किसानों के मर्म को सहलाते प्रधानमंत्री
देश के किसानों की दशा इस समय सचमुच दयनीय है। सारी राजनीतिक पार्टियां इस पर राजनीति तो कर रही है पर किसानों की समस्याओं का समाधान क्या हो, और कैसे निकाला जाए इस पर कोई कार्य नहीं हो रहा है। समस्या को उलझाकर उसे और भी अधिक जटिल करने की कुचालें और षडय़ंत्र तो सबके पास है-पर समाधान कोई नहीं दे रहा है। यद्यपि हमारे किसान ‘कुचालों और षडय़ंत्रों’ के इच्छुक नहीं हैं उन्हें अपनी समस्याओं के समाधान चाहिए। कांग्रेस ने माहौल को बिगाडक़र उसका राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास करते हुए मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को उतार दिया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया सरकार पर बरस रहे हैं। उसके तेवर देखने योग्य हैं परंतु देखने बाली बात है कि वह सरकार और किसान के बीच संवाद को समाप्त कर उसे विवाद में उलझाकर उसका राजनीतिक लाभ लेने के लिए यह सारे पापड़ बेल रहे हैं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह सरकार पर हमला करते समय वे उपाय सुझायें जिनसे किसानों की समस्याओं का समाधान हो सके।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पीडि़त किसानों के घर पहुंचे हैं और उनके मर्म पर मरहम लगाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। उनके जाने और किसानों के सामने हाथ जोडक़र खड़े होने की मुद्रा से पता चलता है कि वह व्यक्ति किसानों का शुभचिंतक है पर समस्या का समाधान कैसे हो, इस पर वह भी इस समय ‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ की स्थिति में ही फंसे हुए दिखायी देते हैं। इधर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रामनाईक का कहना है कि कृषि अनुसंधानों में लगे वैज्ञानिक और विद्वान लोग अपनी शोधों को किसानों तक पहुंचायें जिससे कि किसानों की उपज बढ़े और उनकी समृद्घि में वृद्घि हो। महामहिम की बात कुछ सीमा तक ठीक है-पर इस देश में इस समय उपज बढ़ाने को लेकर किसान चिंतित अथवा आंदोलित नहीं है उसे तो अपनी उपज का इतना मूल्य चाहिए जिससे कि उसकी घर गृहस्थी बढिय़ा चल सके। उसने गेहूं की उपज बढ़ाकर देख ली व आलू की उपज भी बढ़ाकर देख ली। जब-जब उसने अधिक उत्पादन किया तब-तब ही उसकी उपज मूल्य मिट्टी के बराबर हो गया। उसे फसल अपने खेत में ही सडऩे के लिए छोडऩी पड़ी है। इसका अभिप्राय है कि अधिक उत्पादन भी किसान के लिए कष्टप्रद हो रहा है और कम उत्पादन भी उसके लिए प्राण लेवा हो रहा है। ऐसे में हमारे कृषि वैज्ञानिक किसान को यदि ये समझा भी लें कि अमुक-अमुक उपायों से कृषि उत्पादन बढ़ेगा तो उससे लाभ क्या होगा?
प्रधानमंत्री मोदी भी किसानों की समस्याओं और आंदोलनों को लेकर गंभीर दिखायी दे रहे हैं। उन्होंने किसानों को सस्ता कर्ज देने की घोषणा की है। सरकार का कहना है कि यदि किसान ने समय पर ‘फसली ऋण’ चुका दिया तो मात्र प्रतिशत ब्याज ही उससे लिया जाएगा। चालू वर्ष में केन्द्र सरकार ने 20,339 करोड़ रूपया का प्राविधान किया गया है। हमारा मानना है कि केन्द्र सरकार की स्थिति इस नीति में भी समाधान कम छिपा है। किसानों के लिए इस प्रकार की नीतियों से तात्कालिक लाभ तो मिल सकते हैं पर दीर्घकालिक लाभ इसके मिलेंगे यह नहीं कहा जा सकता।
हमारा किसान प्रकृति का मित्र रहा है। भारत की वैदिक कृषि व्यवस्था में उसे यही सिखाया जाता था कि तुझे प्रकृति के साथ मित्रता करके चलनी है। तभी तो हमारा किसान अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश प्रकृति के इन पांचों तत्वों का सम्मान करता था। वह अग्नि (सूर्य) देव की उपासना करता था, अर्थात यज्ञादि के ऐसे उपाय करता था जिनसे कि सूर्यदेव मानसून की अच्छी वर्षा कराने में सहायक हों, वर्षाजल को संचित करता था उससे अपनी आवश्यकताओं की पूत्र्ति करता था। भूगर्भीय जल का दोहन नही करता था, वायु को शुद्घ करने के लिए पीपल, तुलसी आदि के वृक्ष और पौधे लगाता था। उन पर जल चढ़ाता था जिससे कि वे हरे भरे रहें और वायु का शोधन करते रहें। पृथ्वी को माता कहता था और उसके साथ कोई अत्याचार नहीं करता था। इसी प्रकार आकाश में स्थित ओजोन की परत भी सुरक्षित व संरक्षित रहे इस ओर भी ध्यान देता था। हमारी वैदिक कृषि व्यवस्था का आधार यह था। इसमें किसान प्रकृति का मित्र था और प्रकृति किसान की मित्र थी। जब हमारा व्यवहार प्रकृति के प्रति मित्रवत होता है तभी वह बदले में हमसे मित्रता करती है। आज की कृषि व्यवस्था ने और हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने किसान को प्रकृति का शत्रु बना दिया है। यज्ञादि की परंपरा समाप्त हो गयी है। भूगर्भीय जल का दोहन हो रहा है। आकाश भी अपवित्र है और पृथ्वी भी मानव की गतिविधियों से आहत है। इससे किसान प्रकृति की मित्रता से जन्म लेने वाला उपज और खपत का वह चक्र दुष्प्रभावित हुआ है जिसमें किसान को उसकी उपज का फल मिलता रहता था और लागत से कई गुणा उत्पादन उसके घर से होता था।
भारत सरकार यदि इसी चक्र को समझकर फिर से किसान और प्रकृति की मित्रता स्थापित करा दे तो समस्या का समाधान संभव है। ऐसी कंपनियां जो किसान से पांच रूपया किलो का आलू लेकर उसे चिप्स के रूप में 250 से 300 रूपया किलो बेच रही है-सचमुच किसान की शत्रु हैं। इन शत्रु कंपनियों की पहचान की जाए और इन्हें बंद कराकर किसान को ही चिप्स आदि बनाने सिखाये जाएं। बड़ी कंपनियों ने किसानों को बेरोजगार किया है उससे खाद्य पदार्थों का रोजगार ही नहीं छीना है अपितु कपड़े का रोजगार भी छीन लिया है। ‘अमूल’ की ‘निर्मूल भ्रांति’ ने किसान को खून के आंसू रूलाया है। इंडिया अमूल पीता है और किसान मर रहा है। यदि किसान की गाय का दूध भारत पीने लगे तो किसान बच सकता है।
राजनीति सचमुच बेशर्म हो चुकी है, क्योंकि वह तो केरल में सरेआम गाय काट रही है। वह जानती है कि कहां से मर्म का उपचार संभव है। पर वह उपचार के स्थान पर उलझनें उत्पन्न करने में व्यस्त हैं। पीएम मोदी से हमारा अनुरोध है कि इस ओर ध्यान दें और भारत के किसानों की पीड़ा का हरण करें। देश उनकी ओर अब भी आशा भरी नजरों से देख रहा है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।