गोवा में मैने क्या देखा और क्या पाया
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आचार्य श्री विष्णुगुप्त
दृश्य नंबर वन, ( गाने के बोल) – बच के रहना रे बाबा/ तुम पर सबकी नजर है। दृश्य नंबर टू- शेखर यानी रणधीर कूपर को पकड़ने पुर्तगाली पुलिस आती है, रणधीर कपूर को बचाने के लिए एक स्वतंत्रता सेनानी अपनी जवान बेटी को रणधीर कपूर की हम विस्तर कर देते है, पुर्तगाल पुलिस से वह स्वतंत्रा सेनानी कहते हैं कि कमरे में मेरी बेटी और दामाद सो रहे हैं, फिर भी पुर्तगाली पुलिस कमरे में घूसती है और दोनों को हम विस्तर देख वापस लौट जाती है, इस प्रकार शेखर यानी रणधीर कपूर पुर्तगाली पुलिस की पकड़ से साफ बच जाते हैं। ये दोनों दृश्य अमिताभ बच्चन की बहुचर्चित फिल्म पुकार की हैं। यह पुकार फिल्म 1983 की सुपर हिट फिल्म थी और यह फिल्म गोवा की आजादी पर बनी हुई थी। हमने अपने जीवन में आठ -दस फिल्में देखी हैं उसमें यह फिल्म थी। चूंकि यह फिल्म इतिहास पर बनी हुई थी और आजादी से जुड़ी हुई थी इसलिए ये दोनों दृश्य मेरे मन को हमेशा कचौटती थी और यह सोचने के लिए विवश करती थी कि हमारे स्वतत्रता सेनानियों ने कितना बलिदान किया था, कितने सपने देखे थे, आजादी के लिए अपनी बेटी की इज्जत तक दांव पर लगा देते थे। इसके बाद ही हमें आजादी मिली। लेकिन आज की पीढ़ी उस बलिदान और त्याग को भूल कर सिर्फ अपनी व्यक्तिगत उन्नति और भौतिकवादी सुविधाओं से घिरे रहता है, जिसके लिए अपना देश बेगाना लगता है, देशभक्ति सांप्रदायिकता के प्रतीक बन जाती है और अपनी विरासत बोझ के सामान बन जाती है, वह वैश्विक नागरिक बन जाता है, वैश्विक नागरिक की दास्ता के लिए अनिवार्य शर्त स्वयं के देश की हानि करना, उसकी खिल्ली उड़ाना और पर संस्कृति व पर देश की बुराइयों को भी सम्मान के साथ गुनगान करने के लिए सक्रिय रहता है, क्योंकि ऐसा करने से ही उसकी भौतिक उन्नति होती है, उसकी मन की इच्छाओं की उड़ान सुनिश्चित होती है।
जब कोई दृश्य और बात, इतिहास, विरासत मन की गहराई में बैठ जाती है, प्रभावित करती है, अपनी ओर हमेशा खिचती है तो फिर उसके प्रति सिर्फ लगाव ही नहीं उत्पन्न होता है बल्कि उसके बारे में जानने-समझने की संपूर्ण आधार महत्वपूर्ण हो जाते हैं। पुकार फिल्म तो सिर्फ एक आधार मात्र था जो यह जानने और महसूस करने तथा कल्पना करने के लिए कि गोवा मुक्ति आंदोलन कितना कठिन और बलिदानी था? मेरे मन में यह प्रश्न बार-बार उठता था कि गोवा भी भारत भूमि का ही एक टूकड़ा था, भारत भूमि का ही एक हिस्सा था। जब भारत 1947 में आजाद हुआ तब गोवा क्यों नहीं आजाद हुआ? अंग्रेजों की तरह पुर्तगाली भी गोवा छोड़कर क्यों नहीं भागे, वे गोवा को गुलाम क्यों बना कर लंबे संमय तक बैठे रहे? गोवा की मुक्ति यानी गोवा की आजादी 1961 में मिली थी। यानी कि भारत की आजादी चौदह-पंद्रह साल बाद। इतने समय तक गोवा की अपनी जनता पुर्तगाल की गुलामी क्यों करती रही? पुर्तगाल इतने लंबे समय तक गोवा को गुलाम क्यों बना कर रखा था? जब-जब हमने अपने इन प्रश्नों के उत्तर ढुढने की कोशिश की तो फिर हमें जवाहरलाल नेहरू की कारस्तानी हाथ लगी और राममनोहर लोहिया की वीरता हाथ लगी। कश्मीर की तरह गोवा भी नेहरू की वैश्विक शांति की हस्ती बनने की भेंट चढ़ गया। नेहरू यह नहीं चाहते थे कि वैश्विक छबि उनकी धूमिल हो जाये और उन्हें एक हिंसक शासक की पदवि मिले। पुर्त्रगाल खुद छोड़कर भाग जाये पर पुर्तगाल ऐसी उपनिवेशिक मानसिकता क्यों छोड़ता?
गोवा के प्रति वर्तमान आकर्षण क्या है? गोवा लोग क्यों जाते हैं? क्या गोवा की पुर्तगाली शासन काल की प्रतीक चिन्हों और विरासत को देखने लोग जाते हैं? क्या गोवा मुक्ति आंदोलन के स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष गाथाओं को लोग जानने जाते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक ही है। आज गोवा जाने वाले लोगों का गोवा के इतिहास और बलिदान तथा प्रेरक विरासत से कोई लेना नहीं होता है। फिर गोवा लोग क्यों जाते हैं? गोवा लोग जो जाते हैं उनके कुछ इस प्रकार की मन में दबी अश्लील और विभत्स कुइच्छाएं होती हैं जिन्हें शांत करने के लिए ही जाते हैं। समुद्र की अतुलनीय छटा तो एक बहाना मात्र होता है। गोवा जैसा समुद्र की अतुलनीय छटा और कहां हैं? इससे बडी अतुलनीय छटा को देखने के लिए विदेश भ्रमण ही करना पडेगा। गोवा लोग विदेशी महिलाओं की अर्धनग्न शरीर को देखने जाते हैं, उनके अर्द्ध काम कीड़ा को देखने जाते हैं, संभोग की इच्छाओं की संतुष्टि के लिए जाते है, विदेशों की संस्कृत की तरह अपनी जोड़ी का प्रदर्शन करने जाते हैं, काले धन का प्रयोग करने जाते है, कैसिनों खेलने जाते हैं, बार के शराब मे डूबने जाते है, बार बालाओं के अर्द्धनग्न-नग्न नाच देखने जाते हैं। कई इसी श्रेणी के अन्य कारण भी होते हैं। गोवा की वर्तमान रूप विभत्स है, भौतिकवादी है, महिला के शरीर को सिर्फ उपभोग की वस्तु समझने का है। खुलापन और सर्वसुलभ इच्छाओं के संसाधनों की उपलब्धता सहज और सर्वमान्य भी हो गया है।
मेरी सोच गोवा को नारी देह के व्यापार और बाजार के खिलाफ है। अगर गोवा की पहचान नॉलेज हब या फिर आईटी हब जैसी होती तो मुझे अच्छा लगता।
मैंने गोवा कई बार गया। अलग-अलग कार्यक्रमों में। लेकिन पुकार फिल्म देखने के बाद 1983 से मेरी जिज्ञषाएं हमेशा कचौटती रही। मैंने इस बार यह तय किया कि मुझे गोवा के समुद्र तट की चकाचौघ छटाएं नहीं देखनी है, मुझे उन विकारों के सक्रिय और चलने-फिरने वाले संसाधनों पर शोध नहीं करना है। मुझे उन विरासतों और प्रेरक चिन्हों पर गौर करना जो अभी अपरिचित ही हैं और जिन्हें भारत के इतिहास में ओझल कर दिया। मैंने दो नामों को पहले से ही छांट कर रखा था। एक राममनोहर लोहिया और दूसरा नाम राजाभाउ महाकाल का था। राममनोहर लोहिया ने जवाहरलाल नेहरू को ललकारा था और उन्हें पुर्तगाल का एजेंट कह कर गोवा मुक्ति आंदोलन शुरू किया था। पुर्तगाली जेल में लोहिया डाल दिये गये। राजाभाउ महाकाल राष्टीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक थे। जिन्होंने गोवा मुक्ति के लिए महाकाल की नगरी उज्जैन से एक जत्था लेकर 14 मार्च 1955 को गोवा मार्च किया था। राजाभाउ के गोवा मुक्ति आंदोलन के मार्च में चार सौ से ज्यादा सत्याग्रही थे। गोवा की आजादी में राष्टीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका अग्रनी थी। मोहन रनाडे जैसे प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में शोध किया। मैंने उन स्थलों पर जाकर वर्तमान देखा जहां पर लोहिया और राजाभाउ जैसे स्वतंत्रता सेनानी अपनी सभाएं कर पुर्तगाली दास्ता के खिलाफ जनता को वीरता दिखाने के लिए प्रेरित करते थे। मुझे यह जान कर बहुत हैरानी हुई कि आज का गोवा इन सभी बलिदानियों के विरासत को भूलाने का ही काम किया है। आज के गोवा की जनता में गोवा मुक्ति आंदोलन के जनक राममनोहर लोहिया और राजाभाउ तथा मोहन रनाडे जैसे बलिदानियों की कोई प्रेरक जानकारियां भी नही है। मैंने अगौडा का किला भी देखा जहां पर पुर्तगाली गोवा की जनता की वीरता को कुचलने के लिए प्रयोग करते थे। पौरानिक और ऐतिहासिक मंदिरों की छटा भी निराली है। मारूति, श्रीकामाक्षी और रामनाथ जैसे मंदिरों की भव्यता और मान्यताएं गहरी हैं। कभी गोवा सनातन संस्कृति की महान और प्रेरक धरोहर व विरासत था। पुर्तगालियों ने सनातन संस्कृति के विध्वंस और विनाश के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। गोवा का ईसाईकरण भी पुर्तगालियों की गुनाह थी। महदेई वन मेरे लिए दर्शनीय है जो प्राकृतिक विविधता के लिए प्रसिद्ध है।
गुनहगार और उपनिवेशिक संस्कृतियां प्रेरक और आईकॉन क्यों बन गयी? पुर्तगाली चले गये पर उनकी कुख्यात स्मृतियों के बोझ हम आज भी क्यों उठा रहे हैं?विडंबना देखिये कि जो चर्च और संस्थाएं पुर्तगालियों की देन थी वे हमेशा पुर्तगालियों के प्रति ही समर्पित थी। चर्च और इनसे जुड़ी संस्थाएं पुर्तगालियों के साथ थी। लेकिन इसके लिए चर्च और उसके प्रति समर्पित संस्थाओं की गुनाह को इतिहास से लापाता कर दिया गया। इसलिए वर्तमान पीढी जानती ही नहीं है कि चर्च और उसके प्रति समर्पित संस्थाएं न केवल पुर्तगालियों बल्कि भारत में अंग्रेजी शासन की हथियार थी। धर्मातंरण के बल पर गोवा आज ईसाई बहुलता वाद के घेरे में हैं जहां पर गोवा मुक्ति आंदोलन से जुड़े विषयों पर चर्चा करना या फिर इसको दर्शनीय बना कर विरासत बनाने की बात करना आदि सांप्रदायिकता की कसौटी मान ली जाती है। फिर भी हमें गोवा को सिर्फ भौतिक कुरीतियों का प्रतीक नहीं बल्कि पौराणिक विरासत के प्रतीक भी बनाना चाहिए। इसके लिए अनिवार्य शर्त गोवा मुक्ति आंदोलन के प्रतीकों को जींवत रखना होगा।
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आचार्य श्री विष्णुगुप्त
New Delhi
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