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भारत में इस्लाम का बीजारोपण मुस्लिम आक्रान्ताओं की देन मानते थे अंबेडकर

भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों पर वर्तमान इतिहास या तो मौन साध जाता है या उनका वर्णन कुछ इस प्रकार करता है कि उस समय इस प्रकार की बर्बरता शासकों में सर्वत्र पाई जाती थी अर्थात मुस्लिमों का उस समय बर्बर होना कोई बड़ी बात नहीं थी ।
संपूर्ण संसार में ऐसा होना उस समय का एक प्रचलन था। इस प्रकार के इतिहास लेखन से हिंदू समाज के लोग भ्रमित हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उस काल के विषय में यही सत्य है। वर्तमान इतिहास में कुछ ऐसे भी भ्रम पैदा किए गए हैं जिनसे लगता है कि मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में इस्लाम के जनक नहीं थे। उन्होंने अपनी तलवार के बल पर इस्लाम को भारत में नहीं फैलाया। इसके विपरीत सत्य यह है कि धीरे-धीरे जब इस्लाम भारत के वैदिकधर्मियों के सम्पर्क में आया तो उन्हें लगा कि इस्लाम के भीतर बहुत सारे ऐसे गुण हैं जो उनके स्वयं के धर्म में भी नहीं मिलते। फलस्वरूप उन्होंने स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार किया। इस भ्रांति का निवारण करते हुए भीमराव अम्बेडकर जी लिखते हैं ‘मुस्लिम आक्रान्ता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मन्दिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा भारत में लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक यबांजद्ध वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं भी अपेक्षाकृत अपनी याद से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं। यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक यबांजद्ध वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।”( पृष्ठ 49 )
बात स्पष्ट है कि भारत में इस्लाम का प्रचार प्रसार और विस्तार इस्लाम की उस तलवार ने किया जो इस्लाम के तथाकथित बादशाहों के हाथों में रही या उनके उन सैनिकों के हाथों में रही जो उनके इशारे पर हिन्दुओं को लूटना और उनकी औरतों के साथ बलात्कार करना या उन्हें बलात अपने घर में रखना अपना नैसर्गिक अधिकार मानते थे। साम्प्रदायिक दंगे इस्लाम का मौलिक संस्कार भारत में यदि निष्पक्ष रूप से साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास लिखा जाए तो यह तथ्य स्थापित हो जाएगा कि भारत में साम्प्रदायिक दंगे उतने ही पुराने हैं जितना पुराना इस्लाम है। मुस्लिम बादशाहों या सुल्तानों के काल में सुनियोजित ढंग से होने वाले नरसंहार इन सांप्रदायिक दंगों का वह वीभत्स स्वरूप था जब हिंदू केवल और केवल एक असहाय और निरीह प्राणी के रूप में इनकी तलवार का शिकार बनता था परन्तु उन अत्याचारों को भुला देने की बात वर्तमान इतिहास करता है। जिससे यह भ्रम स्थापित हो जाता है कि भारतवर्ष में साम्प्रदायिक दंगे तो अंग्रेजों या उसके बाद स्वतन्त्र भारत में होने आरम्भ हुए जब हिन्दुओं का शासन हुआ। इससे ऐसा लगता है कि जैसे भारतवर्ष में अंग्रेजों और हिन्दुओं ने ही मुसलमानों के विरुद्ध साम्प्रदायिक दंगे कराने आरम्भ किए। उससे पहले इस्लाम तो भाईचारे के आधार पर शासन कर रहा था। जिसका परिणाम यह भी हुआ है कि भारतवर्ष में हिन्दू समाज को हिंसक और असहिष्णु समाज के रूप में स्थापित करने की जोरदार वकालत होने लगी।
गांधीजी कभी भी यह नहीं कह पाए कि भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मुसलमानों का यहां आना। जबकि डॉ आंबेडकर इस बात को खुले मंचों से भी कहते थे और अपनी पुस्तक के माध्यम से लिखकर भी गए कि भारत में हिंदू मुस्लिम दंगे मुस्लिमों की देन हैं। डॉक्टर अंबेडकर समस्या के समाधान के लिए ऊपरी ऊपरी बातों से देशवासियों को गांधीजी की भांति प्रसन्न करने की नीति में विश्वास नहीं रखते थे । वह चोर को चोर कहने का साहस रखते थे। जबकि गांधीजी चोर को भी शाह के साथ बैठाने की अतार्किक चेष्टा कर रहे थे।
गांधी जी की गलत नीतियों के कारण देश में यह भ्रम फैलाया गया कि इस्लाम भाईचारे और शांति का मजहब है। इस्लाम के शासनकाल में कहीं साम्प्रदायिक दंगों का कोई उल्लेख नहीं है। इस संदर्भ में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण बातें स्थापित कर इतिहास को भ्रम और सन्देह की पोटली बनाकर प्रस्तुत करते हैं, उन्होंने भारत के साथ बहुत बड़ा बड़ा धोखा किया है। क्योंकि उन्होंने ऐसी मान्यता को स्थापित कर भारत के अत्यन्त उदार और मानवता प्रेमी हिन्दू या वैदिक धर्म को असहिष्णु और दूसरों पर अत्याचार करने वाले समाज के रूप में स्थापित कर दिया है। जिससे मुस्लिमों की अंधी साम्प्रदायिक नीतियों और राजनीति को भी मानवता प्रेमी दिखाने में यह लोग किसी सीमा तक सफल हो गए हैं। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने इस भ्रांति को तोड़ते हुए अपनी पुस्तक में लिखा तीसरी बात मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।
दंगों को मुस्लिमों की गुंडागर्दी कहने का साहस कांग्रेस के गांधीजी और नेहरू नहीं कर पाए, परन्तु भीमराव अंबेडकर जी ऐसे पहले नेता हैं जिन्होंने मुस्लिमों के दंगा प्रेम को उनकी राजनीतिक गुंडागर्दी का नाम दिया। बाबासाहेब का यथार्थवादी इतिहास दर्शन इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब मुसलमानों ने हिन्दुओं के नरसंहार करने वाले लोगों को हिन्दुओं के द्वारा युद्ध क्षेत्र में मारे जाने पर शहीद का दर्जा दिया। आज हम उन्हें इतिहास में इसी नाम से सम्मान के साथ बुलाते हैं। इतिहासकारों की इसी सोच के चलते हमारे अनेकों वीर योद्धा जहाँ इतिहास में उपेक्षा की भट्टी में डाल दिए गए, वहीं जो लोग मानवता के हत्यारे रहे उन्हें सम्मान देने के लिए हम बाध्य कर दिए गए या कहिए कि अभिशप्त कर दिए गए। स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसे आर्य संन्यासी के हत्यारे को गांधीजी ने ‘भाई’ कहकर सम्मान के साथ बुलाया। इसी प्रकार देश का बंटवारा करने वाले जिन्नाह को भी ‘कायदे आजम’ कहने वाले गांधी ही पहले व्यक्ति थे।
आज ऐसे अनेक लोग हैं जो बाबासाहेब का नाम लेकर गांधी जी के इस हिन्दू विरोधी इतिहास दर्शन को उचित मानते हैं और कुछ ऐसा प्रदर्शन करते हैं जैसे अम्बेडकर जी भी गांधीजी के इस दृष्टिकोण से सहमत थे। जबकि सच यह है कि अम्बेडकर जी का इतिहास दर्शन नितान्त यथार्थ पर आधारित था। वह यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ इतिहास को समझने का प्रयास करते थे और इसी रूप प्रस्तुत करना भी अपना नैतिक दायित्व समझते थे । इतिहास को अपने इस इतिहास दर्शन को स्पष्ट करते हुए बाबासाहेब ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में लिखा ‘महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई? मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह अपराध किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सजा मिली। तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निन्दा नहीं की। इसके विपरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण
लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का है। जिसने अब्दुल कयूम की और से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है’ क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती वह श्री गांधी का दृष्टिकोण ।
जब गांधी जी ‘हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई’ का नारा लगा रहे थे तब बाबासाहेब यहाँ पर भी अपना वास्तविक और न्याय संगत दृष्टिकोण हिन्दू और मुसलमान के विषय में प्रस्तुत कर रहे थे। गांधीजी नितान्त काल्पनिक दृष्टिकोण को अपनाकर ऐसी दो विचारधाराओं को एक साथ बैठाने का प्रयास कर रहे थे, जिसमें दोनों का एक साथ बैठना सम्भव ही नहीं था। क्योंकि एक विचारधारा दूसरी विचारधारा को समाप्त कर सर्वत्र अपना परचम लहराना चाहती थी और दूसरी विचारधारा अपनी सहिष्णुता और उदारता के कारण उसे स्वीकार करना तो चाहती थी, परंतु इस शर्त पर ही स्वीकार करना चाहती थी कि वह अपनी परम्परागत कार्य नीति और कार्य योजना को छोड़े तो कोई बात बने ।
इस पर गांधीजी का एक ही तर्क रहता था कि जैसे भी हो हिन्दुओं को मुसलमानों को गले लगाना ही चाहिए। वे अपनी प्रवृत्ति छोड़ें या न छोड़ें परन्तु हिन्दू उनके हाथों कटता व मिटता रहे और यह सब कुछ स्वीकार करके उन्हें गले लगाता रहे। इसके विपरीत डॉ अम्बेडकर एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर चलने वाले राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी उपरोक्त पुस्तक में यह लिखा कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अलग अलग प्रजातियां हैं। स्पष्ट है कि प्रजातियां अपना अलग-अलग अस्तित्व बनाए रखना चाहती हैं। यद्यपि वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाले लोगों का मानवतावाद सबको गले लगाकर चलने में विश्वास रखता है, परन्तु यह मानवतावाद इतना सरल भी नहीं है कि जो इसको काट रहा हो यह उसे भी अपना मानने की मूर्खता करे। जो इसकी नीतियों में विश्वास रखता है और मानवतावाद को सर्वोपरि मानता है, उसके साथ यह अपना कलेजा सौंपकर चलने में विश्वास रखता है और जो कलेजा खाकर दूसरों को साथ लेने की बात करता हो, उससे यह वैसे ही दूरी बनाता है जैसे एक प्रजाति दूसरी जाति से दूरी बनाती हैं।
बाबासाहेब ने इस विषय में स्पष्ट लिखा है कि “आध्यात्मिक
दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं। जैसे प्रोटेस्टेंट्स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव हों, बल्कि वे तो दो अलग अलग प्रजातियां हैं?”
इस प्रकार डॉ अम्बेडकर अपने स्पष्ट चिंतन के आधार पर तत्कालीन भारत की वास्तविक मुस्लिम सांप्रदायिकता की समस्या को सही दृष्टिकोण से समझने में सफल हुए जबकि गांधीजी इसे सही संदर्भ में कभी समझ नहीं पाए। डॉ अंबेडकर यदि चाहते तो वह बौद्ध मत के स्थान पर इस्लाम पंथ स्वीकार कर सकते थे , पर उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। क्योंकि उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि यदि मैं हिंदू धर्म को छोड़कर मुस्लिम धर्म अपना लूंगा तो वहां पर जाकर तो और भी अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। इसके विपरीत गांधीजी मुस्लिम मत की शिक्षाओं का गुणगान करते रहे।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी और डॉक्टर अंबेडकर में कार्यएमकेशैली, कार्य नीति और कार्य व्यवहार को लेकर गंभीर मतभेद थे।
अपनी स्पष्टवादिता के कारण डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक कट्टर राष्ट्रवादी व्यक्तित्व का नाम है। जिन्होंने नेहरू और गांधी की दोगली नीतियों का विरोध करते हुए और लगभग उन्हें नकारते हुए कई अवसरों पर अपने स्पष्ट राष्ट्रवादी विचार रखे । वे चाहते थे कि भारतवर्ष का विभाजन यदि मजहब के नाम पर हो ही रहा है तो भविष्य की सारी समस्याओं के समाधान के लिए हिन्दू- मुस्लिम आबादी का भी पूर्ण तबादला हो जाना चाहिए अर्थात पाकिस्तान में कोई हिन्दू ना बचे और हिन्दुस्तान में कोई मुस्लिम ना बचे । सचमुच डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी का यह चिन्तन नेहरू और गांधी जी के चिन्तन की अपेक्षा जहाँ पूर्णतया यथार्थवादी था, वहीं उनके राष्ट्रवादी होने का एक स्पष्ट प्रमाण भी है।

राजनीति की दोगली विचारधारा से रहे दूर

उनके यथार्थ राष्ट्रवादी होने के चिन्तन से अभिभूत होकर इतिहासकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में पृष्ठ 236 पर लिखा है – ही वाज़ नेशनलिस्ट टू द कोर। उन्होंने भारत में एक ऐसे राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाई जो राजनीति में रहकर राजनीति की किसी प्रकार की तुष्टीकरण की या दोगली विचारधारा का कभी शिकार नहीं हुई । उन्होंने यदि दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के कल्याण के लिए कभी कुछ लिखा-पढ़ा या कहा तो यह भी उनकी राजनीति का एक ऐसा हिस्सा था जो दूषित मानसिकता की राजनीति से निरपेक्ष भाव रखता था। उन्होंने ऐसा मानवता के उत्थान के लिए कहा, ना कि किसी राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए। जबकि उनके बाद कांग्रेसी सरकारें दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के कल्याण को राजनीति की दूषित मानसिकता के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने लगीं । उसी का परिणाम यह निकला कि दलित, शोषित और उपेक्षित समाज के लिए बनने वाली योजनाओं को लेकर भी राजनीति होने लगी । धीरे-धीरे इसी दूषित राजनीति ने डॉ. अम्बेडकर जैसे राष्ट्रवादी और यथार्थवादी चिन्तन रखने वाले महान व्यक्तित्व को किसी वर्ग विशेष का नेता बना कर रख दिया। जबकि वह किसी वर्ग विशेष के नेता ना होकर सम्पूर्ण भारतवर्ष के नेता थे। क्योंकि उनके चिन्तन में समग्रता का भाव समाविष्ट था।
उन्होंने एक बार कहा था कि बकरियों की बलि चढ़ाई जाती है, शेरों की नहीं। उनके इस कथन के कई अर्थ हैं। जहाँ उन्होंने ऐसा कहकर दलित, शोषित व उपेक्षित समाज के लोगों को सबल बनने और सबल बनकर राष्ट्र के विकास में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वाह करने के लिए ऐसा कहा, वहीं उन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए भी यह सन्देश दिया कि वह इतिहास के इस सत्य को स्वीकार करे कि जब-जब उसने विदेशी आक्रमणकारियों या शासकों के समक्ष अपने आपको किसी बनावटी अहिंसा या ऐसे ही किसी ‘अवगुण’ को अपनाकर स्वयं को एक भेड़ बकरी के रूप में प्रस्तुत किया तो उन्हें भारी क्षति उठानी पड़ी । पर जब-जब जिस-जिस कालखंड में वह मजबूती के साथ विदेशी आक्रमणकारियों या शासकों के विरुद्ध उठ खड़े हुए तब-तब उसके बहुत ही अच्छे परिणाम मिले ।
(मेरा यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक: उगता भारत

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