संतति निरोध की मूर्खतापूर्ण नीतियां अपनाने का षडय़ंत्र, भाग-8

मानव को मानव का विशेष यौन धर्म समझाकर उसके जीवन को संतुलित, मर्यादित और साधनामय बनाने की आवश्यकता है, इससे सभ्य समाज का निर्माण होगा। इसी से विश्व का कल्याण होगा और इसी आवश्यकता की पूत्र्ति से समाज की अस्त-व्यस्त अव्यवस्था ठीक होगी। मानव को मानव बना दें, यह सबसे बड़ा उपकार है। मानव स्वयं मानव बन जाए तो यह उसका संसार पर और भी बड़ा उपकार है। हमारी यौन शिक्षा का आधार यही आदर्श हो।
ऐसा न हो कि यौनाचार के नाम पर उसकी कामुकता का बुलडोजर सभी रिश्तों की पवित्रता को भंग करता चला जाए। यह स्थिति हताशा, निराशा और कुण्ठा की स्थिति होती है, जो मानव को दानव बनाती है। वर्तमान यौन शिक्षा का क्रम ऐसे ही दानव रूपी मानव उत्पन्न कर रहा है। देखते हैं कि इसका अंतिम परिणाम क्या होगा?

स्वयंवर व्यवस्था की गलत व्याख्या
हमारे यहां प्राचीनकाल में स्वयंवर विवाह की प्रथा प्रचलित थी। आज पश्चिमी जगत की देन है-भारत में प्रेम विवाह का बढ़ता प्रचलन। निस्संदेह यह प्रेम विवाह स्वयंवर विवाह का स्थानापन्न नहीं है। स्वयंवर विवाह आत्मिक आकर्षण के लिए होते थे। जिनमें वर-वधु आत्मिक धरातल पर एक दूसरे को पहचानते थे और फिर जीवन भर आदर्श गृहस्थ जीवन को निभाने का प्रण लेते थे। 
उनमें वासना और कामुकता का स्थान नगण्य होता था। जबकि आज के प्रेम विवाह शारीरिक सौंदर्य की सुगंध के वशीभूत होकर कर लिये जाते हैं। इसीलिए पश्चिमी देशों की भांति विवाहों के टूटने का क्रम भारत में तीव्रता से बढ़ा है। आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत तीव्रता से बढ़ रही है। जो स्वयंवर-विवाह और प्रेम-विवाह में भेद नहीं कर पाते। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि स्वयंवर- विवाह में समान स्तर और समान गुण, कर्म और स्वभाव का पूरा ध्यान रखा जाता था। जबकि प्रेम-विवाह अपवादों को छोडक़र सारी नैतिकता और मर्यादाओं को ताक पर रखकर किये जा रहे हैं। हमारी सरकारें इस ओर उदासीन हैं। वे नही समझ पारही हैं कि क्या करें?
समाज की व्यवस्था को यदि टूटने दिया गया तो यह राष्ट्र के लिए घातक होगा। राष्ट्र के भव्य भवन का निर्माण और मर्यादा का पालन समाज के नैतिक आचरण और मर्यादा पालन पर अधिक निर्भर किया करता है। समाज की मर्यादा का क्षरण होता है। जिस राष्ट्र की सरकारें अपने समाज के नैतिक आचरण को उत्कृष्ट बनाने में सफल नहीं रह पाती हैं, वह राष्ट्र नष्ट हो जाता है। छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत की सरकार समाज के नैतिक पक्ष आचरण और मर्यादा को ऊंचा उठाने का प्रयास नहीं कर रही हैं। यह तथ्य राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत निराशाजनक है।

जनसंख्या की बनावटी समस्या
हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि यदि कुछ इनेगिने लोगों की तिजौरियां खाली करा ली जाएं तो इस देश की निर्धनता दूर हो जाए। देश के जिले का एक भ्रष्ट जिलाधिकारी यदि चाहे तो न्यून से न्यून दस लाख रूपये प्रतिमाह कमा सकता है, अर्थात कितना काला धन प्रत्येक माह कुछ विशिष्ट लोगों की तिजौरियों में चला जाता है। यह कोई छिपा हुआ रहस्य नहीं रह गया है। यदि धन का समुचित वितरण यहां हो जाए तो समस्या ही समाप्त हो जाए। मूल बात है व्यक्ति के भीतर नैतिकता को विकसित करने की। भारत में जितनी जनसंख्या वर्तमान में विद्यमान है, इतनी ही और हो जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं। शर्त केवल एक है कि सरकार अपने लोक कल्याण के धर्म को पहचान ले और व्यक्ति अपने लोक धर्म को पहचान ले।
राजस्थान का रेगिस्तान गंगावतरण के भागीरथ प्रयास की बाट जोह रहा है, जिस दिन राजस्थान, मध्य प्रदेश हरियाली से लहलहा उठेंगे उस दिन देश की अन्न संबंधी समस्या का समाधान तीव्रता से स्वत: ही हो जाएगा। लेकिन भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को इस ओर सोचने का समय ही नही है। हमारे शासक वर्ग को मनु महाराज के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए-”जिस राजा के राज्य में चोर, व्यभिचारी, दुष्ट वाक्य बोलने वाला, दु:साहसी और दण्ड का न मानने वाला नही होता वही राजा इंद्र के समान होता है।”
संयमित राष्ट्रजीवन का सिंहावलोकन
इस राष्ट्र की समस्याओं का समाधान है हिन्दुत्व। संतति निरोध की मूर्खतापूर्ण पश्चिमी अवधारणा से बचकर हिन्दुत्व (आर्यत्व) की जीवनशैली को अपनाकर इस ‘संतति निरोध’ कर सकते हैं। दिव्य संतति का निर्माण कर सकते हैं। ये दोनों बातें ही आज की युगीन आवश्यकता है। यदि हमने इसे पहचान लिया तो राष्ट्र का पुन: निर्माण करने का सपना सच्चे अर्थों में साकार हो सकता है।

(लेखक की पुस्तक ‘वर्तमान भारत में भयानक राजनीतिक षडय़ंत्र : दोषी कौन?’ से)
पुस्तक प्राप्ति का स्थान-अमर स्वामी प्रकाशन 1058 विवेकानंद नगर गाजियाबाद मो. 9910336715

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