संतति निरोध की मूर्खतापूर्ण नीतियां अपनाने का षडय़ंत्र, भाग-6
सभी कुछ भोग में घटित हो गया, सारा आनंद भोग में समझा जाने लगा। तब संतान के बारे में हमारा दृष्टिकोण भी परिवर्तित हो गया। अब दिव्य संतति नहीं अपितु कामी संतति हम उत्पन्न करने लगे। परिणामस्वरूप भारतीय समाज और राष्ट्र दोनों में दिव्यता को घुन लग गया और समाज ने दिव्य और सज्जनों के परित्राण के अपने धर्म को भुला, निजी स्वार्थ में कार्य करना आरंभ कर दिया।
धर्म पतित हुआ, अर्थ की शुचिता भंग हुई तो काम की शुचिता भी भंग हो गयी। वासना इतनी भडक़ी कि कई बार तो दु:शासन के रूप में चीरहरण तक करते हुए (अबला के शील भंग का प्रयास करते हुए) उसे हमने देखा।
ईसाईयत और इस्लाम कालांतर में इस भारत की अपवाद स्वरूप व्यवस्था के ध्वजावाहक बने। परिणति हम देख रहे हैं कि संतानोत्पत्ति के लिए नहीं अपितु काम की तृप्ति के लिए आज नारी का शोषण हो रहा है। इसलिए संतान के स्थान पर हैवान उत्पन्न हो रहे हैं और काम के भाव ने संसार में पिता-पुत्री व बहिन भाई तक के पवित्र संबंधों को भी अपवित्र करना आरंभ कर दिया है। काम की विकृति अपने पूरे यौवन पर है।
धनलिप्सा प्रभावी
वर्तमान परिस्थिति में धन संग्रह की भावना बढ़ रही है क्योंकि काम की तृप्ति के लिए धन संग्रह की भावना का होना स्वाभाविक होता है। निर्धन को और निर्धन बनाने का शिकंजा कसा जा रहा है। संसार के कथित बुद्घिजीवी और तथाकथित राजनीतिज्ञ शौर मचा रहे हैं कि गरीबी इसलिए है कि जनसंख्या अधिक गति से बढ़ रही है। इसलिए गरीब को मिटाने का लक्ष्य इन्होंने बना लिया है।
यदि ऐसा नहीं है तो ये लोग क्यों नही कह रहे हैं कि निर्धन के अधिकार धनिकों की तिजौरियों के तालों में बंद हो गये हैं जो खुलकर उन्हें मिलने चाहिए। क्योंकि वसुधा की संपदा के उपभोग का अधिकार निर्धनों को भी उतना ही है जितना कि धनिकों को है। वस्तुत: मूल समस्या से हमारा ध्यान हटाने के लिए ये चतुर राजनीतिज्ञ ‘चोरी कहीं और कर रहे हैं, तथा शोर कहीं और मचा रहे हैं।’
आज विचार होना चाहिए कि यदि धनिकों, राजनीतिज्ञों, भ्रष्ट अधिकारियों, उद्योगपतियों और माफिया लोगों की तिजौरिन्यों का मुंह खोलकर वह धन जन कल्याण और भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के कार्यों में लगा दिया जाए तो परिणाम क्या होगा? निर्धनता और बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्याएं कहां जाएंगी? दुख का विषय है कि इस ओर कार्य नहीं हो रहा है। कार्य वहां हो रहा है जहां नही होना चाहिए। कार्य धर्म, अर्थ और काम की शुचिता पर यदि हो तो सारे अमर्यादित समाज की सामाजिक व्यवस्था सही हो जाएगी।
भारतीय राज्यव्यवस्था का मूलाधार ही अर्थ की शुचिता का चिंतन है। आज का दूषित चिंतन हमारा अपना चिंतन नहीं है, वह किसी दूषित का दूषित अनुकरण है जो एक दिन हमें समाप्त कर देगा।
निर्धनों और धनी की सोच
संतानोत्पत्ति के विषय में निर्धन से धनी कहीं अधिक वासनापूर्ण जीवन जीता है। नारी का देह और यौन शोषण भी धनी ही अधिक करता है। किंतु समाज में संतानोत्पत्ति अधिक करता है निर्धन इससे अनुमान लगाया जाता है कि धनिक से अधिक वासना का भूत निर्धन के सिर पर चढ़ता है। वस्तुत: ऐसा सोचना एक भ्रांति है। क्यों? क्योंकि भारत का गरीब व्यक्ति जिसे शोषित और उपेक्षित कहा जाता है, पिछड़ा और दलित कहा जाता है। वह आज भी जाने अनजाने भारत की कई प्राचीन वैज्ञानिक परंपराओं का सही निर्वाह कर रहा है। संतानोत्पत्ति के विषय में भी ऐसा ही है। निर्धन व्यक्ति किसी ऐसे कृत्रिम गर्भनिरोधक साधन निरोध आदि का उपयोग नहीं करता कि जिससे संतानोत्पत्ति प्रभावित हो या अवरूद्घ हो। वह संतान को ईश्वर का फल मानता है। वह उसे तब तक लेता रहता है जब तक ईश्वर की इच्छा के अनुरूप वह उसे अपने पास आते रहना देख रहा है। इस स्वाभाविकता को ही ईश्वरेच्छा के रूप में भारतीय समाज मानता है।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715
मुख्य संपादक, उगता भारत