बिखरे मोती-भाग 188
गतांक से आगे….
हिंसा मन का स्वभाव है जबकि अहिंसा आत्मा का स्वभाव है। लोभवश कोई अपराध करने पर कहता है-”मन बिगड़ गया था” अर्थात आत्मा रूपी सवार को मन रूपी घोड़ा उड़ा ले गया और उसे पतन के गड्ढे में गिरा दिया। इससे स्पष्ट होता है कि लोभ मन का स्वभाव है, आत्मा का नहीं। आत्मा का स्वभाव तो उदारता है। एक व्यभिचारी अथवा बलात्कारी अपने अपराध को छिपाने के लिए कहता है-मन खराब हो गया था, अथवा मन वश में न रहा, यह कामोत्तेजना भी मन का स्वभाव है- आत्मा का नहीं, आत्मा का स्वभाव तो धर्मानुकूल काम है। मनुष्य दम्भ और अहंकार में जीता है। यह मन का स्वभाव है-आत्मा का नहीं। आत्मा का स्वभाव तो अहंकार शून्यता और ऋजुता (सरलता) में रहना है। मोह के वशीभूत हुआ मनुष्य आंखें होते हुए भी अंधा हो जाता है-निष्पक्ष नहीं रहता है। यह मन का स्वभाव है-आत्मा का नहीं। आत्मा का स्वभाव तो विवेकशीलता है, न्यायप्रियता है। ईष्र्या की आग में जलने वाला व्यक्ति कभी प्रसन्नचित नहीं होता है-क्योंकि ईष्र्या मन का स्वभाव है, आत्मा का नहीं। आत्मा का स्वभाव तो प्रसन्नता है, आनंद है, मस्ती है, शांति है। प्रतिशोध की आग मनुष्य को पागल कर देती है, सर्वनाश के कगार पर पहुंचा देती है। प्रतिशोध मन का स्वभाव है-आत्मा का नहीं। आत्मा का स्वभाव तो आत्मबोध है, क्षमाशीलता है, परहित है। झूठ, चालाकी, बेइमानी, छल, कपट तथा षडय़ंत्रों (साजिशों) का कुचक्र रचना-यह मन का स्वभाव है, आत्मा का नहीं। आत्मा का स्वभाव सत्य है, सात्विक है, सत्याचरण से ओत-प्रोत है, जबकि मन का स्वभाव मायावी है, रजोगुणी और तमोगुणी है। मन का स्वभाव उग्रता (आक्रोश) और व्यग्रता (बेचैनी) देने वाला है, जबकि आत्मा का स्वभाव क्षमा, क्षान्ति और शान्ति देने वाला है। कहने का भाव यह है कि-‘हे मनुष्य! तू अपनी आत्मा के स्वभाव में जी, क्योंकि तेरा मूल स्वभाव तो तेरी आत्मा का स्वभाव है। ‘
मन का स्वभाव तो मायावी है अर्थात नकली है। कैसी विडंबना है कि आज हम अपनी आत्मा के स्वभाव को छोडक़र मन के स्वभाव में जीवनयापन कर रहे हैं और आधुनिक एवं उन्नत मानव होने का दम भर रहे हैं। यदि यही प्रगति है तो पतन क्या होगा? यदि यही विकास है तो विनाश क्या होगा? यदि यही जीवन का ध्येय है तो हेय क्या होगा? यदि यही आकर्षण है तो विकर्षण क्या होगा? यदि यही जीवन है तो मृत्यु क्या होगी? यदि यही आधुनिक और उन्नत मानव है तो विक्षिप्त मानव कौन होगा? ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं, जो हमारी आत्मा को कचोटते हैं, हमसे पूछते हैं-मानव तन पाकर क्या खोया, क्या पाया? आनंद के घाट पर क्यों खाली हाथ खड़े हो? चंदन के वन को क्यों कोयला बना रहे हो? अर्थात सांसों को क्यों व्यर्थ खो रहे हो? अपने निजी निवास को अर्थात आनंदलोक को क्यों भूल रहे हो?
काश! मनुष्य मन के स्वभाव में नही अपितु आत्मा के स्वभाव में जीये और सर्वदा इस बात को स्मरण रखे कि मैं (आत्मा) आनंदलोक से पृथ्वी पर सत्कर्म (पुण्य) और सिमरन (भगवद्-भजन) करने आया हूं, ताकि मैं पुन: अपने निजी निवास अर्थात भगवद्-धाम में पहुंच सकूं। याद रखो, आत्मा दिव्य गुणों से ओत-प्रोत है अत: हमारा मूल स्वभाव दिव्यता है। इसका संवर्धन करना, परिमार्जन करना और इसे अक्षुण्ण रखना मानव मात्र का पुनीत दायित्व है। क्रमश: