े, हाथी आदि) कीर्ति, धन, ब्रह्मवर्चस की प्रार्थना करते थे जिससे कि उनका जीवन धन संपन्न रहे और मन प्रसन्न रहे। इस प्रार्थना में किसी के लिए किसी प्रकार का कष्ट नहीं था, अपितु पूर्णत: सभी के लिए धन संपन्नता की प्रार्थना थी। यह स्थिति ही वास्तविक आनंद की स्थिति है। इसमें प्रजा अर्थात उत्तम संतति की मांग की गयी है, ना कि ऐसे ही ब्रह्मचर्य विनाश और व्यभिचार से उत्पन्न हुई संतति की मांग की गयी है। इस रहस्य को और प्रार्थना की वास्तविकता को समझने की आवश्यकता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
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मुख्य संपादक, उगता भारत