यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि मानव जब तक इस रोग से ग्रसित रहता है (अर्थात यौवन में रहता है) तब तक वह इसे आनंद का विषय मानकर रोग मानने को तत्पर नहीं होता। हां! जब रोग शांत होता है और इंद्रियां जवाब दे जाती हैं तो उसे ज्ञात होता है कि जिसे तू आनंद का विषय मान रहा था, वह तो दुख का हेतु निकला, किंतु यह वो अवस्था होती है जिसके विषय में कहा जाता है-‘समय चूक पुनि का पछताने’
मनुष्य अपनी स्वाभाविक अवस्था में रहकर ब्रह्मचर्य की जीवनीशक्ति को संभालकर सुरक्षित रखना चाहता था पर भोजन की अस्वाभाविकता ने और मिर्च मसालों की चटपटाहट ने लंपट और कामी लोगों के लिए उस समय वियाग्रा का काम किया होगा। जब संसार के कामी लोग भी वैसे ही इस और झपटे होंगे, जिस प्रकार आज के कामी लोग वियाग्रा (कामोत्तेजक गोली) की ओर झपट रहे हैं।
शनै: शनै: संसार के लोगों का भोजन मिर्च और मसालों से युक्त हुआ होगा। आज हर रसोई में मिर्च मसाले आपको मिल जाएंगे। ये मिर्च-मसाले मानों हमने स्वयं को मारने के लिए स्वयं ही सामान तैयार कर लिया है, रोग की सारी सामग्री एकत्र कर ली है और पुन: यह दोष दे रहे हैं विधाता को कि ‘हमें निरोगी तूने नहीं छोड़ा।’ मूर्खता की भी कोई सीमा होती है।
ब्रह्मचर्य की साधना का समय हमसे कितनी पीछे छूट गया। स्वाभाविक के स्थान पर हमारे जीवन में कितनी अस्वाभाविकता आ गयी? ये देखकर और सोचकर मर्मान्तक पीड़ा होती है। ‘फास्ट फूड्स’ के इस युग में ब्रह्मचर्य की परिकल्पना करना किंचित मात्र भी संभव नहीं है।
किसने छीन लिया भारत की संस्कृति का यह अनमोल हीरा?
किसने छीन ली भारत के यौवन की लाली?
कौन से हाथ हैं जो इस षडय़ंत्र में लिप्त हैं?
पश्चिमी देशों की संस्कृति में ब्रह्मचर्य इसीलिए महिमामंडित नहीं हो पाया और इस्लाम में वह इसीलिए स्थान नहीं ले पाया कि इनका खानपान ही उत्तेजक था। इसलिए इनका इस विषय में भारत की संस्कृति से असहमति भरा हाथ सदा उठा रहा।
इस विषय में इनका टकराव हमारी संस्कृति से रहा और ये वीर्यस्खलन को एक स्वाभाविक क्रिया मानकर भंवरे की भांति स्त्री की बाहों में सिमटकर आत्महत्या करते रहे, और कर रहे हैं। जिसका सिलसिला अभी भी जारी है।
भारत ने वीर्यस्खलन को स्वाभाविक नहीं माना बल्कि उसने दिव्य संतति की उत्पत्ति के लिए इसे एक अत्यंत मूल्यवान धातु समझकर इसका सदुपयोग करने पर बल दिया। यही भारत की महानता रही है। भारत ने यह रहस्य भी युगों पूर्व समझ लिया था कि आने वाला जीव पहले वनस्पति में फिर पिता के वीर्य में और तत्पश्चात माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है इसलिए पत्नी के साथ कामवासना की तृप्ति के लिए किया गया विषयभोग कितने ही जीवों की हत्या का कारण बन जाता है।
प्रत्यक्षत: ये जीवात्माएं पिता के वीर्य में होती हैं, जो यूं ही असमय अदृश्य हो जाती हैं। इसलिए उन्हें पुन: यहां आने के लिए नये सिरे से एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ऐसी परिस्थितियों में मानव के लिए यही उचित है कि वह ब्रह्मचर्य की साधना करे और काम प्रसंग से स्वयं को बचाये।
पश्चिम की अदूरदर्शिता
स्त्री से बचाव को पश्चिमी देशों (इस्लाम सहित सभी देशों) ने असंभव माना है। इसका कारण केवल एक रहा कि उनका भोजन कभी सहज, स्वाभाविक और प्राकृतिक नहीं रहा। इसलिए स्त्री प्रसंग को उन्होंने किसी साधना अथवा मन के संयम से नियंत्रित करने का प्रयास नहीं किया अपितु इसे जारी रखते हुए उल्टे गर्भ स्थापित न करने में सहायता देने वाली औषधियों (टेबलेट्स) का प्रयोग करना या नसबंदी आदि का सहारा लेना आरंभ कर दिया। इसमें इस्लाम कुछ पीछे है किंतु ईसाइयत बहुत आगे है। इस अवस्था कापरिणाम घातक रहा है। स्त्री-पुरूष दोनों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और कई मानसिक व्याधियां भी समाज मं प्रसारित हो चुकी हैं।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715
मुख्य संपादक, उगता भारत