इस प्रकार भारत का निर्धन वर्ग भारतीय परंपरा का निर्वाह करते हुए संतानोत्पादन करता है। वह यह भी जानता है कि जो भी जीव गर्भ में आ गया उसे समय से पहले बलात् बाहर निकालना अर्थात उसका गर्भपात कराना-एक हत्या करना है। जबकि धनिक वर्ग के लोग निरोध आदि से वीर्य नाश तो करते ही हैं, साथ ही प्रकृति और विज्ञान के नियमों का भी खुला उल्लंघन करते हैं।
परिणामस्वरूप उनके जीवन में तनाव और चिड़चिड़ापन कहीं अधिक है, अपेक्षाकृत निर्धन वर्ग के। निर्धन वर्ग अपनी अधिक संतान के मध्य भी प्रसन्न है, जबकि धनिक वर्ग एक दो संतानों के साथ भी प्रसन्न नहीं है। इसका एक कारण यह भी है कि धनिक वर्ग अपनी संतान को प्रारंभ से ही भौतिकवाद में इस प्रकार धकेल देता है कि वह उसमें आकंठ डूब जाती है। जिससे वह वासना और भोगवादी संस्कृति की ओर बढक़र आत्मविनाश की डगर पर चल देती है। जबकि निर्धन वर्ग के बच्चे विशेषत: गांवों में किसान वर्ग में जन्म लेने वाले बच्चे प्रकृति का सान्निध्य पाकर सादगी के परिवेश में ढलकर कुछ अधिक अध्यात्मवादी होते हैं। धनिक वर्ग के बच्चों में न तो परस्पर प्रेम होता है और नहीं ऐसे बच्चों में माता-पिता के प्रति सम्मान का भाव मिलता है।
अधिक संतति से राष्ट्र को क्या हानि होना संभावित है? और अधिक संतान को रोकने हेतु हमारी सरकारों का क्या दायित्व है? जब सरकार के विज्ञापन और रेडियो, टीवी के वार्ताकार, निर्धन वर्ग को कुछ इस प्रकार परिभाषित और प्रस्तुत कर रहे हैं कि जैसे ये धनिक वर्ग तो निष्पाप हैं और निष्कलंक हैं, जबकि निर्धन वर्ग राष्ट्र के प्रति अपराधी हैं। धनिक वर्ग अपने दायित्व का सही निर्वाह कर रहा है, जबकि निर्धन वर्ग अपने दायित्वों को समझता ही नहीं। इससे देर-सवेर राष्ट्र में निर्धन वर्ग और धनिक वर्ग के मध्य वर्ग संघर्ष जन्म लेगा तथा सामाजिक विखण्डन को बढ़ावा मिलेगा। अच्छा हो कि संतति निरोध कार्यक्रम को लागू करने में सरकार अपनी नीतियों पर विचार करे।
सरकार धनी व्यक्तियों की वासना को अध्यात्मवाद के रंग में रंगकर कुछ भारतीय बनाने का प्रयास भी करे और निर्धन वर्ग की मानसिक जड़ता की भावना को समाप्त कर उसे रूढिय़ों और अज्ञान के उस जंजाल से ऊपर उबारे जो आज राष्ट्र के गले की फांस बन चुका है।
यौन शिक्षा की आवश्यकता नहीं
यौन शिक्षा की आवश्यकता के नाम पर विद्यालयों में अब कार्य हो रहा है। पश्चिमी जगत की मान्यता है कि यौन-शिक्षा का अनिवार्य विषय विद्यालयों में होना चाहिए। इस यौन-शिक्षा के अभियान ने यौनाचार की वर्तमान उन्मुक्तता को जन्म दिया है। इससे अन्य किसी की इतनी क्षति नही हुई है जितनी कि भारतीयता की।
ब्रह्मचर्य की साधना
आज यौन-शिक्षा की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता भौतिक सामग्री के मध्य रहकर (अर्थात सूखी घास के मध्य अंगारी न रखने की है) युवक युवतियों को अध्यात्मवादी बनाकर ब्रह्मचर्य साधना का पाठ पढ़ाने की है। धन संग्रह और भौतिकवादी दृष्टिकोण से युवकों का मन हटाकर उन्हें अपरिग्रहवादी बनाना है। इसी से समतामूलक समाज की संरचना का सपना साकार होगा। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा और धनी निर्धन के मध्य उभरती दीवारें समाप्त होंगी।
हम कैसी संतान को उत्पन्न करें? संतान में दिव्यता के भाव कैसे आएंगे? इसके लिए माता-पिता का आहार-विहार आचार-विचार और व्यवहार कैसा हो? आज के युवक को यह पढ़ाया जाए। यौन शिक्षा या यौनाकर्षण यह प्रभु प्रदत्त स्वाभाविक रूप से विकसित होने वाला गुण है, जो कि प्राणियों में समय आने पर सहज ही विकसित हो जाता है। मनुष्य मननशील है अत: उसका यौन धर्म भी नियंत्रित होना चाहिए। प्राणी जगत में अन्य प्राणी ऋतु काल में ही समागम करते हैं जबकि मानव इस प्राकृतिक नियम का उल्लंघन करता है। मानव ने अपनी स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है। वह स्वच्छंदी हो गया है।
आज आवश्यकता उसकी स्वतंत्रता को स्वछन्दता में परिवर्तित होने से रोकने की है। इसके लिए जो प्रयास हों उनमें मानव समुदाय के हित में समग्रता के साथ प्रयास हों। शरीयत के या किसी अन्य वर्ग के साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह इसमें आड़े नही आने चाहिए। किसी भी मजहब का व्यक्तिगत कानून यदि यहां लागू किया जाएगा तो कभी भी भारत अपनी बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर पाएगा।
(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715