आज की वार्ता : आर्य समाज की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कौन?
वर्तमान युग में आर्य समाज ,उसके द्वारा संचालित संस्थाओं एवं मंदिरों की दुर्दशा पर भी एक दृष्टिपात हमको कर लेना चाहिए। जिन जिन आर्य समाज मंदिरों के सामने जो दुकानें बनाई गई थीं उन सब पर नहीं तो अधिकतर पर विधर्मियों को दुकान आवंटित करके किराया लेने का कार्य आर्य समाज के पदाधिकारियों ने किया। अपने लोगों को दुकान इस कारण से नहीं दी गई थी कि अपने लोग अनाधिकार कब्जा ना कर लें।जो किराया भी समय पर नहीं देंगे। विधर्मी क्योंकि कमजोर लोग हैं उनसे जब चाहेंगे खाली करा लेंगे और किराया मनमाफिक वसूलते रहेंगे। यह इसके पीछे का तर्क है। लेकिन यह धारणा मात्र एक भ्रांति ही सिद्ध हुई । परिणामस्वरूप आर्य समाज की दुकानों पर विधर्मियों द्वारा कब्जे कर लिए गए हैं।
बहुत से आर्य समाज मंदिरों पर ऐसा भी देखा गया है कि आर्य समाज के नाम की पट्टिका भी हटा दी गई है।अब आप सभी विचारवान, विद्वतजन, सन्यासी-वृंद, वानप्रस्थी गण , आचार्यगण, आर्य समाज के वास्तविक आर्य पदाधिकारी गण तथा अन्य सभी आर्य समाजी इस बात पर विचार करें कि आर्य समाज कैसे बचेगा?
आप सभी लोग इस बात पर भी सहमत होंगे कि स्वतंत्रता आंदोलन में आर्य समाज का 85% योगदान था ।महर्षि दयानंद से लेकर जितने भर भी क्रांतिकारी हुए वे सब आर्य समाज की देन हैं। वर्तमान में आर्य समाज में ऐसे लोग पदाधिकारी बने बैठे हैं जो केवल आर्य समाज की संपत्ति पर नजर लगाए हैं अथवा आर्य समाज के नाम पर लोगों से अवैध वसूली करते फिरते हैं। ऐसे लोगों के आपस में मुकदमे भी न्यायालयों में आर्य समाज की संपत्ति और किराए को लेकर चलते देखे गए हैं। ये सभी स्वार्थी और पद लोलुप पदाधिकारी अपनी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे लोगों का आर्य समाज की विचारधारा से कोई संबंध या सरोकार नहीं है।
आर्य समाज में ऐसे लोग भी आ गए हैं जिनके घर में मूर्ति पूजा होती है। बड़ी बड़ी मूर्ति उन्होंने विभिन्न देवी-देवताओं की अपने घर में लगवाई हुई हैं। हमने स्वयं बहुत से आर्य समाजियों के घर में ऐसा देखा है।पूजा के लिए बड़ी बड़ी मूर्ति घर में लगवाई हुई हैं परंतु वही तथाकथित आर्य समाजी आर्य समाज के मंच पर आकर मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं जिनके अपने घर में मूर्ति पूजा हो रही है। यह कैसा दोगलापन है?
क्या ऐसे लोग पाखंडी की श्रेणी में नहीं आते?
जिसमें दोगलापन है वही तो पाखंडी कहा जाता है ।महर्षि दयानंद की परिभाषा यही तो है। यदि हम ऐसा कह लें कि आर्य समाज पर पाखंडियों का कब्जा हो गया है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अब यह भी विचारणीय विषय हो गया कि यदि आर्य समाज नहीं बचेगा तो राष्ट्र कैसे बचेगा? क्योंकि कोई भी राष्टृ अथवा समाज विचारधारा से पुष्पित और पल्लवित, समृद्ध , संपन्न एवं बलवान होता है। जब आर्य समाज की विचारधारा ही समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा?
भारतीय पुरातन, सनातन संस्कृति कैसे बचेगी? क्या हममें विरोध की शक्ति और सामर्थ्य नहीं रही है? धीरे-धीरे हमें अपने देश में बाधित नहीं किया जा रहा है? हममें संघर्ष करने की शक्ति क्षीण हो गई है? हम विरोध की आवाज भी नहीं उठा सकते?
महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पूर्व तथा आर्य समाज की स्थापना करने से पूर्व गौ- रक्षा समिति बनाई थी ।आज हम आर्य समाज के लोग महर्षि दयानंद की गौ रक्षा समिति का कितना ध्यान रख रहे हैं ? गौओं को कितना पालन पोषण और संरक्षण दे रहे हैं ? बड़ा गंभीर विचारणीय विषय है।
क्या हम महर्षि दयानंद की विचार धारा के विपरीत नहीं जा रहे हैं?
क्या उचित है या अनुचित है? क्या करना है क्या नहीं करना है?
यह केवल आर्य समाज के लोग ही मानव निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करके संभव करते हैं।परंतु अब क्या प्रत्येक अन्याय को हम सहन करने के लिए विवश हो गए हैं?
जिन्होंने हमारे वतन को लूटा, जिन्होंने हमारे धर्म को लूटा, जिन्होंने हमारी संस्कृति को नष्ट किया , जिन्होंने हमारी माता और बहनों को सार्वजनिक स्थानों पर अपमानित करके उनकी अस्मिता को लूटा,हम उन्हीं लोगों के लिए पलक पांवड़े बिछाते दृष्टिगोचर होते हैं।
आप लोगों के समक्ष इतिहास में इस तथ्य को कितनी चतुराई एवं साजिश के साथ स्थापित किया गया कि आर्य यहां के मूल निवासी नहीं थे।यहां के मूल निवासी तो जंगली थे । पश्चिमी देशों ने सपेरे, ठठेरे,और जंगलियों का देश भारत को बताया।आर्य बाहर से आए थे यह पढ़ाया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता थी। वह आज तक नहीं हो पाई। जिसके लिए प्रथम प्रधानमंत्री नेहरु जिम्मेदार हैं।
जबकि हमारे शास्त्रों में यह बात बहुत अच्छी तरीके से हमारे विद्वानों ऋषियों और मुनियों के द्वारा समझाई और बताई गई है कि सभ्यता का विकास तिब्बत पर्वत से हुआ था, जो कभी हमारे देश का भाग रहा है ,आर्यावर्त का हिस्सा रहा है। परंतु शास्त्रों की बात सब लुप्त कर दी गई और झूठ परोस दिया गया और हम उसे झूठ को पढ़ते रहें।
प्राचीन काल में कोई जाति भारतवर्ष में नहीं थी , आर्यावर्त में सभी आर्य लोग रहते थे । केवल एक ही मानव जाति होती थी सभी की। उसी को मानव बनाने के लिए अनेक प्रयास एवं उपदेश हमारे विषयों के द्वारा किए गए।लेकिन अब हम जातियों में बांट दिए गए और फिर ऊपर से कहा जाता अनेकता में एकता।
वाह रे भारतवर्ष तुझे तो चिड़ियाघर बना दिया।केवल भारत वर्ष ही एक ऐसा देश है जहां बाहर के लोग आकर के सम्मान पाते हैं और वे तथा उनके धर्म अच्छी तरीके से फलते फूलते हैं। उनको संविधान में संरक्षण प्राप्त है ।उनकी संस्थाओं को अनुदान दिए जाते हैं, प्रोत्साहित किया जाता है। लेकिन यहां के मूल निवासियों को अपने धार्मिक संस्था पर भी संविधान में रोक लगा दी गई है।इस प्रकार तो एक दिन हम कुछ भी नहीं रह पाएंगे। हम अपने धर्म की कोई बात नहीं कर सकते। कोई संस्था नहीं खड़ी कर सकते।
हम आर्य होते हुए भी अपने पूर्वजों के द्वारा जो हमारे देश का नाम आर्यावर्त रखा गया था, उसको नहीं पुकारते हैं। उसका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं किया जाता है ।अगर आर्यावर्त नाम बोल दिया जाए तो उसके रहने वाले सभी आर्य स्वयमेव हो गए। क्योंकि हम सभी आर्य थे। हम सभी ऋषियों की संतान हैं ।उसी आर्यावर्त के साथ हमारा प्राचीन संबंध है ।हम यहीं पर जन्मे हैं और यही से हमारा संबंध है ।रामायण, महाभारत ,शास्त्र, वेद सभी की संस्कृत भाषा है। वह संस्कृत भाषा ही हमको स्वीकार आज नहीं है तो हम कैसे और किस आधार पर कह सकते हैं कि आर्य हैं? आज की नरेंद्र मोदी सरकार से हम सभी आर्य समाजीयों की मांग है कि वह संविधान में जहां यह लिखा है “”इंडिया दैट इज भारत “वहां पर लिखवाया जाए “भारत दैट इज आर्यावर्त ” अर्थात वह भारत जो आर्यावर्थ था ।इसके अतिरिक्त हम यह भी मांग करते हैं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत धार्मिक अल्पसंख्यकों को जिस प्रकार अपनी शैक्षणिक संस्थाएं खड़ी करने और अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रचार-प्रसार की खुली छूट दी गई है उसे समाप्त कर भारत के सनातन मूल्यों के प्रचार प्रसार के लिए सनातन पुरातन वैदिक संस्कृति को राष्ट्रीय संस्कृति घोषित कर उसी के मानवीय मूल्यों को स्थापित करने और प्रचार-प्रसार करने की छूट देश के सनातन लोगों को दी जानी चाहिए।
क्योंकि संस्कृत ईश्वर की भाषा है। वैज्ञानिक भाषा है। वेदों की भाषा है । एक संपूर्ण, समृद्ध और संपन्न भाषा है ।अब तो कंप्यूटर में भी उसको स्वीकार कर लिया गया है ।कंप्यूटर के लिए भी सुलभ एवं स्वीकार्य भाषा है। संस्कृत हमारे पूर्वजों की बहुत बड़ी देन है। इसका स्वाभिमान हमें होता है क्या? इसकी वृद्धि के लिए हम क्या करते हैं ?बिना संस्कृत के क्या हमारा कोई संबंध ऋषियों से, वेदों से, शास्त्रों से जुड़ पाएगा?
अपने धर्म के लिए ,अपनी मर्यादा के लिए, अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए ,अपने न्याय के लिए, अपने सत्य के लिए और सत्य को स्थापित करके उसकी वृद्धि करने के लिए आर्य समाज के विद्वानों को अपनी पूरी शक्ति लगानी चाहिए।
हमारे लाल और ललनाओं को विधर्मी बनाया जा रहा है।
यह समय की पुकार है कि आर्य समाजियो ! संभलो।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र