मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा अध्याय – 30 ( क ) महाराणा राजसिंह प्रथम ( 1652 – 1680 ई० )
महाराणा राज सिंह के शासनकाल में मेवाड़ ने फिर अपने उत्थान और उत्कर्ष की ओर बढ़ना आरंभ किया। इनके शासनकाल के प्रारम्भिक 6 वर्षों में दिल्ली पर मुगल शासक शाहजहां का शासन था, जबकि उसके पश्चात के शेष शासनकाल में औरंगजेब का शासन रहा। महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब जैसे क्रूर बादशाह मुगल शासक से लोहा लिया और उसे युद्ध में पराजित किया। इनके भीतर अपने पूर्वज महाराणा प्रताप जैसा शौर्य, पराक्रम और वीरता का प्रताप था। इन्होंने राजस्थान की वीर भूमि पर राष्ट्रीय मोर्चा बनाकर शत्रु के विनाश के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किया। अपनी इस योजना के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि मुगलों से भारत भूमि को स्वाधीन किया जाए। इनके ऐसे वंदनीय प्रयासों से महाराणा प्रताप की परंपरा पुनर्जीवित हो उठी। इनके पिता और दादा ने जिस प्रकार एक शान्त जीवन जिया था और कुछ भी नया करने में असफल रहे थे, उनकी उस कमी को महाराणा राज सिंह ने पूर्ण कर दिया।
मारवाड़, मेवाड़ और अंबेर के राजाओं को यह एक मंच पर लाने में सफल हुए। जिससे मुगलों के विरुद्ध एक मजबूत गठबंधन बनाने में सफलता मिली।
वास्तव में नई कहानी लिखना या नया इतिहास रचना हर किसी के वश। की बात नहीं होती। माना कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मजात महान नहीं होता, संसार के संबंध, संसर्ग ,संपर्क और संस्कार भी उसे बहुत कुछ सीखने को देते हैं , परंतु प्रारब्ध के आधार पर भी संसार में बहुत कुछ मिलता है । उनको देखकर कहा जाता है कि वे जन्मजात महान थे। महाराणा राज सिंह ऐसे ही महान व्यक्तित्वों में से एक है।
24 सितंबर 1629 को महाराणा राजसिंह का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम महाराणा जगत सिंह और मां महारानी मेडतणीजी था। जब इनकी अवस्था मात्र 23 वर्ष की थी तो इनके पिता का देहांत हो गया। इसी अवस्था में इनको मेवाड़ का सत्ता भार संभालना पड़ा। मेवाड़ के इतिहास में महाराणा राजसिंह को एक जनप्रिय, वीर ,साहसी, कला प्रेमी और कुशल प्रशासक के रूप में स्थान दिया गया है। इनके भीतर धर्म के प्रति असीम अनुराग था और भारतीय संस्कृति व धर्म की रक्षा के लिए कार्य करने की अटूट लग्न भी थी। इन्हें आर्य धर्म के उद्धारक हिंदू-हितरक्षक के रूप में भी स्थान दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। क्योंकि उन्होंने औरंगजेब जैसे शासक को अपने हिंदू समाज के लोगों की रक्षा के लिए कड़ा पत्र लिखा था। जिसमें उसे कड़ी चुनौती भी दी गई थी।
आर्य वैदिक संस्कृति के रक्षक थे महाराणा राज सिंह
औरंगजेब इस्लाम के जिस रंग में भारत को रंग देना चाहता था उसका प्रतिकार करने के लिए महाराणा राज सिंह ने अपने आप को समर्पित किया संग्राम इसीलिए हम इनको आर्य वैदिक धर्म का रक्षक मानते हैं। कुछ लोगों को यह आपत्ति हो सकती है कि उस समय आर्य वैदिक धर्म अपने शुद्ध स्वरूप में बुद्धिमान नहीं था पौराणिक मान्यताओं के कारण अनेक प्रकार की विकृतियां आ गई थी। इसके संदर्भ में हम केवल यही कहना चाहेंगे कि धर्म की पवित्रता को विकृत होने से बचाने का कार्य उस समय तक ब्राह्मण वर्ग ले चुका था। स्पष्ट है कि यदि आर्य वैदिक धर्म में पौराणिक मान्यताओं के कारण कुछ पाखंड उस समय तक प्रवेश कर गए थे तो उसके लिए महाराणा या किसी भी शासक को उत्तरदायी न मान कर धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को उत्तरदायी माना जाना चाहिए और उनसे ही अपेक्षा की जानी चाहिए कि उन्हें धर्म के सत्य स्वरूप को लोगों को समझाना चाहिए था। उस समय धर्म के ठेकेदारों के कारण धर्म के स्वरूप में जो भी विकृति आई थी उसकी रक्षा के लिए यदि महाराणा राज सिंह जैसे शासक अपने आपको समर्पित कर रहे थे तो इसका कारण यही था कि वे आर्य वैदिक संस्कृति के प्रति समर्पित थे।
1652 ई0 में इनके राज्यारोहण के समय शाहजहाँ ने राणा का खिताब, पांच हजारी जात एवं पांच हजारी सवारों का मनसब देकर हाथी एवं घोड़े भेजे। महाराणा राज सिंह ने सत्ता संभालते ही अपने कुल के सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए कार्य करने का निश्चय किया। यही कारण था कि उन्होंने 1615 ई0 की संधि के विपरीत जाकर चित्तौड़ गढ़ की मरम्मत का कार्य करना आरंभ कर दिया। निश्चित रूप से यह एक ऐसा मर्मस्थल था जिसे छेड़ते ही मुग़ल बादशाह के साथ शत्रुता मोल ले लेनी थी। परंतु स्वाभिमानी महाराणा राज सिंह के लिए स्वाभिमान पहले था और सब बाद की बातें थीं।
बाद शाह ने भेजी राणा के विरुद्ध सेना
अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वह बड़ी से बड़ी शक्ति और क्रूर सत्ता के साथ भी टकराने को तैयार थे। महाराणा राज सिंह के इस स्वाभिमानी व्यक्तित्व की जानकारी जैसे ही मुगल बादशाह को हुई तो उसने तुरंत चित्तौड़ गढ़ के मरम्मत कार्य को रुकवाने के दृष्टिकोण से 30,000 की सेना अपने सेनापति सादुल्ला खान के नेतृत्व में चित्तौड़ की ओर भेज दी। इस सेना को यह स्पष्ट आदेश दिया गया था कि वह जाकर चित्तौड़गढ़ को तोड़ फोड़ दे।
महाराणा राज सिंह ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अभी युद्ध करना उचित नहीं समझा। उनकी योजना थी कि अभी शक्ति का संचय करने की आवश्यकता है। यही कारण रहा कि वह अपनी सेना के सहित उस समय वहां से दूर चले गए। मुगल सेना जब चित्तौड़ में पहुंची तो उसने कंगूरे और बुर्ज आदि को गिराकर लौट जाना उचित समझा। लगभग इसी समय मुगल बादशाह शाहजहां बीमार हो गया था।
जैसी कि मुगलों की परंपरा थी कि जैसे ही मुगल राजकुमार जवान होते थे तो वह अपने वृद्ध पिता की विरासत के लिए लड़ना झगड़ना आरंभ कर देते थे। शाहजहां की बीमारी की अवस्था का लाभ उठाकर उसके बेटों ने भी परस्पर संघर्ष करना आरंभ कर दिया। शाहजहां अपने बेटे दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। दाराशिकोह बहुत ही शांत स्वभाव का मानवता प्रेमी उदार चित्त वाला मुगल राजकुमार था। यह एक संयोग ही था कि महाराणा राज सिंह के पास शाहजहां के बेटे औरंगजेब और दारा शिकोह दोनों ने ही सहायता का पत्र भेजा।
महाराणा की बुद्धिमत्ता
महाराणा राज सिंह ने फिर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए किसी भी राजकुमार को समर्थन देने से इंकार कर दिया। महाराणा यह भली प्रकार जानते थे कि युद्ध में कोई सा एक पक्ष ही जीतेगा और यदि विरोधी पक्ष जीत गया तो वह मेवाड़ के लिए शुभ नहीं रहेगा। कहा यह भी जाता है कि महाराणा राज सिंह के पास उस समय जब दाराशिकोह का पत्र सहायता प्राप्ति के संदर्भ में आया तो महाराणा ने उस पत्र का उत्तर यह कह कर दिया कि उसके लिए सभी मुगल राजकुमार बराबर हैं। वह किसी भी एक पक्ष को सहायता या समर्थन नहीं देगा। बताया जाता है कि महाराणा के उत्तर का औरंगजेब पर बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा। वह जब युद्ध में विजयी होकर बादशाह बना तो उसने महाराणा राजसिंह कि इस प्रकार की सहयोगात्मक नीति का स्वागत किया।
उस समय महाराणा राजसिंह जानता था कि औरंगजेब को फतेहाबाद से विजय मिल चुकी है और भविष्य में दिल्ली की शक्ति और सत्ता का केंद्र बिंदु औरंगजेब ही होगा। मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने दारा द्वारा सहायता मांगे जाने के प्रस्ताव पर अपनी ओर से उत्तर देते हुए यह लिखकर टाल दिया कि उसके लिए तो सभी राजकुमार बराबर हैं। औरंगजेब राजसिंह के इस सकारात्मक व्यवहार से अत्यधिक प्रसन्न हुआ और औरगजेब ने बादशाह बनते ही राजसिंह के पद को 6000 बढ़ाकर उपहार में डूंगरपुर व बाँसवाड़ा के परगने दे दिये। महाराणा ने इस समय मुगलों के इस पारस्परिक कलह का लाभ उठाते हुए उनके थानों को जीतना आरंभ कर दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
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मुख्य संपादक, उगता भारत