ये मायावी स्वभाव था, भूला निजी निवास
बिखरे मोती-भाग 187
गतांक से आगे….
बाढ़ ही खेती को खा रही है तो हिमायत किससे करें? किस-किस को रोओगे? रोते-रोते पागल हो जाओगे क्योंकि लोगों ने अपनी आत्मा का हनन करना शुरू कर दिया है। यह पैदा होता है कि यदि ऐसे लोग देश के सुसंस्कृत नागरिक हैं तो निकृष्ट किसे कहेंगे? यदि ऐसे लोग राष्ट्र के वफादार कहलाएंगे तो गद्दार किसे कहेंगे? यह आप स्वयं निर्णय करें कि ये आस्तीन के सांप हैं अथवा देशद्रोही हैं? जो जीवन रक्षक दवाइयों में और खाद्य पदार्थों में शनै: शनै: मीठा जहर दे रहे हैं-ये मानवता के हत्यारे नहीं तो और क्या हैं? संज्ञा आप दीजिए मेरी दृष्टि में तो केवल सीमा पर, गद्दारी करने वाला ही गद्दार नहीं होता है, जो व्यक्ति अपने कत्र्तव्यपालन में धोखा करता है-वह गद्दार है, चाहे वह कोई भी हो।
सोचो क्या आप मन के स्वभाव में जी रहे हैं या अपनी आत्मा के स्वभाव में जी रहे हैं?
मन के ही संसार में,
लेता रहा तू सांस।
ये मायावी स्वभाव था,
भूला निजी निवास ।। 1117 ।।
व्याख्या :-
परमपिता परमात्मा ने हमें मानव तन देकर बड़ी महती कृपा की है। न जाने कितने जन्मों और पुण्यों के बाद हमें यह मानव तन मिला है। यह देव दुर्लभ तन अंत:करण चतुष्टय अर्थात मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार का परिष्कार करने के लिए मिला था, भगवद भजन के लिए मिला था, आत्म साक्षात्कार करने के लिए मिला था। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्घि के लिए मिला था। हे आनंद लोक से आये प्राणी! पृथ्वी पर सत्कर्मों की क्रीड़ा करके पुन: आनंद लोक में लौटने के लिए तुझे यह मानव तन मिला था-क्योंकि तेरा गंतव्य वही है। सच पूछो तो जीवन का मूल उद्देश्य यही है, और तो और तेरी आत्मा का मूल स्वभाव यही है-तेरी आत्मा की सजातीयता तन-मन अथवा माया (संसार) से नहीं है, उसकी सजातीयता तो मायाशीध से है, अर्थात परमपिता परमात्मा से है। तेरा पदस्खलन देखकर तेरी दुर्दशा देखकर क्रोध नहीं, करूणा आती है-”आए थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास।” इस मासूमियत पर हंसी भी आती है- सवार घोड़े पर सवारी नहीं कर रहा अपितु घोड़ा सवार पर सवारी कर रहा है। भाव यह है कि आत्मा रूपी सवार का नियंत्रण मन रूपी घोड़े पर नहीं अपितु आत्मा रूपी सवार पर मन रूपी घोड़ा सवारी कर रहा है, जो दिशाविहीन है और गंतव्यविहीन है।
वह आत्मारूपी सवार को पतन के गर्त में कहीं भी गिरा सकता है। वास्तव में यही हालत मानव जीवन की है। 95 प्रतिशत से भी अधिक लोग मन के संसार में जीते हैं, उसके स्वभाव में जीते हैं और अपनी आत्मा के स्वभाव में जीते हैं और अपनी आत्मा के स्वभाव से या तो अनभिज्ञ रहते हैं अथवा आत्मा के स्वभाव की अवहेलना करते हैं।
स्वभाव वह होता है-जिसमें आप चौबीसों घंटे जी सकें, जैसे पानी का स्वभाव शीतल है, यदि उसे उबाल भी दिया जाए, तो अंततोगत्वा उसे होना तो शीतल ही है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य चौबीसों घंटे क्रोध में नही रह सकता, उसे शांति अथवा प्रेम में लौटना ही पड़ता है। यह स्वभाव आत्मा का है, मन का नहीं। इसीलिए मनुष्य क्रोध करने के बाद अक्सर कहता है-”मूड खराब हो गया था”अर्थात क्रोध आ गया था।
क्रमश: