पश्चिमी देशों की मान्यता है कि यदि वीर्य के स्वाभाविक वेग को रोकने का प्रयास किया तो मानसिक व्याधियां जन्मेंगी। किंतु ऐसा होगा कब? इसे पश्चिमी देशों ने नही समझा। वस्तुत: ऐसा तभी होता है-जबकि वीर्य को रोक तो लिया जाए किंतु रोककर शरीर में खपाने की प्रक्रिया से मानव अनभिज्ञ रहे। यह अवस्था कुछ वैसी ही होती है जैसी कि एक नहर के पानी को बलात् रोक देने पर होती है।
हम देखते हैं कि नहर का पानी कुछ देर तक नहर में इकट्ठा होता है किंतु पीछे से पानी के निरंतर प्रवाह के जारी रहने से एक अवस्था ऐसी आती है कि नहर के किनारों से पानी उतरने लगता है और पड़ोसी खेतों में उपद्रव मचा डालता है।
समझदारी इस बात में है कि नहर के पानी को रोकने से पहले उसे खपाने की तैयारी कर ली जाए। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य की साधना अथवा स्त्री प्रसंग छोडऩे से पूर्व शरीर की इस अमूल्य धातु अर्थात वीर्य को नियंत्रित करने की साधना आवश्यक है, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार ध्यान की अवस्था से पूर्व मन को प्रत्याहार की साधना देकर दूसरे रंग में रंगा जाता है।
इस प्रत्याहार जैसी ब्रह्मचर्य की साधना से पश्चिमी देश बिल्कुल ही अनभिज्ञ रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि कुण्ठा तनाव और इन जैसी अन्य मानसिक व्याधियों के जन्म देने में मनुष्य की कौन सी मानसिक अवस्था उत्तरदायी है और कैसा रहन-सहन खान-पान और आचार विचारादि उत्तरदायी हैं? जिस दिन पश्चिमी जगत ब्रह्मचर्य साधना की इस अवस्था की प्रक्रिया से निकल जाएगा उस दिन संसार की बहुत सी प्रचलित मान्यताएं अपना स्वरूप परिवर्तित कर लेंगी।
भारत की कहानी
भारत के पतन की कहानी महाभारत से एक हजार वर्ष पूर्व से मानी जाती है, किंतु यहां इस्लाम और ईसाइयत के आक्रमण का दौर भी इसके लिए अत्यंत दु:खदायी रहा।
इस्लाम ने स्त्री को ‘खेती’ माना। उससे जब चाहो जैसे चाहो अपनी विषय भोगेच्छा को तृप्त करो-यह इस्लाम की सोच रही। इस सोच ने हिंदू समाज को भी अपने दुष्प्रभाव में ले लिया। भारत की शिक्षा-प्रणाली परिवर्तित हो गयी, इसलिए बहुत सी मान्यताएं और प्राचीन वैदिक अवस्था की पावन परंपराएं लुप्त हो गयीं। ब्रह्मचर्य साधना इन लुप्त परंपराओं में से एक रही है। यद्यपि महर्षि दयानंद जी महाराज ने इस पावन परंपरा पर प्रकाश डालते हुए भारत के पुनर्जागरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किंतु यह भी सत्य है कि यहां मोहनदास कर्मचंद गांधी जैसे लोग भी हुए जो महर्षि दयानंद की ब्रह्मचर्य साधना को सदा ईष्र्याभाव से ही देखते रहे। उन्हें ब्रह्मचर्य साधना का रहस्य कभी समझ में नही आया। यह भारत का दुर्भाग्य ही रहा कि ये तथा कथित राष्ट्रपिता कहलाने वाले भी भारत के प्राचीन ऋषि महर्षियों द्वारा वर्णित इस अमूल्य धरोहर को समझ नहीं पाये।
हमारा देश अमूल्य सांस्कृतिक विरासत को संभाल नहीं पाया। फलस्वरूप पिता (राष्ट्रपिता) के मानस पुत्र और पौत्रों से इसके समझने की अपेक्षा करना ही गलत है। यही कारण है कि आज भारत पश्चिम के अंधानुकरण में ही आनंदानुभूति अनुभव कर रहा है और अपने गुरूपद से नीचे गिरकर दूसरों का अंधानुकरण करने में ही प्रसन्न हो रहा है। ऐसा करना कदाचित मूर्खों के स्वर्ग में रहने के समान ही है।
ऋषियों का चिंतन
सात्विक भोजन एकांत और शांत स्थान प्रकृति का सान्निध्य और ईश्वर भजन में मन को लगाकर आत्मोन्नति करना, भारतीय ऋषियों के चिंतन का केन्द्र रहा। ‘रस गंगाधर’ ग्रंथ में पंडितराज जगन्नाथ का कथन है-तेल, उबटन, स्नान, इत्र, माला, आभूषण, अट्टालिका, रंग, महल, शैया, पोशाक, बाग, पक्षियों का कलरव, स्त्रियों के आभूषण की झंकार और स्त्रियों से हाथ पैर मलवाना आदि समस्त चेष्टाएं काम चेष्टा के उत्पन्न करने के समान हैं। अत: इस प्रकार श्रंगारमय पदार्थों से निवीर्य भी कामातुर हो जाता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715